हर मजदूर, हर इंसाफ प्रिय व्यक्ति इस किताब को अवश्य पढ़े
मारुति सुजुकी मजदूरों का अनंत संघर्ष ‘‘फैक्टरी जापानी प्रतिरोध हिन्दुस्तानी’’ नाम से एक शोधपरक व अनूठी शैली में लिखी किताब अभी हाल में ही प्रकाशित हुयी। इस किताब को अंजलि देशपाण्डे जो कि उपन्यासकार व कहानीकार हैं और मानवाधिकारों के लिए सक्रिय रही प्रसिद्ध वकील नंदिता हक्सर ने मिलकर लिखा है। मूलतः लेखन अंजलि देशपाण्डे का है। नंदिता हक्सर ने शोध व सम्पादन में अपना योगदान दिया है।
हमारे देश में मजदूरों के जुझारू संघर्षों को यदा-कदा ही कागज पर उकेरा गया है। समकालीन मजदूर संघर्षों पर तो लेखन अक्सर ही नहीं होता है। इसमें सबसे बड़ी समस्या यह है कि मजदूर वर्ग के बीच से लेखक, इतिहासकार व साहित्यकार पैदा नहीं हो रहे हैं। और जो मजदूर या मजदूर नेता संघर्षों में लिप्त रहते हैं वे मजदूरों के आंदोलन और इतिहास पर कलम नहीं चलाते हैं। गैर हिन्दी भाषाओं में यह हो सकता है कि मजदूरों के संघर्षों व इतिहास को कुछ अच्छे ढेग से दर्ज किया गया हो परन्तु हिन्दी भाषा में तो यह समस्या विकट है। साथ ही हिन्दी में लिखे गये मजदूरों के इतिहास, शोधपरक लेख, साहित्य की सबसे बड़ी सीमा यह है कि उसका अंतर्राष्ट्रीय तो क्या सर्व भारतीय चरित्र भी नहीं है।
उपरोक्त अर्थों में अंजलि देशपाण्डे व नंदिता हक्सर ने जो कि यद्यपि मजदूर वर्ग से नहीं आती हैं परन्तु उन्होंने मारुति की संघर्ष गाथा लिखकर भारत के मजदूर वर्ग की बहुत बड़ी मदद की है। उन्होंने अपने इस कार्य से भारत के मजदूरों ंमें विशिष्ट स्थान पा लिया है। जैसे-जैसे मजदूर उनकी पुस्तक ‘‘फैक्टरी जापानी प्रतिरोध हिन्दुस्तानी’’ को पढ़ेंगे वैसे-वैसे वे अंजलि और नंदिता के प्रति अपने हृदय में काफी सम्मान व स्नेह को महसूस करेंगे। स्वयं लेखिका बेहद विनम्र हैं और मजदूरों के प्रति सम्मान से भरी हुयी हैं। किताब के एकदम प्रारम्भ में वे कहती हैं, ‘‘इस किताब को अपनी कहते हुए भी हिचक होती है। यह उन तमाम मजदूरों की किताब है जिन्होंने इस कष्टमय जीवन को जीया, संघर्ष किया, जेल गये पर न अपनी गरिमा खोयी और न मानवीयता।’’
यह किताब भारत में मारुति-सुजुकी के लगभग चार दशक के इतिहास को अपने में समेटे हुए है। ‘भारत में छोटी कार का इतिहास’ नामक अध्याय में लेखक द्वय ने मारुति की शुरूवात की कहानी को संक्षेप में पेश किया है। संजय गांधी 1975 में ही छोटी कार का उत्पादन सरकारी उपक्रम के तहत करना चाहते थे परन्तु आपातकाल और फिर जनता पार्टी की सरकार के कारण संजय गांधी की योजना परवान नहीं चढ़ सकी। 1980 में इंदिरा गांधी पुनः सत्ता में वापस आयीं परन्तु संजय गांधी का ‘सपना’ सच होता उससे पहले ही एक दुर्घटना में उनकी मौत हो गई। अब बेटे का सपना मां का सपना बन गया और फिर जापानी कम्पनी सुजुकी के सहयोग से 1983 में पहली छोटी कार का उत्पादन शुरू हुआ। ‘मारुति उद्योग लिमिटेड’ तब सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी थी जिसमें सुजुकी कनिष्ठ साझेदार थी। और नब्बे के दशक में इस उद्योग में निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हुयी और अब स्थिति यह है कि इस कम्पनी पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने मारुति को एक तरह से सुजुकी के हवाले कर दिया।
इस तरह से देखा जाए तो सुजुकी ने भारत की नई आर्थिक नीतियों (उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण) से भरपूर लाभ उठाया और देखते ही देखते उसने मारुति को निगल लिया। ‘मारुति का निजीकरण और मजदूर समाज’ नामक अध्याय में लेखक द्वय लिखते हैं, ‘‘2007 में यह घोषित रूप से निजी कम्पनी बन गयी थी। इसके साथ की मैनेजमेंट की पूरी शैली बदल गयी जो मानेसर की नई फैक्टरी में लागू हुई। इससे मजदूरों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर होने लगा। निजीकरण की यह प्रक्रिया बहुत निर्मम थी। मजदूरों को इंसान से मशीन में बदलने की प्रक्रिया भी तेज हो गई। उनका गरिमामय जीवन जीने का हक भी खतरे में पड़ने लगा।’’ और फिर आगे वे लिखते हैं कि कैसे 2011 के अंत तक ही सुजुकी की 134 सब्सिडियरी या सहायक कम्पनियां थीं जिसमें से 70 जापान में और 64 विदेश में थीं। ‘‘जापान की अर्थव्यवस्था में इसका योगदान भी काफी है। अकेले जापान में इसके उद्योग का मुनाफा 1984 के 700 करोड़ येन से बढ़कर 2019 में 7,811 करोड़ येन हो गया।
जाहिर सी बात है कि सुजुकी के तीव्र गति से विकास और अकूत मुनाफे में भारत के गुड़गांव व मानेसर का जबरदस्त योगदान था। सुजुकी की ‘‘जापानी प्रबंध शैली’’ और ‘‘जापानी कार्य शैली’’ ने भारत में जो कारनामा रचा उसका स्वाभाविक नतीजा वही निकलना था जो 18 जुलाई 2012 को हुआ। जापानी साम्राज्यवाद और भारतीय राज व्यवस्था ने मिलकर उस घटना, दुर्घटना और परिघटना को जन्म दिया जिसे आज हम ‘‘फैक्टरी जापानी प्रतिरोध हिन्दुस्तानी’’ नामक पुस्तक में पढ़ रहे हैं।
यह किताब मारुति सुजुकी के मजदूरों के संघर्ष का एक जीवंत दस्तावेज है। यह किताब उनके संघर्षों का ही नहीं बल्कि उनके साथ हुए अन्याय व अत्याचार का भी दस्तावेज है। इसके साथ यह भारतीय न्याय (अन्याय) व्यवस्था और पुलिस की जांच व कार्यप्रणाली का भी जीवंत दस्तावेज है। यह किताब मजदूरों के कठिन जीवन का ही नहीं बल्कि कैसे उनके बेहतर जीवन के ख्वाब और प्रयास धूल धूसरित हो जाते हैं का भी एक दस्तावेज है।
यह किताब इस बात को प्रमाणिक ढंग से प्रस्तुत करती है कि नई आर्थिक नीतियों का भारत के समाज पर क्या प्रभाव पड़ा है। यह बात वह मारुति के सुजुकी के हाथों बिक जाने और फिर सुजुकी के साथ उस जापानी संस्कृति के भारत में प्रवेश कर जाने के जरिये वर्णन करती है जिसकी अभिव्यक्ति ‘कारोशी’ और ‘कारोजित्सु’ के रूप में होती है। ‘‘आ गया कारोशी भारत में?’’ नामक अध्याय में उन्हें इस रूप में प्रस्तुत किया है,
‘‘ओसामु सुजुकी ने एक बार आर सी भार्गव को यह बताया कि जापान दुनिया में कारों के सबसे कम लागत वाले निर्माता के रूप में उभरा तो इसलिए कि वे जापान में ‘‘सूखे तौलिये से भी अंतिम बूंद तक पानी निचोड़ लेते थे, जबकि उसके मुकाबले में तो भारत में तौलिया इतना गीला था कि उससे पानी टपक रहा था।’’ तौलिये से उनका इशारा मजदूर की तरफ था, और पानी है उसकी श्रम शक्ति।...
‘‘अत्यधिक काम दबाव जापान में इस हद तक प्रचलित है कि वहां इसके कारण मौत और आत्महत्या के लिए शब्दावली भी प्रचलित हो गयी है- कारोशी और कारोजित्सु।
‘‘ ‘कारोशी’ एक जापानी शब्द है जिसका मतलब अत्यधिक काम के दबाव में मौत, और ‘कारोजित्सु’ का मतलब है अत्यधिक काम और तनाव के कारण की गयी आत्महत्या।’’
इस किताब की एक खासियत यह है कि हर अध्याय की शुरूवात में उद्धरण दिये गये हैं। उद्धरण न केवल सोचने को विवश करते हैं बल्कि उस अध्याय का आप्त वाक्य भी लगते हैं। साथ ही कई बार उसके सार को भी व्यक्त कर देते हैं। जैसे ‘अध्याय 1’ ‘रहस्य में एक प्रबंधक की मौत’ के शुरू में दुष्यंत कुमार की उद्धृत पंक्तियां बड़ी की सटीक हैं, ‘‘हादसे यूं कब नहीं होते पर कभी बेसबब नहीं होते,’’
यह किताब मारुति सुजुकी के मजदूरों के पक्ष को अच्छे ढंग से व्यक्त करती है। मजदूर जब अपनी जुबान में अपनी आप बीती बताते हैं तो सुजुकी के मालिक, प्रबंधक व भारत के पूंजीवादी मीडिया सबकी पोल खुल जाती है। ‘‘मारुति के मजदूरों की जिंदगी : जिया लालः मैंने तो कुछ भी गलत नहीं किया’’ में जिया लाल कैंसर से जूझते हुए (4 जून, 2021 को उनकी मृत्यु भी हो गयी) जब अपनी जीवनगाथा रखते हैं तो भारत के मजदूरों के जीवन और उनके संघर्षों का एक आम चित्र सामने आ जाता है। जिया लाल एकदम निर्दोष थे परन्तु उनका जीवन सुजुकी के प्रबंधकों और पुलिसवालों के कारण एकदम बर्बाद हो गया। एक तरफ सुजुकी के निर्दोष मजदूरों को तरह-तरह की यातनाएं झेलनी पड़ीं और दूसरी तरफ मारुति सुजुकी के धूर्त, चालाक और सुजुकी के मुनाफों को पंख लगाने वाले आर सी भार्गव को जापानी साम्राज्यवादियों ने अपने सबसे बड़े पुरुस्कार ‘दि आर्डर आफ राइजिंग सन, गोल्ड एण्ड सिल्वर स्टार’ से वर्ष 2011 में सम्मानित किया। शायद इसलिए मारुति सुजुकी के एक प्रसिद्ध ट्रेड यूनियन नेता मैथ्यू अब्राहम ने उन्हें दलाल की संज्ञा दी थी।
यह किताब मारुति के ट्रेड यूनियन संघर्ष को भी अच्छे ढंग से सामने लाती है। इस बात को अच्छे से स्थापित करती है कि पहले तो पूंजीपति चाहते ही नहीं कि उनकी फैक्टरी में कोई यूनियन बने और यदि कोई यूनियन बन भी जाये तो वह उनकी जेबी यूनियन बन जाये। और सबसे बड़े गुनाह के रूप में ठेके के सभी मजदूरों को स्थायी करने की मांग बन जाती है। 18 अप्रैल, 2012 को ‘मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन’ ने अपना मांग पत्र दिया था और उसके ठीक तीन महीने बाद 18 जुलाई, 2012 को फैक्टरी में अग्निकांड और हिंसा को प्रबंधक वर्ग ने प्रायोजित-आयोजित कर डाला। और फिर मारुति सुजुकी के निर्दोष मजदूरों को भारतीय राज्य की संगठित हिंसा और अन्याय का शिकार होना पड़ा।
‘‘फैक्टरी जापानी प्रतिरोध हिन्दुस्तानी’’ एक ऐसी किताब है जिसे हर मजदूर को पढ़ना चाहिए ताकि वह इतिहास से सबक लेकर इतिहास का निर्माण करें। और हर इंसाफ प्रिय व्यक्ति को इसलिए पढ़ना चाहिए ताकि वह इंसाफ की लड़ाई में पूरे दिल से उतर सके।