पूंजीवादी जनतंत्र और धनतंत्र

आजकल अपने देश में चुनावों में पैसे के खेल को लेकर काफी चर्चा है। इस चर्चा को तब काफी बल मिला जब सर्वोच्च न्यायालय ने छः साल बाद आखिरकार चुनावी बांड की संवैधानिकता पर अपना फैसला दिया और उसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। 
    
चुनावों में पैसे की भूमिका को लेकर जो भी चर्चा होती है उसमें प्रकारांतर से यह भान होता है कि पूंजीवादी जनतंत्र में पैसे की भूमिका को समाप्त किया जा सकता है या कम किया जा सकता है। इस तरह चुनावों को स्वच्छ और निष्पक्ष बनाया जा सकता है तथा यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि चुनावों में जनता की असली चाहत व्यक्त हो। 
    
पर क्या यह संभव है कि पूंजीवादी जनतंत्र को पैसे के प्रभाव से मुक्त किया जा सके? क्या चुनावों में पैसे की भूमिका को समाप्त या सीमित किया जा सकता है? चुनावों के बाद क्या जन प्रतिनिधियों को पैसे के प्रभाव में आने से रोका जा सकता है?
    
पहले इस सवाल को सैद्धान्तिक तौर पर लें। 
    
पूंजीवाद सिद्धान्त रूप में मुक्त प्रतियोगिता वाली व्यवस्था है। यहां तक कि आज के बहुत बड़े स्तर के एकाधिकारी स्तर वाले पूंजीवाद में भी पूंजीवादी विचारकों से लेकर कानून तक सभी यह घोषित करते हैं कि इसमें मुक्त प्रतियोगिता है। सच्चाई भी यही है कि आज के एकाधिकारी पूंजीवाद के जमाने में भी प्रतियोगिता एकाधिकार के साथ-साथ और उसके ऊपर मौजूद होती है। 
    
पूंजीवादी जनतंत्र के लिए भी यह माना जाता है कि यह प्रतियोगिता के जरिये समाज के संचालन के लिए सबसे अच्छी व्यवस्था सुनिश्चित करती है। कई सारी पार्टियां चुनावों में आपसी प्रतियोगिता में उतरती हैं और जो पार्टी बहुमत जनता का विश्वास हासिल करने में कामयाब होती है उसे समाज की राजनीतिक व्यवस्था का संचालन करने का अधिकार मिल जाता है। पूंजीवादी जनतंत्र के पिछले ढाई-तीन सौ साल के इतिहास में यह धारणा इतनी मजबूत हो गई है कि इसे ही जनतंत्र का पर्याय मान लिया गया है। जनतंत्र का मतलब है बहुपार्टी प्रतियोगिता वाला पूंजीवादी जनतंत्र। यह भुला दिया जाता है कि इस आधार पर प्राचीन यूनान में जनतंत्र को जनतंत्र नहीं माना जा सकता। 
    
जो भी हो, पूंजीवादी जनतंत्र में पार्टियों के बीच प्रतियोगिता को न केवल स्वाभाविक माना जाता है बल्कि उसे अनिवार्य माना जाता है। अब सवाल उठता है कि क्या यह प्रतियोगिता किन्हीं नियमों-कानूनों के तहत होगी या वास्तव में निर्बाध होगी? इसे पूंजीवादी समाजों में चुनावी आचार संहिता से बांधा जाता है। यानी चुनावी प्रतियोगिता में कुछ चीजों को जायज और कुछ को नाजायज घोषित किया जाता है। 
    
पूंजीवादी जनतंत्र की चुनावी आचार संहिता में जायज और नाजायज के मामले में पैसे का मामला सबसे जटिल हो जाता है। पूंजीवाद निजी सम्पत्ति और इसीलिए पैसे को मान्यता देता है। किसी के पास कितनी भी निजी सम्पत्ति या पैसा हो सकता है। और ठीक इसी कारण चुनाव में कोई कितना भी पैसा खर्च कर सकता है। अब चूंकि पूंजीवाद में पैसे से हर चीज खरीदी जा सकती है तो स्वाभाविक है कि पैसे के बल पर वोट से लेकर प्रचार तक सभी को खरीदा जा सकता है। इसका उलटा भी है कि कोई पैसे के लिए वोट से लेकर प्रचारतंत्र को बेच सकता है। पूंजीवाद के आम नियम के हिसाब से यह जायज है। 
    
लेकिन जो चीज पूंजीवादी व्यवस्था की मूलभूत नैतिकता के हिसाब से जायज है (पैसे से हर चीज का खरीदा-बेचा जाना) वह पूंजीवादी जनतंत्र के खास क्षेत्र में उतनी नैतिक चीज नहीं मानी जाती। यहीं से पूंजीवाद में एक खास किस्म का अंतर्विरोध पैदा हो जाता है। पूंजीवादी जनतंत्र में यह माना जाता है कि हर नागरिक सचेत होता है और वह अपनी इस चेतना से मतदान करता है। उसके मतदान में पैसे द्वारा खरीद-बेच की कोई भूमिका नहीं होती। 
    
पूंजीवादी जनतंत्र का यह ऐसा छलावा है जिसे ऊपर से नीचे तक हर कोई मानने का ढोंग करता है। एक ओर हर कोई मानता है कि पूंजीवाद में पैसे से हर चीज खरीदी-बेची जा सकती है, दूसरी ओर हर कोई यह ढोंग करता है कि स्वयं पूंजीवादी जनतंत्र के मामले में ऐसा नहीं होता। ऐसे में पूंजीवादी जनतंत्र में पैसे का सारा खेल ढोंग के पर्दे में छिप जाता है। खेल चलता रहता है, बस उस पर एक पर्दा डाल दिया जाता है। यह एक ऐसी सच्चाई होती है जिसे हर कोई मानकर चलता है।     
    
ठीक इन्हीं कारणों से पूंजीवादी जनतंत्र में पैसे की भूमिका को नियंत्रित करने के सारे कानूनी और नैतिक उपाय असफल होने के लिए अभिशप्त होते हैं। वे केवल ढोंग या पाखंड की ओर ही ले जाते हैं। 
    
जो बातें पूंजीवादी जनतंत्र के चुनावों के लिए सच हैं वही बातें दूसरे रूप में चुने हुए प्रतिनिधियों के बारे में भी सच हैं। ऊपरी या औपचारिक तौर पर चुने हुए प्रतिनिधि जनता के प्रतिनिधि होते हैं। उन्हें अपने को चुनने वाली जनता का प्रतिनिधित्व करना होता है। असल में पूंजीवादी जनतंत्र का जन प्रतिनिधि भी पूंजीवाद का एक आम व्यक्ति होता है। वह भी पैसे की नैतिकता से बंधा होता है। और पैसे की नैतिकता उससे यह कहती है कि वह अपनी जन प्रतिनिधि की हैसियत को जितने ज्यादा पैसे में हो बेच दे। जन प्रतिनिधि के तौर पर वही उसके पास बेचने के लिए होता है। उसे खरीदने के लिए भांति-भांति के लोग तैयार बैठे होते हैं। कोई पूंजीपति, समूचा पूंजीपति वर्ग या कोई पार्टी उसका दाम लगाने को तैयार होती है। बस उसे इतना ध्यान रखना होता है कि उसका खरीद-बेच का धंधा कहीं उस पर भारी न पड़ जाये। कहीं ऐसा न हो कि वह अगली बार इसी कारण चुनाव न जीत पाये। इसीलिए जन प्रतिनिधि को भी अपनी बिक्री को पर्दे के पीछे छिपाना पड़ता है। 
    
पूंजीवाद में अन्यथा हो भी नहीं सकता। पूंजीवाद में एक व्यक्ति को बचपन से ही सिखाया जाता है कि अपने बारे में सोचो। ज्यादा से ज्यादा अपनी तरक्की के बारे में सोचो। और पूंजीवाद में तरक्की का सबसे बड़ा मापदंड तो पैसा ही है। जिसके पास जितना ज्यादा पैसा, उतना ही वह जीवन में सफल। ऐसे में जब पूंजीवाद में कोई व्यक्ति राजनीति का रास्ता चुनता है तो ऐसा वह ‘मानव कल्याण’ के लिए नहीं करता। राजनीति उसके लिए उसी तरह एक व्यवसाय है जैसे कोई और व्यवसाय। अब हर व्यवसाय की तरह राजनीति का व्यवसायी भी ज्यादा से ज्यादा कमाना चाहेगा। और जैसा कि होता है पूंजीवाद में सभी धंधों में पैसा कमाने के लिए कानूनी और गैर-कानूनी सारे तरीके अपनाये जाते हैं तो राजनीति के धंधे में भी यही किया जाता है। पूंजीवादी जनतंत्र में राजनेताओं का भ्रष्टाचार एकदम सहज-स्वाभाविक और अनिवार्य है। अन्यथा कोई राजनीति के धंधे में जायेगा ही क्यों? 
    
व्यवहार की बात करें तो पूंजीवादी जनतंत्र के पिछले दो-ढाई सौ साल के इतिहास में हमेशा से पैसे का खेल होता रहा है। जैसे-जैसे पूंजीवादी विकास के साथ समाज और जीवन के हर क्षेत्र में पैसे का महत्व बढ़ता गया है, वैसे-वैसे पूंजीवादी जनतंत्र में भी इसका महत्व बढ़ता गया है। कुछ उदाहरण इसे स्पष्ट करेंगे। 
    
जब संयुक्त राज्य अमेरिका को गठित करने वाले संविधान का निर्माण हुआ तो उस समय इसके तेरह घटक प्रदेश या राज्य थे। संविधान बनने  के बाद यह तय हुआ कि सारे तेरह राज्यों में जनमत संग्रह के जरिये इस संविधान का अनुमोदन कराया जायेगा। अब जो संविधान बना था वह दक्षिण के राज्यों को स्वीकार नहीं था। लेकिन वहां से अनुमोदन कराने के लिए उत्तरी राज्यों के नेताओं ने पर्याप्त धांधली का सहारा लिया और संविधान का अनुमोदन करा लिया। यह याद रखना होगा कि तब वहां बामुश्किल दस प्रतिशत लोगों को ही वोट देने का अधिकार था। तब संविधान सभा के सारे सदस्य बड़े-बड़े भूस्वामी या पूंजीपति थे। वहां के पहले राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन तब देश के सबसे धनी व्यक्ति थे। इस तरह आज दुनिया का सबसे पुराना जनतंत्र होने का दावा करने वाले अमेरिका में बिल्कुल शुरूवात से ही चुनावों में धांधली और पैसे का खेल आम बात थे। 
    
इसके थोड़े समय बाद ही फ्रांस में क्रांति हुई और वहां जनतंत्र कायम हुआ। लेकिन उस मार-काट वाली क्रांति के काल में भी पैसे का इतना बोलबाला था कि नेता भ्रष्टाचार के आरोप में गिलोटीन पर अपना सिर कटवाते रहे पर अन्य भ्रष्टाचार से बाज नहीं आये। यह प्रक्रिया पूरी क्रांति के दौरान जारी रही। केवल राबसेपियर जैसे थोड़े से ही लोग थे जो इस बीमारी से मुक्त थे। इसीलिए राबसेपियर को ‘भ्रष्ट न होने वाला’ का खिताब दिया गया था। 
    
अपने देश की बात करें तो आजादी के पहले ही अंग्रेजों के जमाने में नगरपालिका या प्रांतीय सभाओं के जो चुनाव होते थे, उनमें पर्याप्त भ्रष्टाचार था। इसे प्रेमचंद के उपन्यासों में खूब देखा जा सकता है। इस सबमें चार चांद तब लगे जब 1935 में इंडिया एक्ट लागू हुआ और उसके तहत 1937 में प्रांतीय विधान सभाओं के चुनाव हुए। चुनावों के दौरान तो खूब भ्रष्टाचार हुआ ही, असली खेल उसके बाद शुरू हुआ। ज्यादातर प्रदेशों में कांग्रेस की सरकारें बनीं तो कुछ में मुस्लिम लीग की। अपने दो साल के शासन में ही कांग्रेसी सरकारों ने भ्रष्टाचार के नये कीर्तिमान रच डाले। जब 1939 में कांग्रेस पार्टी ने द्वितीय विश्व युद्ध में देश को शामिल करने के विरोध में अपनी सरकारों से इस्तीफा दिलवा दिया तो बहुत सारे शीर्ष नेताओं ने राहत की सांस ली। उन्हें डर था कि यदि ये सरकारें कुछ और साल चल गयी होतीं तो उनमें भ्रष्टाचार के कारण कांग्रेस पार्टी जनता में अपनी साख गंवा देती। 
    
जब आजादी के पहले ही चुनावों का यह हाल था तो उसके बाद की स्थिति को सोचा जा सकता है। आजादी के पहले तो तब भी कांग्रेस पार्टी और उसके नेता आजादी की लड़ाई में शामिल होने के कारण किसी हद तक आदर्शवादी थे। लेकिन आजादी के बाद तो बस सत्ता का लालच ही रह गया। आजादी के तुरंत बाद नेता कितनी तेजी से पतित हुए, किस तरह वे सत्ता के लिए जोड़-तोड़ में लग गये यह अपने आप में रोचक गाथा है। 
    
भारत में भी पूंजीवाद के विकास के साथ जैसे-जैसे पैसे का बोलबाला हुआ वैसे-वैसे चुनावों में पैसे की भूमिका बढ़ती गई। आज यह भूमिका इतनी बढ़ गई है कि भारत चुनावी खर्चों के मामले में बाकी सारे देशों से आगे निकल गया है। कुछ लोगों ने अनुमान लगाया है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में कुल खर्च पचास हजार करोड़ रुपये से ज्यादा था जिसमें आधा केवल भाजपा ने खर्च किया था। यह खर्च 2020 में संयुक्त राज्य अमेरिका में हुए चुनावों में खर्च से ज्यादा था। यानी दुनिया के सबसे धनी देश के चुनावी खर्चों को एक गरीब देश के चुनावी खर्चों ने मात दे दी थी जब कि भारत की अर्थव्यवस्था अमरीकी अर्थव्यवस्था से छः-सात गुनी छोटी है। ‘जनतंत्र की जननी’ ने चुनावी खर्चों के मामले में ‘सबसे पुराने जनतंत्र’ को मात दे दी थी। कम से कम इस मामले में भारत अमेरिका से आगे निकल गया था। 
    
जैसा कि हिन्दू फासीवादी कहते नहीं थकते, यह ‘नया भारत’ है। इस समय भारत में चुनावों के दौरान या उसके बाद पैसे का यह बेहिसाब खेल ‘नये भारत’ की खासियत है। एक अनुमान है कि पिछले दस सालों में भाजपा ने करीब तीन सौ विधायकों की खरीद-फरोख्त की है। इस सबके लिए बेहिसाब पैसा उसे पूंजीपति वर्ग ने, खासकर बड़े पूंजीपति वर्ग ने उपलब्ध कराया है। 
    
जैसा कि फासीवाद में होता है, हिन्दू फासीवादियों को सत्ता में बैठाने के लिए तथा फिर वहां बनाये रखने के लिए भारत के बड़े पूंजीपति वर्ग ने अपने पहले के सारे बंधन तोड़ दिये। उसने सारे शर्म-लिहाज छोड़ दिये। उसने पूरी नंगई से अपना पैसा और प्रचारतंत्र हिन्दू फासीवादियों को सौंप दिया। इसकी मदद से हिन्दू फासीवादी पिछले दस साल से सत्ता में हैं और आगे भी बने रहने की उम्मीद करते हैं। 
    
लेकिन बड़े पूंजीपति वर्ग तथा हिन्दू फासीवादियों की यह नंगई ही पूंजीवादी जनतंत्र के लिए यहां से खतरा पैदा करती है कि जनता में उसकी साख खत्म होने लगती है। जनता में यह विश्वास खत्म होने लगता है कि जनतंत्र उसका है। उसे यह लगने लगता है कि चुनावों में और उसके बाद उसकी इच्छाएं व्यक्त नहीं हो रही हैं। 
    
इन्हीं को लेकर देश में पूंजीवादी जनतंत्र के समर्थक चिंतित हैं। ये इसमें पैसे के इस नंगे खेल को लेकर इतने परेशान हैं। शायद इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी चुनावी बाण्ड के मामले में सरकार के खिलाफ फैसला दिया जबकि वे आजकल ज्यादातर मामले में सरकार का ही साथ देते हैं। 
    
लेकिन आज दुनिया भर की तरह भारत में भी पूंजीवादी जनतंत्र अंदर से सड़ रहा है। उसके अपने अंतर्विरोध चरम पर पहुंच रहे हैं। फासीवाद की ओर इसकी गति इसी का परिणाम है। इस गति को सुधारों के किसी नुस्खे से नहीं रोका जा सकता। राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी का विकल्प पेश नहीं कर सकते। विकल्प स्वयं इस पूंजीवादी जनतंत्र के खात्मे में तथा समाजवादी जनतंत्र की स्थापना में है।    

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