इजरायल द्वारा हमास के साथ हुए समझौते को तोड़ने की साजिश

/izrail-dwara-hamas-ke-saath-hue-samajhaute-ko-todne-ki-sajish

इजरायल और हमास के बीच मिश्र, कतर और अमरीका की मध्यस्थता में एक समझौता हुआ। इस समझौते को तीन चरणों में लागू होना था। प्रत्येक चरण 42 दिनों का है। अभी पहला चरण समाप्त होने की ओर है। इस चरण में हमास द्वारा बंधकों की रिहाई और बदले में इजरायली जेलों में बंद फिलिस्तीनी कैदियों की रिहाई के साथ-साथ गाजापट्टी में भोजन, दवायें, पीने का पानी, सफाई, मलबा हटाने की मशीनें, बिजली के लिए जनरेटर तत्काल रहने के लिए टेण्ट इत्यादि की व्यवस्था शामिल थीं। अभी पहला चरण चल ही रहा था, फिलिस्तीनी कैदियों की रिहाई पर बड़े पैमाने पर खुशी और जश्न का माहौल देखकर इजरायली यहूदी नस्लवादी शासक बौखला उठे। एक-एक इजरायली बंधक के बदले 30 से लेकर 50-60 फिलिस्तीनी कैदियों की रिहाई के लिए इजरायली शासक समझौता करने के लिए मजबूर हुए थे। गाजापट्टी में जब दक्षिण व मध्य इलाके से उत्तरी गाजापट्टी के अपने घरों की ओर जाने की स्वतंत्रता इस समझौते के तहत हासिल हुई तो लाखों लोग, बच्चे, बूढ़े, अपाहिज लोगों के कंधों पर- पैदल उत्तर की ओर चल पड़े। इनमें से बहुतों ने अपने परिवार के सदस्यों को खोया है। कुछ लोगों के समूचे परिवार के लोग मारे गये हैं। लेकिन अपने घरों और जमीन पर जाने का उत्साह देखने लायक था। इस उत्साह को देखकर यहूदी नस्लवादी हुकूमत बौखला उठी।
    
इजरायली अवाम के समक्ष यहूदी नस्लवादी हुकूमत की पराजय को छिपाने के लिए वह फिर क्रूरता और नरसंहार के रास्ते पर चल पड़ी। इस बार उसने पश्चिमी तट के इलाके को चुना। उसने पश्चिमी तट के लोगों को उजाड़ने और उनकी हत्या करने का अभियान चलाया। पश्चिमी तट में अभी तक 70 हजार से अधिक लोगों को अपने घरों से उजाड़ा जा चुका है। यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। 
    
इजरायली शासक और उसकी सहायक बन चुकी फिलिस्तीनी प्राधिकार के दमन के दायरे में शिविरों में रह रहे फिलिस्तीनी भी आ गये हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि पश्चिमी तट में भी प्रतिरोध संघर्ष बढ़ने लगा। यहूदी नस्लवादी सत्ता जितना अधिक दमन का सहारा लेगी, उतना ही जोरों के साथ प्रतिरोध तेज होता जायेगा। 
    
यहूदी नस्लवादी बेंजामिन नेतन्याहू की हुकूमत गाजापट्टी में अपनी पराजय को ढकने के लिए सिर्फ इतना ही नहीं कर रही बल्कि खुद गाजापट्टी में समझौते का उल्लंघन कर रही है। वह बाहर से आने वाली राहत सामग्री को पहुंचने में बाधायें खड़ी कर रही है। बारिश और ठंड से बचने के लिए टेण्ट की सख्त जरूरत है वह टेण्ट की उपलब्धता में बाधायें खड़ी कर रही है। वह कई जगहों पर फिलिस्तीनियों की हत्यायें कर रही है।
    
बेंजामिन नेतन्याहू की सत्ता किसी भी तरह इस समझौते को तोड़ने की कोशिश में लगी है। क्योंकि इस नरसंहार में न सिर्फ दुनिया के पैमाने पर उसकी किरकिरी हुई है और वह अलगाव में पड़ी है, बल्कि खुद इजरायल के अंदर लोगों में यह धारणा बैठ गयी है कि गाजापट्टी में तमाम विनाश और नरसंहार के बावजूद इजरायल की हार हुई है। 
    
इसलिए इजरायली हुकूमत समझौते के पहले चरण को दूसरे चरण में जाने से पहले फिर से गाजापट्टी में हमला करना चाहती है। इसमें भी उसे अमरीकी साम्राज्यवादियों का समर्थन प्राप्त है। 
    
नेतन्याहू किसी तरह से इस युद्ध को एक क्षेत्रीय युद्ध में बदलना चाहता है। वह अमरीकी साम्राज्यवादियों को इसमें घसीटना चाहता है। ट्रम्प ने भी हमास को चेतावनी दे दी है कि वह सभी बंधकों को एक साथ रिहा करे अन्यथा फिर से बड़े इजरायली हमले के लिए तैयार रहे। 
    
कुल मिलाकर, यह युद्ध विराम समझौता पहले से ही कमजोर जमीन पर खड़ा रहा है। इजरायल इसे तोड़ने की लगातार कोशिश करता रहा है। इसने लेबनान के समझौते के साथ यही किया, अब यह गाजापट्टी के साथ भी यही करने में लगा है। 
    
अगर अमरीकी साम्राज्यवादी इस युद्ध में सीधे कूद पड़ते हैं तो यह लम्बे समय तक चलने वाला क्षेत्रीय युद्ध हो सकता है। इसमें ईरान खुलकर प्रतिरोध की धुरी में आ सकता है और सीधे युद्ध में शामिल हो सकता है। 
    
यदि ऐसा होता है तो यह एक बड़े वैश्विक युद्ध की ओर जाने का खतरा लिए हुए है।  

 

यह भी पढ़ें :-

1. युद्ध विराम समझौता

2. हमास-इज़रायल के बीच युद्ध विराम

आलेख

/ceasefire-kaisa-kisake-beech-aur-kab-tak

भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

/terrosim-ki-raajniti-aur-rajniti-ka-terror

आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

/modi-government-fake-war-aur-ceasefire

युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

/fasism-ke-against-yuddha-ke-vijay-ke-80-years-aur-fasism-ubhaar

हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

/jamiya-jnu-se-harward-tak

अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।