यूरोप में हड़तालों का सिलसिला

एक बार फिर से यूरोप के देशों में हड़तालों का सिलसिला चल पड़ा है। दिसंबर का महीना हड़तालों और प्रदर्शनों का रहा। ब्रिटेन में तो हड़तालों का कैलेंडर नए साल के लिए भी जारी किया जा चुका है। जैसा कि पहले से ही मंदी और आर्थिक संकट की चर्चा आम थी उसी अनुरूप यूरोप और विश्व की अर्थव्यवस्थाएं रुख प्रकट कर रही हैं।

इन प्रदर्शनों के पीछे बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी मुख्य मुद्दा हैं। महंगाई इतनी बढ़ गई है कि अब पुराने वेतन में घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है। खाने की जरूरी चीजों के दाम बेहताशा बढ़ गए हैं। यही कारण है कि यूरोप के मजदूर, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के कर्मचारी अपने वेतन को बढ़ाने और कार्य परिस्थितियों में सुधार किए जाने की मांग को लेकर सड़कों का रुख कर रहे हैं।

बेल्जियम की राजधानी ब्रूसेल्स में हजारों प्रदर्शनकारी 16 दिसंबर को सड़कों पर आ उतरे। वे सरकार के रुख के प्रति आक्रोशित थे। मौजूदा महंगाई और बेरोजगारी के लिए वे न सिर्फ अपनी पूंजीपरस्त सरकारों को कोस रहे थे बल्कि इसके लिए विश्व आर्थिक फोरम, यूरोपियन यूनियन और राजनीतिक दलों को भी जिम्मेदार ठहरा रहे थे। इससे पूर्व नवंबर माह में भी बेल्जियम में प्रदर्शन हुए थे।

ब्रिटेन में हड़तालें ज्यादा व्यापक रूप लेती जा रही हैं। दिसंबर में ब्रिटेन के इतिहास में एक तरफ जहां पिछले 100 वर्षों में नर्सों की सबसे बड़ी हड़ताल हुई वहीं दूसरी तरफ इसी वर्ष जून में पिछले 30 साल की सबसे बड़ी रेल हड़ताल दर्ज हुई।

15 दिसंबर को इंग्लैंड, उत्तरी आयरलैंड और वेल्स के मजदूरों ने काम बंद कर हड़ताल कर दी। इससे पूर्व उन्होंने सरकार से 19 प्रतिशत वेतन वृद्धि की मांग की थी। लेकिन निष्ठुर सरकार ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद नर्सें काम बंद कर हड़ताल पर चली गईं। उनके साथ एंबुलेंस चालकों ने भी हड़ताल कर दी। इस हड़ताल में एक लाख नर्सों के शामिल होने की खबरें हैं। मांगें न माने जाने पर नर्सों ने नए साल में भी हड़ताल करने का ऐलान किया है। इसी तरह सरकार ने हड़तालियों की इस वेतन वृद्धि की मांग को मानने से यह कहकर इनकार कर दिया कि इससे और महंगाई बढ़ जाएगी। इसके उलट उसने ब्याज दरों में वृद्धि कर दी।

जैसे कि यह ही काफी नहीं था, ब्रिटिश सरकार ने मजदूरों, कर्मचारियों की मांगों को मानने के बजाय उन पर नया हमला बोला दिया। यह हमला करों की दर में वृद्धि कर किया गया। पतित और परजीवी पूंजीपति वर्ग आज जनता को यही सब दे सकता है। उसके राजनीतिज्ञ अपने आका पूंजीपति वर्ग की ही चिंता में पतले हो रहे हैं। बोरिस जानसन की रुसवा रुखसत के बाद उन्होंने सुनक पर दांव खेला। लेकिन संकटग्रस्त पूंजीवाद के इस दौर में कोई सुनक, कोई जानसन पलक झपकते ही अपना जादू खो जाने को अभिशप्त हैं। कितने ही ढोल बाजे से इनकी ताज पोशी की जाए लेकिन ये जनता को मामूली राहत भी नहीं दे सकते।

अपनी असफलता और पूंजीपरस्ती को ये शासक रूस-यूक्रेन युद्ध के मत्थे मढ़ना चाहते हैं। यही शासक हैं जो अपने देश के पूंजीपति वर्ग और अमेरिका से अपनी दोस्ती निभाने के लिए रूस पर प्रतिबंध थोपते हैं। और जब रूस से आयातित गैस, गेहूं और अन्य जरूरी सामानों की कमी होती है तो इसके लिए रूस-यूक्रेन युद्ध को जिम्मेदार ठहराते हैं। यह हड़तालें और प्रदर्शन ब्रिटेन के आर्थिक संकट को और शासकों की काहिली दोनों को एक साथ व्यक्त कर देते हैं।

गरीब और पिछड़े मुल्कों में दरिद्रता और बेरोजगारी को आम बात माना जाता है। लेकिन 2007-08 से जारी आर्थिक संकट से अब विकसित यूरोप के देशों में भी गरीबी और बेरोजगारी आम होती जा रही है। संकटग्रस्त पूंजीवाद में मजदूर मेहनतकशों के दुख और बढ़ जाने हैं। इसके लिए पूंजीवाद के खिलाफ सामाजिक क्रांति की जरूरत और भी शिद्दत से महसूस की जा रही है।

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

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