म्बाप्पे के बहाने

फुटबाल विश्व कप 2022 का फाइनल वैसे तो दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेण्टीना की टीम जीत कर गयी लेकिन हार कर दूसरे नम्बर पर रह गयी फ्रांस की टीम व इसके खिलाड़ियों की, विशेष कर इस पूरे विश्व कप में सबसे अधिक गोल करने वाले एवं ‘‘गोल्डन बूट’’ जीतने वाले खिलाड़ी म्बाप्पे की अत्यधिक तारीफ के साथ-साथ और भी बहुत कुछ कहा जा रहा है। म्बाप्पे अभी 24 साल के हो रहे हैं और वे जब 19 साल के थे तो उन्होंने अपना पहला फुटबाल विश्व कप खेला व जीत लिया था। इस विश्व कप फाइनल में म्बाप्पे ने हैट-ट्रिक (लगातार तीन गोल) लगायी और ऐसा करने वाले म्बाप्पे सन् 1966 के बाद पहले खिलाड़ी थे। म्बाप्पे के और भी कई ‘रिकार्डस’ है और इसी सबको लेकर यह कहा जा रहा है कि म्बाप्पे के रूप में अफ्रीकी नस्लों ने अपना हीरो पा लिया है। सदियों से पीड़ित, उत्पीड़ित, दमन-शोषण-लूट के शिकार गहरे रंग के अफ्रीकियों को वैश्विक रंगमंच पर चमकते सितारे की दरकार थी व उन्होंने अब म्बाप्पे के रूप में उसे पा लिया है।

वैसे यह तो सही है कि इस विश्व कप फाइनल में अर्जेण्टीना की टीम हाफ टाइम से पहले ही 2 गोल से आगे हो गयी थी। हाफ टाइम के बाद भी 10वें मिनट तक ऐसा लग ही नहीं रहा था कि फ्रांस की टीम फुटबाल विश्व कप चैम्पियन है और अपने इसी खिताब की रक्षा कर रही है। खेल के इस पूरे दौर में अर्जेण्टीनी खिलाड़ी ही खेल में गेंद खेल रहे थे एवं फ्रांस के खिलाड़ी उनसे गेंद छीन नहीं पा रहे थे। लगभग इसी समय फ्रांस टीम कोच प्रबंधन ने दो बार में चार खिलाड़ी बदले और खेल में धार आ गयी। फ्रांस के एड्रियन रेबियाट की जगह जैसे ही योसफ कोफना को भेजा गया तो फ्रांस की लगभग पूरी टीम ही (गोलकीपर को छोड़कर) गोरों की जगह गहरे रंग के अफ्रीकी मूल के खिलाड़ियों की हो गयी। कहा जा रहा है कि अफ्रीकन देशों की टीम ने भले ही विश्व फुटबाल कप में अपनी जगह न बनायी हो फिर भी फ्रांस की टीम में जिस तरह अफ्रीकी मूल के खिलाड़ियों की संख्या व दबदबा बढ़ता गया है उससे अफ्रीकी नस्लों को सांत्वना मिलती है कि वे इस रूप में सही, विश्व फुटबाल कप में खेल रहे हैं व रिकार्ड बना रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि यह फ्रांस में ही संभव हुआ है कि गोरों की जगह गहरे रंग के अफ्रीकी मूल के खिलाड़ियों को इतनी तरजीह दी जा रही है- आखिर यह फ्रांस की ही धरती थी जहां स्वतंत्रता-समानता-भाईचारा का उद्घोष हुआ था और इस उद्घोष ने पूरी धरती को आप्त कर लिया था। निहितार्थ यह कि फ्रांस प्रबंधन में अभी भी स्वतंत्रता-समानता-भाईचारा की तलछट के कुछ अवशेष हैं तभी तो वे इन गहरे रंग के अफ्रीकी मूल के खिलाड़ियों को आगे कर रहे हैं- उन्हें विश्व कप फाइनल जैसे मैच में मौका दे रहे हैं। निहितार्थ यह भी कि उक्त स्वतंत्रता-समानता-भाईचारा के तत्वों की आज अब भी प्रासंगिकता है (और इस ‘‘ध्येय’’ के लिए वैश्विक जन को प्रयास करते रहना है)। फुटबाल विश्व कप सम्बन्धी विवरण /आलेख /आलोचना/ टिप्पणियों से यह भी निकलता है कि नस्ल सम्बन्धी और नस्ली आधार पर सोच आज के दौर में भी बरकरार है और अनेकानेक ‘विद्वानों’ के निष्कर्षों में यह निर्णायक बनती है।

 

इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय यह है कि आम तौर पर मौजूदा दौर में दुनिया में कहीं भी कोई सार्वजनिक कार्यक्रम हो या इस तरह के कार्यक्रमों में मंच पर किसी भी प्रकार के नेता या विद्वानों की मौजूदगी हो, उनकी सार्वजनिक अवस्थिति सदा ही, महानगरीय सोच की होती है। अर्थात् वे सभी प्रवक्ता नस्लवाद (और भारत के संदर्भों में जातिवाद) जैसी पिछड़ी मान्यताओं से ऊपर उठी हुई अपनी सोच का बखान करते हैं। अपने इस प्रकार के बखानों से वे चारों ओर पिछड़ी मान्यताओं के स्थान पर ऊपर उठी हुई सोच की हवा चलाते रहते हैं जिसमें पिछड़ी हुयी मान्यताओं के प्रति धिक्कार भरी होती है। परन्तु फुटबाल के खेल व इस जैसे अल्प मामलों में जिनमें सौ प्रतिशत, शीर्ष व समग्र क्षमताओं के प्रदर्शन की जरूरत बनती है उनकी सोच प्रक्रिया पिछड़ी मान्यताओं के जाल से बाहर नहीं निकलती। वे नस्लीय विशेषताओं-परम्पराओं की सीढ़ियों पर चढ़ कर ही ललकार लगाते हैं। दूसरे शब्दों में वे मूलतः नस्लीय हैं और अंततः नस्लीय उन्नति के हामी हैं पर अपनी महानगरीय कला का प्रयोग करके वे अपने को आधुनिक व अग्रगामी होने का दावा पेश करते रहते हैं। यही वे लोग हैं जो फ्रांस में अफ्रीकी आव्रजकों की तीसरी पीढ़ी के म्बाप्पे जैसों को अब भी अफ्रीकी नस्ल का मान लेते हैं और म्बाप्पे व इन जैसे अन्य गहरे रंग के फुटबाल खिलाड़ियों के हवाले से अफ्रीकी नस्लों को सांत्वना संदेश देते हैं। परन्तु, वास्तविकता यही है कि ये कब के अफ्रीकी नहीं रहे। म्बाप्पे आदि की पूरी की पूरी चेतना ही गैर अफ्रीकी ही होगी केवल देह में रंग को छोड़कर और यह रंग भी मूल अफ्रीकी रंग नहीं रहा। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार रंग में भी गेहुंआपन आ चुका है। इंग्लैण्ड की मौजूदा क्रिकेट टीम में 19 वर्षीय खिलाड़ी रेहान अहमद, जिन्होंने अपने पहले ही मैच में अनेक रिकार्ड बना लिए हैं, के पाकिस्तानी मूल के होने के दावे के सम्बन्ध में एक पाकिस्तानी नागरिक ने ठीक ही कहा है कि वह काहे का पाकिस्तानी, उसकी तो शहरीयत (नागरिकता) ही पाकिस्तान की नहीं। इसी तरह इंग्लैण्ड और आयरलैण्ड के प्रधानमंत्रियों के भारतीय मूल का बताकर आश्वस्त होने के मामले में भी आम लोगों की समझ साफ है कि उनके बाप-दादों ने कब का देश छोड़ नागरिकता भी छोड़ दी। अब जड़ तलाशने का क्या औचित्य? नस्लीय जड़ें तलाशने वाले न केवल ठहरी हुई पिछड़ी एवं तिरस्कृत मानसिकता वाले हैं बल्कि विभिन्न समाजों के अग्रगामी जमावड़ों में रंगे सियार हैं। वस्तुतः ये यथास्थितिवादी भी नहीं बल्कि पश्चगामी भूत हैं।

यहां पर उत्पीड़ित और दमन-लूट की सदियों तक शिकार बनी रहने को अभिशप्त रही अफ्रीकी (व एशियाई भी) जनगण के प्रति सहानुभूति एवं पक्षधरता (मात्र औपचारिक?) का मामला बिल्कुल नहीं है। इन ‘महानगरीय’ लोगों के हाव-भाव या बयानों आदि से यदि ऐसा कुछ आभास होता है तो यह उनका मात्र दिखावा ही है और इससे रंच मात्र तात्विक परिवर्तन भी संभव नहीं है- ऐसा वे लोग जानते हैं। अतः निश्चिंत होकर अभिव्यक्त होते रहते हैं तथा अपने मालिकों के साथ अंदरखाने की बैठकों में अपने अच्छे ‘‘प्रबंधन’’ हेतु पुरस्कार भी लेते रहते हैं। शोषितों और उत्पीड़ितों के प्रति सहानुभूति एवं पक्षधरता उच्च एवं उदात्त मानवीय मूल्यों के धरातल पर आकर ही ठोस होती है- ऐसा वे नहीं जानते होंगे- इस पर विश्वास किये जाने का कोई कारण नहीं दिखता।

अवश्य ही फ्रांस की क्रांति के उद्भूत स्वतंत्रता-समानता-भाईचारा स्थापित किये जाने के प्रयास अखिल मानवता के लिए गुणात्मक प्रगति बिन्दु रहे थे। उस क्रांति के प्रणेता और इन उदात्त प्रगति बिन्दुओं की ओर समग्र प्रमाण में प्रयास-त्याग और बलिदान करने वाले स्तुत्य हैं परन्तु सम्प्रभु सत्ताधीशों- जिनसे स्वतंत्रता छीनी जानी थी और इस प्रकार आम जन को धारण करती थी, यह प्रक्रिया संघर्ष अभी भी किसी प्रकार जारी है और जनता की ओर से कभी भी निर्णायक नहीं हो सका। न तो फ्रांस में ही और न ही और कहीं भी। पिछली शताब्दी में समाजवादी क्रांति कर देने तथा उसके बाद क्रांतिकारी समाजों में समाजवादी निर्माण के दौर में क्रांतिकारी वर्ग ने जो स्वतंत्रता का उपभोग किया वह अब तक की अधिकतम थी परन्तु, यह सब कुछ शीघ्र ही फिर छिन गया। इसी दौर में स्वतंत्रता के अनेकानेक आयामों में एक निजी स्वतंत्रता की पहचान की गयी थी और बताया गया था कि निजी स्वतंत्रता वास्तविकता में है क्या? ‘‘वास्तविक स्वतंत्रता केवल वही हो सकती है जहां एक व्यक्ति द्वारा दूसरे का शोषण-उत्पीड़न न हो और जहां किसी व्यक्ति को अपना रोजगार, अपना घर और अपनी रोटी छिन जाने के भय में जीना न पड़ता हो। केवल ऐसे ही समाज में निजी और किसी भी अन्य प्रकार की स्वतंत्रता वास्तव में मौजूद हो सकती है, न कि किसी कागज पर।’’ आज, देखने व समझने वाली बात यही है कि वास्तविक निजी स्वतंत्रता की स्थितियों से कितनी दूर हैं हम। फ्रांस और अन्य साम्राज्यवादी देशों की स्थिति में शेष विश्व की स्थिति से कोई ज्यादा अंतर इस संदर्भ में नहीं रहा है। समाजवादी क्रांति के फूट पड़ने के डर, साम्राज्यवादी सुपर प्राफिट और औद्योगिक विकास जैसी स्थितियों के चलते सामाजिक सुरक्षा के नाम पर नागरिक सुविधाओं तक ही वहां की निजी स्वतंत्रता सीमित रही है जो अवश्य ही भारत जैसे एशियाई और अफ्रीकी देशों से अधिक थी। जो अब दिनों दिन क्षीण होती जा रही है। इसके अलावा फ्रांस की वाह-वाही करने का कोई औचित्य नहीं है।

समानता और भाईचारा तो और भी दूर की चीजें हैं। परिदृश्य यहां पर भी वही है। समानता और भाईचारा की अगली स्थापना सभी कागजों में है पर तकनीकी और औपचारिक मात्र रूप में। सार्थक साहित्य में रुचि जाग्रत होने पर एक युवा मजदूर ने कुछ अध्ययन किया और संविधान आदि में समानता-भाईचारा जैसे तत्वों को पाकर उत्साहित हुआ। समानता को लेकर वह समान कार्य-समान वेतन तक स्वयं पहुंचा और मांग की कि समान कार्य का समान वेतन दिया जाये। समानता के अधिकार के आधार पर उसने स्वाभाविक अधिकार हासिल करने की ओर भरपूर संघर्ष किया जिसका नतीजा क्या निकला? नतीजे में उसे धमकी भरा ज्ञान प्राप्त हुआ कि सेवा योजक को अपने सेवक को नौकरी से निकाल देने का पूर्वतया अधिकार है और यदि उसने और कुछ हंगामा किया तो उसे नौकरी से निकाल दिया जायेगा। स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण आयाम लैंगिक समानता (विभिन्न समाजों में स्त्री-पुरुष समानता) का प्रकरण ही पीछे पड़ा है। और तो और, सत्ताधारी वर्गों द्वारा बार-बार प्रशंसित उनके लोकतंत्र में ही महिलाओं को वोट देने का अधिकार बहुत बाद में मिला। सऊदी अरब में तो अभी 2011 में महिलाओं को वोट का अधिकार व मोटर चलाने की अनुमति मिली। स्वतंत्रता-समानता-भाईचारा फ्रांस की 1789 की क्रांति का उद्घोष है पर 1791 के फ्रांसीसी संविधान में फ्रांस की महिलाओं को वोट का अधिकार नहीं मिला। द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के बाद में 1946 में जाकर फ्रांस में महिलाओं को वोट करने का अधिकार मिला यानी लैंगिक समानता का एक आयाम एक हद तक लागू हुआ। ऐसे अगर फ्रांस की वाह-वाही की जाये तो उसका औचित्च क्या है। वस्तुतः, फ्रांस की क्रांति एवं इस क्रांति के उद्घोष स्वतंत्रता-समानता-भाईचारा का उल्लेख इतिहास की प्रगति के एक महत्वपूर्ण सोपान के रूप में किया जाता है। इसमें आधुनिक फ्रांस का उक्त सोपान से उतना ही लेना-देना है जितना शेष विश्व का उक्त सोपान से है। यह वही फ्रांस है जिसने हिन्दचीन और अल्जीरिया सहित अफ्रीका के एक बड़े इलाके को अपना गुलाम बनाये रखा था। इन देशों के समाजवादी क्रांति से उत्प्राणित, डिकालोनाइजेशन संघर्षों की लहरों की उत्ताल तरंग में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ही अपनी स्वतंत्रता हासिल की। ऐसे में, आखिर आज फ्रांस को सलाम क्यों किया जाये? फ्रांस, राब्सपियरे के कुछ दिनों को छोड़कर, कभी भी जनता का नहीं रहा। उसके शासक चाहे किसी भी नाम से हों, पूंजीपति वर्ग दुनिया के अन्य शासकों जैसे ही रहे जिनसे न तो वास्तविक स्वतंत्रता छीनी जा सकी और न ही समानता या भाईचारा। ऐसे में आज फ्रांस को बड़ा दिल वाला कहना, उसकी वाह वाही करना सिर्फ ड्रामेबाजी है और कुछ नहीं।

सच्चाई तो यह है कि स्वतंत्रता-समानता-भाईचारा जैसे उन्नत-उदात्त मूल्यों का जो भी अंश, जिस प्रकार भी, जितना भी वैश्विक आम जन को उपलब्ध है और जो भी कागजी या संविधानों आदि में दर्ज है वह किसी स्वयं भू शासक या मालिक की सदाशयता या उदारता के कारण नहीं है। यह उत्पीड़ित वर्गों के संघर्षों के दम पर ही है। इन संघर्षों के और तीखे होने, निर्णायक होने के दौर में वे सभी मूल्य वास्तविक रूप में, अपने पूर्ण आयामों में आम जन को उपभोग हेतु उपलब्ध होंगे और इस प्रक्रिया में अडंगेबाजों को भी जवाब देना होगा। दिनों-दिन उन्नत होती ज्ञान-विज्ञान एवं आम चेतना से वह भविष्य दूर नहीं है।

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है