पूंजीवादी जनतंत्र में चुनाव और जन-जीवन के मुद्दे

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ हैं। वे भी पहले प्रशांत किशोर की तरह मोदी के ‘चुनावी रणनीतिकार’ रह चुके हैं। वे इस समय कांग्रेस पार्टी के ‘चुनावी रणनीतिकार’ हैं जैसे कुछ समय तक प्रशांत किशोर रहे। 
    
इस महानुभाव का कहना है कि चुनाव तर्क से नहीं जीते जाते बल्कि भावनाओं से जीते जाते हैं। यानी जिस व्यक्ति या पार्टी को चुनाव जीतना है उसे तर्क-वितर्क पर नहीं बल्कि भावनाओं को भड़काने पर भरोसा करना चाहिए। इसी से यह निष्कर्ष निकलता है कि एक ‘चुनावी रणनीतिकार’ के रूप में उनका काम है यह बताना कि कोई पार्टी किन मुद्दों पर और कैसे लोगों की भावनाओं को भड़का सकती है। 
    
सुनील कानुगोलू के चुनाव जीतने के इस मूलमंत्र को यदि सी एस डी एस- लोकनीति के एक हालिया सर्वेक्षण के नतीजों के साथ मिलाकर देखा जाये तो पूंजीवादी जनतंत्र और उसमें चुनाव के बारे में महत्वपूर्ण नतीजे निकलते हैं। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि आज स्वयं पूंजीवादी जनतंत्र के समर्थकों ने ही इसे महज ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव तक सीमित कर दिया है। 
    
उपरोक्त सर्वेक्षण के अनुसार जब लोगों से पूछा गया कि उनकी नजर में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा क्या है तो लोगों ने इस प्रकार जवाब दिया : (तालिका देखें) यानीtable 27 प्रतिशत लोगों ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बेरोजगारी है जबकि 23 प्रतिशत के लिए महंगाई सबसे बड़ा मुद्दा थी। ये दोनों मिलकर पचास प्रतिशत लोग बन जाते हैं। इनके मुकाबले केवल दस प्रतिशत लोग ही राम मंदिर और हिन्दुत्व को सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा मानते हैं। 
    
अब सवाल यह बनता है कि किस जादूगरी से बेरोजगारी और महंगाई का मुद्दा चुनावों से गायब हो जाता है और राम मंदिर और हिन्दुत्व का मुद्दा छा जाता है। जो मुद्दा पचास प्रतिशत लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है वह गायब हो जाता है जबकि जो केवल दस प्रतिशत के लिए महत्वपूर्ण होता है वह हावी हो जाता है। यह कैसे होता है? 
    
ऐसा नहीं है कि यह केवल भारत जैसे पिछड़े देशों में होता है जहां जनतांत्रिक चेतना कम है। यह विकसित पूंजीवादी देशों में भी होता है। अपने को सबसे पुराना जनतंत्र घोषित करने वाले अमेरिका में भी बेरोजगारी या अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत के बदले गर्भपात का मुद्दा प्रमुख हो जाता है क्योंकि इसे इसाई धार्मिक विश्वासों से जोड़ दिया जाता है। 
    
इस संबंध में सबसे पहली बात तो यही कि पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं की एक तरह से आपसी अनकही सहमति होती है कि जन-जीवन के वास्तविक मुद्दों को उठाने से बचा जाये। इसकी सीधी सी वजह है। ज्यादातर पार्टियां राजनीति में कोई नई पार्टियां नहीं होतीं। वे लंबे समय से मौजूद होती हैं। कम से कम सत्ता के प्रमुख दावेदारों के बारे में तो यही सच होता है। अब चूंकि सत्ता में रहने का उनका भी एक रिकार्ड होता है, इसीलिए वे घबराती हैं। यदि कोई विपक्षी पार्टी सत्ताधारी पार्टी को जन-जीवन के वास्तविक मुद्दों पर घेरती है तो सत्ताधारी पार्टी पलटकर उसे उसका पुराना रिकार्ड दिखा सकती है। मसलन भारत में भाजपा हर मुद्दे पर कांग्रेस को आईना दिखा सकती है और दिखाती भी रहती है।
    
लेकिन अनकही सहमति का आधार केवल इतना नहीं होता। जन-जीवन के वास्तविक मुद्दों का उनके पास कोई समाधान नहीं होता। इसीलिए सभी पार्टियां चाहती हैं कि उन पर बात करने से बचा जाये। इन मुद्दों का उठना उन्हें असहज करता है और सांसत में डालता है। इसीलिए वे ज्यादा से ज्यादा इतना भर करती हैं कि इन मुद्दों को औपचारिक तौर पर अपने घोषणापत्र में दर्ज कर देती हैं। वे इन्हें जीवन्त मुद्दा नहीं बनातीं। 
    
इनसे भी बड़ी बात यह है कि जन-जीवन के वास्तविक मुद्दे सीधे पूंजीपति वर्ग के हितों से टकराते हैं। इन हितों को चोट पहुंचाए बिना जन-जीवन के मुद्दों के समाधान की ओर जरा भी नहीं बढ़ा जा सकता। अब सारी पूंजीवादी पार्टियां पूंजीपति वर्ग की चाकर भर होती हैं। भला वे अपने मालिकों के हितों के खिलाफ कैसे जा सकती हैं? इसीलिए वे नहीं चाहतीं कि जन-जीवन के वास्तविक मुद्दे चुनावों के दौरान जीवंत मुद्दा बनें। अपने देश में इस समय हो रहे लोकसभा चुनावों के एक-दो उदाहरण लें। 
    
बेरोजगारी और महंगाई को आबादी के पचास प्रतिशत लोगों ने सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा माना है। ये दोनों मुद्दे पूंजीपति वर्ग से सीधे संबंध रखते हैं। आज सरकारी भर्तियां इसलिए नहीं हो रही हैं कि पूंजीपति वर्ग की लगातार मांग रहती है कि सरकारी खर्च घटाया जाये जिससे बचे हुए पैसे को उसकी जेब में डाला जा सके- कर माफी और प्रोत्साहन राशि के तौर पर। दूसरी ओर पूंजीपति वर्ग नयी मशीनें लगाकर मजदूरों-कर्मचारियों की छंटनी कर रहा है तो कम से कम मजदूरों से ज्यादा से ज्यादा काम भी करवा रहा है। बड़े पूंजीपति सरकार से जीएसटी जैसी नीतियां लागू करवा रहे हैं उनसे छोटे उद्यम तबाह हो रहे हैं। इन सबसे एक ओर बड़े पूंजीपतियों की दौलत बेतहाशा बढ़ रही है दूसरी ओर बेरोजगारी और बदहाली। 
    
यही बात महंगाई के बारे में भी सच है। महंगाई का परिणाम होता है आम जनता की आय को पूंजीपतियों को स्थानांतरित करना। यदि महंगाई दस प्रतिशत है तो आम जन की दस प्रतिशत आय घट जायेगी और यह पूंजीपति वर्ग की जेब में चली जायेगी- बड़े पूंजीपति वर्ग की जेब में।
    
यह सब केवल सैद्धान्तिक या किताबी बात नहीं है। भारत में उदारीकरण-निजीकरण के समूचे दौर में आम जन की आय में हिस्सेदारी घटती गयी है जबकि पूंजीपति वर्ग की बढ़ती गयी है। दौलत के बारे में तो यह और भी सच है। भांति-भांति के आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं। इसी कारण मोदी सरकार ने अब किसानों की आय दोगुनी करने का राग अलापना बंद कर दिया है। 
    
उपरोक्त से सीधा निष्कर्ष निकलता है कि यदि देश में बेरोजगारी-महंगाई की समस्या से निपटना है तो पूंजीपति वर्ग की आय और दौलत में कटौती करनी होगी। यह करने का साहस किसी पार्टी में नहीं है। इसीलिए कोई पार्टी इसे चुनावी मुद्दा नहीं बनाना चाहेगी। वे यदि अमूर्त तौर पर इस मामले में कुछ बोलेंगी तो भी इसे प्रमुख मुद्दा नहीं बना सकतीं। 
    
इस सम्बन्ध में अभी हाल में दिलचस्प वाकया हुआ है। कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में बेरोजगारी, महंगाई तथा बढ़ती असमानता की बात की। मोदी और भाजपा ने इसे लपका तथा यह कहना शुरू कर दिया कि कांग्रेस पार्टी गरीब हिन्दुओं की सम्पत्ति छीनकर मुसलमानों में बांटना चाहती है। अंबानी-अडाणी पर हमला करने वाली कांग्रेस पार्टी इस मामले में यह नहीं कर पा रही है कि यदि उसका इरादा सम्पत्ति छीन कर बांटने का है तो वह मोदी के दोनों मित्रों की सम्पत्ति छीनकर गरीबों में बांटेगी। इसके बदले वह सफाई देती घूम रही है कि उसका इरादा किसी की सम्पत्ति छीन कर बांटने का नहीं है। 
    
कांग्रेस पार्टी की इस समय बुरी गत है। 2010-11 से ही देश के बड़े पूंजीपति वर्ग ने इसे त्याग रखा है। इसके बावजूद इसकी हिम्मत नहीं है कि वह इसके खिलाफ कुछ कह दे। वह उम्मीद पाले हुए है कि बड़ा पूंजीपति वर्ग एक दिन उसे फिर अपना लेगा। इसीलिए बेरोजगारी-महंगाई और बढ़ती असमानता की बात करते हुए भी वह देश के असली मालिकों यानी बड़े पूंजीपति वर्ग को जिम्मेदार ठहराने से बचती है। 
    
स्पष्ट है कि क्यों पूंजीवादी पार्टियां जन-जीवन के वास्तविक मुद्दों को चुनावों का प्रमुख मुद्दा नहीं बनातीं। इसके बदले वे किसी तरह के भावनात्मक मुद्दों को सामने लाती हैं तथा उससे कोशिश करती हैं कि लोग चुनाव में वोट डालने तक उद्वेलित रहें। एक बार मतदान हो जाने के बाद उस मुद्दे को अगले चुनाव तक ठंडे बस्ते में डाला जा सकता है। 
    
इस मामले में चतुर खिलाड़ी तो किसी नये या तात्कालिक मुद्दे का भी इस्तेमाल करते हैं और लोगों को उद्वेलित करते हैं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या ऐसा ही मुद्दा था जिसके ठीक बाद चुनाव करवा कर कांग्रेस पार्टी ने अभी तक किसी भी पार्टी द्वारा सबसे बड़ी जीत हासिल की थी। 
    
देश के हिन्दू फासीवादियों के लिए हिन्दुत्व यानी मुसलमान विरोध का मुद्दा ऐसा ही भावनात्मक मुद्दा है जिसका इस्तेमाल कर वे लगातार आगे बढ़ते गये हैं और पिछले दस सालों से केन्द्र और ज्यादातर प्रदेशों की सत्ता में काबिज हैं। वे घूम-फिरकर इसी मुद्दे पर लौट आते हैं। मुहावरे को झुठलाते हुए उनकी काठ की हाड़ी बार-बार चूल्हे पर चढ़ रही है। 
    
अब सवाल उठता है कि यह क्यों हो पा रहा है? चुनावों को असल मुद्दों से हटाकर भावनात्मक मुद्दों तक लाने वाली पार्टियां सफल क्यों हो जाती हैं? लोग उनके जाल में फंस कैसे जाते हैं? 
    
इसका उत्तर पूंजीवादी व्यवस्था में आम जन की स्थिति में है। ऐसा नहीं है कि लोग इतने नादान हैं कि यह नहीं जानते कि उनका हित किसमें है। बेरोजगार नौजवान जानता है कि रोजगार उसकी पहली जरूरत है। भुखमरी के शिकार लोग जानते हैं कि राशन उनकी पहली जरूरत है। तबाह होते किसान जानते हैं कि उन्हें क्या चाहिए। पर उन्हें विश्वास नहीं है कि कोई भी पूंजीवादी पार्टी या नेता यह कर सकता है। वे विकल्पहीनता की स्थिति में होते हैं। इसका एक परिणाम चुनावों के प्रति अन्यमनस्कता और वोट न देने में होता है। वर्तमान लोकसभा चुनाव में यह बड़े पैमाने पर दीख रहा है। 
    
बात इतनी ही नहीं है। ज्यादातर लोग पूंजीवादी पार्टियों और नेताओं के असली चरित्र को जानते हैं। वे यह जानते हैं वे भ्रष्ट, स्वार्थी और बिकाऊ होते हैं जिनका कोई दीन-ईमान नहीं होता। यहां तक कि पक्के समर्थक भी यह जानते हैं। बस इसे वे राजनीति की आम बात मानते हैं। ज्यादातर लोग पूंजीवादी पार्टियों और नेताओं के इस चरित्र से बहुत दुःखी होते हैं और भांति-भांति से अपना आक्रोश प्रकट करते हैं। इसके बावजूद वे विकल्पहीनता की स्थिति में होते हैं, जो इस वाक्य में अभिव्यक्त होता है- ‘फिर किसे वोट दें! वोट तो देना ही है।’
    
इसी विकल्पहीनता की स्थिति में पूंजीवादी पार्टियों और नेताओं का खेल शुरू होता है। वे आम जन की इस विकल्पहीनता की स्थिति को जानते हैं। वे उसे लुभाने के लिए कोई भावनात्मक मुद्दा सामने लाते हैं जिससे अपने पक्ष में मतदान करवा सकें। यह मुद्दा जाति, धर्म, भाषा, इत्यादि किसी से भी संबंधित हो सकता है। अपनी जिन्दगी में भांति-भांति की समस्याओं से त्रस्त विकल्पहीनता में जी रहे लोग फिर इनमें से किसी के आधार पर ठप्पा लगा देते हैं। 
    
अब सवाल उठता है कि लोग विकल्पहीनता क्यों महसूस करते हैं? क्यों वे स्वयं विकल्प की ओर नहीं बढ़ते? इसका उत्तर दो स्तरों पर है। 
    
पहला तो यह कि पूंजीवादी व्यवस्था में जी रहे लोग उसकी आम चेतना से भी ग्रस्त होते हैं। वे पूंजीवादी जनतंत्र को ही शासन की एकमात्र व्यवस्था मानते हैं तथा यह सोचते हैं कि चुनावों के जरिये अपनी सरकार वे स्वयं बनाते हैं। यह तो वो भ्रष्ट व पतित नेता हैं जो सब गुड़ गोबर कर देते हैं। स्वयं व्यवस्था में कोई खराबी नहीं है। 
    
वे यह नहीं देख पाते कि पूंजीवादी जनतंत्र पूंजीपति वर्ग की शासन व्यवस्था है जो पूंजीपति वर्ग के शोषण को बनाए रखने का काम करती है। कि यह व्यवस्था हमेशा पूंजीपतियों के लिए काम करेगी, आम जन के लिए नहीं। कि भ्रष्ट और पतित नेता इसका अनिवार्य हिस्सा हैं नहीं तो वे आम जन का वोट लेकर पूंजीपति वर्ग का काम नहीं करेंगे। 
    
दूसरा, इसी पूंजीवादी चेतना से ग्रस्त होने के कारण आम जन- मजदूर वर्ग व अन्य मेहनतकश- कभी स्वयं वास्तविक विकल्प तक नहीं पहुंच सकते। यह विकल्प है स्वयं इस पूंजीवादी जनतंत्र का विनाश और समाजवादी जनतंत्र की स्थापना। यह केवल पूंजीपति वर्ग तथा उसकी व्यवस्था के खिलाफ इंकलाब से ही संभव है। 
    
आम जन इस नतीजे तक स्वयं नहीं पहुंच सकते हालांकि जिन्दगी के हालात उन्हें इधर की ओर धकेलते हैं। उन्हें इस नतीजे तक पहुंचाना तथा उस पर खड़ा करना इंकलाबियों का काम है। और चुनावों के दौरान यदि इंकलाबी यह नहीं करते तो वे कुछ भी नहीं करते। वे आम जन को उसी विकल्पहीनता की स्थिति में छोड़ देते हैं और फिर उनकी नादानी पर रोते-बिसूरते हैं कि वे जिन्दगी के असल मुद्दों पर वोट क्यों नहीं करते!   

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