23 मार्च : भगतसिंह-सुखदेव-राजगुरू-पाश की शहादत दिवस पर पाश की एक कविता

मैं पूछता हूं आसमान में उड़ते हुए सूरज से -पाश   

मैं पूछता हूं आसमान में उड़ते हुए सूरज से
क्या वक्त इसी का नाम है
कि घटनाएं कुचलती चली जाएं
मस्त हाथी की तरह
एक पूरे मनुष्य की चेतना ?
कि हर प्रश्न
काम में लगे जिस्म की गलती ही हो ?
क्यूं सुना दिया जाता है हर बार
पुराना चुटकुला
क्यूं कहा जाता है कि हम जिंदा हैं
जरा सोचो :
कि हममें से कितनों का नाता है
जिंदगी जैसी किसी वस्तु के साथ !
रब की वो कैसी रहमत है
जो कनक बोते फटे हुए हाथों-
और मंडी के बीचोबीच के तख्तपोश पर फैली हुई मांस की
उस पिलपली ढेरी पर,
एक ही समय होती है ?
आखिर क्यों
बैलों की घंटियां
और पानी निकालते इंजन के शोर में
घिरे हुए चेहरों पर जम गई है
एक चीखतीं खामोशी ?
कौन खा जाता है तल कर
मशीन मे चारा डाल रहे
कुतरे हुए अरमानों वाले डोलों की मछलियां ?
क्यों गिड़गिड़ाता है
मेरे गांव का किसान
एक मामूली से पुलिसिए के आगे ?
क्यों किसी दरड़े जाते आदमी के चौंकने के लिए
हर वार को
कविता कह दिया जाता है?
मैं पूछता हूं आसमान में उड़ते हुए सूरज से

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