चार दिनों का युद्ध विराम और आगे क्या?

इजरायल द्वारा गाजा पर नरसंहार

कतर और मिश्र की मध्यस्थता के जरिए इजरायल और गाजा के हमास लड़ाकुओं के नेतृत्व में चल रहे प्रतिरोध संघर्ष के बीच चार दिनों के लिए युद्ध विराम घोषित किया गया। इस युद्ध विराम के दौरान हमास और उसके सहयोद्धा संगठनों द्वारा 50 बंधकों की रिहाई की जानी है और बदले में इजरायल की जेलों में बंद 150 फिलिस्तीनी बच्चों और महिलाओं की रिहाई होनी है। इसके अतिरिक्त, इन चार दिनों के भीतर गाजापट्टी में बाहर से ईंधन, पानी, भोजन और दवाओं सहित बुनियादी जरूरतों की आपूर्ति की जानी है। इन चार दिनों के दौरान गाजा पट्टी के दक्षिणी हिस्से पर इजरायल सैन्य कार्यवाही नहीं करेगा और उसके उत्तरी हिस्से पर सुबह 10 बजे से सांय 4 बजे तक हवाई हमले नहीं करेगा। गाजा शहर और उत्तरी हिस्से में गाजावासियों को अपने घर न आने की चेतावनी इजरायली सशस्त्र बलों ने दी है। उसने इस दौरान भी उत्तरी गाजा को युद्ध क्षेत्र घोषित कर रखा है। नेतन्याहू सरकार ने यह भी घोषणा कर रखी है कि इन चार दिनों के बाद भी प्रत्येक 10 बंधकों की रिहाई के बदले एक दिन का युद्ध विराम और बढ़ा दिया जायेगा। 
    
जैसे ही 24 नवम्बर को 13 इजरायली बंधकों की रिहाई गाजा पट्टी से हुई और बाद में इजरायल की जेलों में बंद 39 फिलिस्तीनी बच्चों और महिलाओं की पहली खेप की रिहाई हुई, फिलिस्तीन के अंदर ही नहीं कई अरब देशों में जश्न का माहौल बन गया। युद्ध विराम की घोषणा और उसे लागू करने से ठीक पहले इजरायली सशस्त्र बलों ने अपने हमले और बढ़ा दिये थे। न सिर्फ गाजा पट्टी में बल्कि पश्चिमी किनारे के कब्जे वाले इलाके में गिरफ्तारियां और हत्यायें की गयीं। इजरायली सशस्त्र बलों ने रिहा होने वाले फिलिस्तीनियों को धमकी दी कि यदि उन्होंने रिहाई पर जश्न मनाया तो उन्हें फिर से गिरफ्तार किया जा सकता है। इसके बावजूद लोगों ने जेल से बाहर आने वाले फिलिस्तीनियों की रिहाई की खुशी में बड़े पैमाने पर जश्न मनाया। गाजा पट्टी के उत्तरी हिस्से में न जाने की इजरायली सेना की धमकियो के बावजूद लोग अपने जमींदोज हुए घरों की ओर गये। अभी भी गाजा पट्टी के उत्तरी हिस्से में लाखों फिलिस्तीनी रह रहे हैं। 
    
बेंजामिन नेतन्याहू सरकार अभी तक गाजापट्टी को फिलिस्तीनी आबादी से खाली कराने का दम भर रही थी। वह फिलिस्तीनियों को ‘‘जानवर’’ कह रही थी। वह हर गाजावासी को हमास का समर्थक घोषित कर रही थी। वह फिलिस्तीनी बच्चों को अंधेरे के बच्चे, जानवरों के बच्चे कह रही थी। वह 15,000 से ज्यादा फिलिस्तीनी लोगों को, जिनमें 6000 से अधिक बच्चे थे, समझौता होने तक मौत के घाट उतार चुकी थी। उसे इस नरसंहार और विनाश करने में अमरीकी साम्राज्यवादियों और यूरोपीय संघ के शासकों का पूरा समर्थन मिला हुआ था। इतने सब के बावजूद उसे चार दिन के लिए ही सही युद्ध विराम करने के लिए क्यों विवश होना पड़ा? यह दुनिया भर की जनता की व्यापक एकजुटता की आवाज थी, जो फिलिस्तीन मुक्ति संघर्ष के साथ और इजरायली नरसंहार के विरोध में खड़ी हो गयी थी। तकरीबन अमरीका सहित सभी साम्राज्यवादी यूरोप के देशों में ‘‘नदी से समुद्र तक, आजाद होगा फिलिस्तीन’’ का नारा गूंज रहा था। लाखों-लाख की तादाद में लोग अलग-अलग देशों के शहरों में इन नारों से आकाश तक गुंजायमान कर रहे थे। इन साम्राज्यवादी देशों में ही नहीं, खुद अरब देशों में और बाकी दुनिया में यह एकजुटता के प्रदर्शन हो रहे थे। ये प्रदर्शन और इनमें भाग लेने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी। खुद इजरायल के अंदर बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार के प्रति लोगों का गुस्सा बढ़ रहा था। कई सारे देशों में फिलिस्तीन के प्रति समर्थन व्यक्त करने को आपराधिक कृत्य घोषित करने के बावजूद लोगों को दबाया नहीं जा सका था। अमरीकी अवाम अमरीकी शासकों को इजरायल द्वारा किये गये नरसंहार का एक हद तक सह-अपराधी समझने लगी थी। 
    
दुनिया भर की जनता के फिलिस्तीन के साथ व्यापक एकजुटता आंदोलन के दबाव में, खुद अपनी ही जनता से अलगाव में पड़ने के डर से अमरीकी साम्राज्यवादियों और यहूदी नस्लवादी इजरायली कब्जाकारी सरकार को समझौते में आने के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि अमरीकी साम्राज्यवादी और यहूदी नस्लवादी इजरायली सरकार यह दावा कर रही है कि हमास आतंकवादी संगठन इजरायली हमलों के कारण यह समझौता करने के लिए विवश हुआ है। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी और यहूदी नस्लवादी नेतन्याहू सरकार निष्कर्ष निकालती है कि यदि और हमले तेज किये जायेंगे तो हमास संगठन और ज्यादा रियायतें देने के लिए विवश हो जायेगा। 
    
जहां तक प्रतिरोध युद्ध चलाने वाले फिलिस्तीनियों की बात है तो इस अल्पकालिक युद्ध विराम से गाजा की खुली जेल में रहने वाली फिलिस्तीनी आबादी को बुनियादी जरूरत की चीजों की कमी एक हद तक पूरी हो जायेगी। इसके अतिरिक्त लम्बे समय से इजरायली जेलों में बंद महिलायें और बच्चे कुछ संख्या में ही सही, रिहा होकर अपने-अपने परिवारों के बीच पहुंच जायेंगे। उनकी निगाह में यह समझौता, यह 4 दिनी युद्ध विराम, एक अवसर है जिसका इस्तेमाल फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष को आगे बढ़ाने में वह करने को संकल्पबद्ध हैं। 
    
इस अल्पकालिक संघर्ष विराम के बाद न तो बेंजामिन नेतन्याहू सरकार की हमास को मटियामेट करने की और गाजापट्टी को फिलिस्तीनी आबादी से खाली कराने की योजना में कोई तब्दीली आने की संभावना है और न ही अमरीकी साम्राज्यवादियां द्वारा यहूदी नस्लवाद पर आधारित ‘ग्रेटर इजरायल’ की परियोजना को लागू करने की नीति में कोई परिवर्तन आयेगा। इस परियोजना में फिलिस्तीन का राष्ट्र के बतौर नामोनिशान नहीं रह जायेगा। जार्डन नदी से पूर्वी भूमध्य सागर तक ग्रेटर इजरायल एक यहूदी नस्लवादी राज्य बनेगा। 
    
साम्राज्यवादी-कब्जाकारी ताकतें फिलिस्तीनी राष्ट्र को समाप्त करने की योजना को अंजाम देने में लगी हैं। लेकिन दुनिया भर की मजदूर-मेहनतकश आबादी और न्यायप्रिय लोगों की आवाज इसमें एक बहुत बड़ी बाधा है। इस बड़ी बाधा के मद्देनजर, इन साम्राज्यवादी और यहूदी नस्लवादी कब्जाकारी ताकतों ने दूसरे रास्ते अपनाने के बारे में सोच रखा है। यह दूसरा रास्ता यह है कि फिलिस्तीनी प्राधिकार के प्रधानमंत्री मोहम्मद अब्बास को समूचे फिलिस्तीन का प्रधानमंत्री बना दिया जाये। गाजापट्टी से हमास की सत्ता को समाप्त करके मोहम्मद अब्बास की नाम मात्र की सत्ता कायम कर दी जाये। जिस प्रकार, पश्चिम किनारे में मोहम्मद अब्बास की सत्ता नाम मात्र की है और इस प्राधिकार वाली सत्ता को, इजरायली सत्ता का एजेण्ट समझा जाता है, उसी प्रकार की एजेण्ट सत्ता गाजापट्टी में भी स्थापित कर दी जाये। यह जानी हुई बात है कि फिलिस्तीनी प्राधिकार जिसकी अगुवाई मोहम्मद अब्बास करते हैं, इजरायली कब्जाकारियों के समक्ष घुटने टेक चुकी है। पश्चिम किनारे में इजरायल यहूदी बस्तियां लगातार बसाता जा रहा है। पश्चिमी किनारे को इजरायल तीन अलग-अलग हिस्सों में बांट चुका है। फिलिस्तीनी प्राधिकार के पुलिस बल को इजरायल की देख-रेख और प्रशिक्षिण में तैयार किया गया है। फिलिस्तीनी प्राधिकार का पुलिस बल फिलिस्तीनियों के विरुद्ध इस्तेमाल होता है। इसके अतिरिक्त, फिलिस्तीनी प्राधिकार में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद व्याप्त है। इसके फलस्वरूप और इजरायली सत्ता की छत्रछाया में एक फिलिस्तीनी सुविधा प्राप्त वर्ग तैयार हुआ है जिसके हित इजरायली यहूदी नस्लवादी सत्ता के साथ नाभिनालबद्ध हैं। इन सबके चलते फिलिस्तीनी मजदूर-मेहनतकश आबादी में विशेष तौर पर नौजवानों के भीतर मोहम्मद अब्बास के नेतृत्व में चलने वाले फिलिस्तीनी प्राधिकार के विरुद्ध व्यापक गुस्सा मौजूद है और यह बढ़ता जा रहा है। 
    
इस सबका परिणाम यह रहा है कि यहां जगह-जगह पर कई लड़ाकू समूह बन रहे हैं और विकसित हो रहे हैं। हमास के प्रभाव के अतिरिक्त कई लड़ाकू समूह आपस में तालमेल करके यहूदी कब्जाकारी लोगों के विरुद्ध ही नहीं बल्कि इजरायली सशस्त्र बलों के विरुद्ध छापामार कार्यवाइयों के जरिए फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं। इन कार्रवाइयों को कुचलने के लिए न सिर्फ इजरायली सशस्त्र बलों का इस्तेमाल होता है बल्कि फिलिस्तीनी प्राधिकार के पुलिस बलों का भी इस्तेमाल होता है। फिलिस्तीनी पुलिस बल के निचले स्तर के सिपाहियों में फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के प्रति सहानुभूति होना स्वाभाविक है। इसलिए इजरायली सशस्त्र बलों की निगाह में वे शक के दायरे में आते हैं और उन्हें भी दमन का सामना करना पड़ता है। 
    
इस प्रकार, मोहम्मद अब्बास खुद पश्चिमी किनारे में फिलिस्तीनी आबादी के घृणा के पात्र बनते गये हैं। अगर अमरीकी साम्राज्यवादी और यहूदी नस्लवादी इजरायली हुकूमत अपने बीच के कदम के बतौर मोहम्मद अब्बास को गाजापट्टी में भी सत्तासीन कराने की कोशिश करेंगे तो इससे फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष को ये रोक नहीं पायेंगे। थोड़े समय के लिए कुछ फिलिस्तीनी आबादी में भ्रम की स्थिति पैदा करने में ही ये कुछ सफल होंगे। 
    
इस भ्रम की स्थिति को बढ़ाने में अरब देशों की सत्तायें भी भूमिका निभा रही हैं। मौजूदा फिलिस्तीनी प्रतिरोध संघर्ष के तेज होते जाने से इस समय अरब देशों की सत्तायें भी अपने लिए खतरा महसूस कर रही हैं। साउदी अरब और मिश्र में शासकों के विरुद्ध आवाज उठ सकती है। अभी इन देशों की अवाम फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के पक्ष में आवाज बुलंद कर रही है। लेकिन यह आवाज अपने जनवादी अधिकारों के लिए और अपनी बुनियादी मांगों के संघर्ष की ओर भी जा सकती है। इस खतरे को ये शासक अच्छी तरह से महसूस कर रहे हैं। जिस तरीके से अरब देशों में फिलिस्तीनी कैदियों की इजरायल की जेलों से रिहाई के बाद फिलिस्तीन की आजादी को लेकर प्रदर्शन हुए हैं, उससे इन शासकों की चिंता और परेशानी का बढ़ना लाजिमी है। इसलिए ये शासक भी चाहते हैं कि हमास और अन्य प्रतिरोध करने वाली शक्तियों के स्थान पर मोहम्मद अब्बास जैसा रीढ़विहीन व्यक्ति यदि सत्ता में आता है और इससे फिलिस्तीनी प्रतिरोध रुक जाता है या कमजोर पड़ जाता है तो इन सत्ताओं की इजरायल के साथ जो रिश्तों की सामान्यीकरण की प्रक्रिया चल रही थी, वह फिर से तेज हो जायेगी। इन सत्ताधारियों के लिए फिलिस्तीन का प्रश्न उसकी आजादी का प्रश्न नहीं बल्कि अपने स्वार्थों को आगे बढ़ाने का प्रश्न है। 
    
अभी तक दो राज्य- फिलिस्तीन और इजरायल- का समाधान हवा-हवाई बन कर रह गया है। लेकिन दुनिया भर के पूंजीवादी शासक अभी भी इसी समाधान की दुहाई दे रहे हैं। इसके अंतर्गत फिलिस्तीनी राज्य और कुछ नहीं यहूदी नस्लवादी इजरायली राज्य के अंतर्गत बंतुनिस्तानों में बंटा हुआ विखण्डित फिलिस्तीन होगा। ऐसा समाधान पूंजीवादी शासकों को भले ही स्वीकार्य हो, यह फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के योद्धाओं सहित दुनिया की न्यायप्रिय साम्राज्यवाद विरोधी यहूदी नस्लवादी कब्जाकारी शक्तियों की विरोधी ताकतों को स्वीकार नहीं होगा। 
    
जब तक ये पंक्तियां प्रकाशित होंगी, तब तक चार दिनी युद्ध विराम समाप्त हो चुका होगा। हो सकता है कि यह युद्ध विराम कुछ दिन और बढ़ जाये। लेकिन फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष का समाधान फिलिस्तीन की मुक्ति में है। कोई भी युद्ध विराम इस संघर्ष को रोक नहीं सकेगा। 
    
फिलिस्तीन की आजादी की लड़ाई इतिहास का एक छूटा हुआ कार्यभार है। इसमें पहले ही बहुत देर हो चुकी है। फिलिस्तीन सहित दुनिया भर की मजदूर-मेहनतकश आबादी इस संघर्ष को मुक्ति की ओर ले जाने को देर-सबेर कटिबद्ध होगी।  

आलेख

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है

रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले के दो वर्ष से ज्यादा का समय बीत गया है। यह युद्ध लम्बा खिंचता जा रहा है। इस युद्ध के साथ ही दुनिया में और भी युद्ध क्षेत्र बनते जा रहे हैं। इजरायली यहूदी नस्लवादी सत्ता द्वारा गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार जारी है। इस नरसंहार के विरुद्ध फिलिस्तीनियों का प्रतिरोध युद्ध भी तेज से तेजतर होता जा रहा है।

अल सल्वाडोर लातिन अमेरिका का एक छोटा सा देश है। इसके राष्ट्रपति हैं नाइब बुकेली। इनकी खासियत यह है कि ये स्वयं को दुनिया का ‘सबसे अच्छा तानाशाह’ (कूलेस्ट डिक्टेटर) कहते ह

इलेक्टोरल बाण्ड के आंकड़ों से जैसे-जैसे पर्दा हटता जा रहा है वैसे-वैसे पूंजीपति वर्ग और उसकी पाटियों के परस्पर संबंधों का स्वरूप उजागर होता जा रहा है। इसी के साथ विषय के प