देखो ! भइया यह परिवारवाद नहीं है

रिलायंस समूह प्रमुख मुकेश अम्बानी ने अपने तीनों बच्चों आकाश अम्बानी, अनंत अम्बानी व ईशा अम्बानी को रिलायंस इण्डस्ट्रीज लिमिटेड के निदेशक मण्डल में शामिल करवा दिया। उनकी बीबी नीता अम्बानी जो कि पहले निदेशक मण्डल में थी ने भले ही इस मौके पर इस्तीफा भी दिया हो परन्तु इससे कोई फर्क नहीं पड़ना था क्योंकि वह वैसे भी रिलायंस फाउण्डेशन की चेयरपर्सन हैं। और इस नाते महोदया रिलायंस के निदेशक मण्डल में स्थायी रूप से आमंत्रित हैं। इस तरह से मुकेश अम्बानी का पूरा परिवार निदेशक मण्डल में शामिल है। 
    
मुकेश अम्बानी के इस कारनामे पर किसी भी पूंजीवादी अखबार या नेता या स्वयं मोदी जी की भी हिम्मत नहीं थी कि वे मुकेश अम्बानी पर परिवारवाद का आरोप लगा सकें। 
    
मोदी एण्ड कम्पनी विपक्षी पार्टियों पर खूब जमकर परिवारवाद का आरोप लगा कर हमला बोलती हैं और ऐसा करते हुए वे अपनी पार्टी व संघ परिवार के परिवारवाद पर रहस्यमयी चुप्पी लगा जाते हैं। परन्तु चलें वह तो जो है सो है पर मुकेश अम्बानी, गौतम अडाणी, बिड़ला, महेन्द्रा आदि के परिवारवाद पर भी कुछ न कुछ तो बोला जाना चाहिए। पर मोदी जी और उनके चेले ऐसा भला कैसे बोल सकते हैं। अम्बानी आदि के परिवारवाद पर सवाल उठाने का मतलब अपना झण्डा-टण्टा सब गोलकर बांध कर जाना होगा। आका से टक्कर कोई भला क्यों और किसलिए ले। 
    
वैसे गौर करने वालों ने गौर किया होगा मोदी जी परिवारवाद का विरोध करते-करते आजकल एक नया संबोधन ‘मेरे परिवारिक जनों!’ कहने लगे। ये हो सकता है उनका नया जुमला हो। वैसे वे जो कहते हैं उसका उलटा करते हैं। जब उन्होंने कहा कि दो करोड़ रोजगार हर साल देंगे तो बेरोजगारी आसमान छूने लगी। जब उन्होंने कहा किसानों की आय 2022 तक दुगुनी हो जायेगी तब से किसान और बदहाल हो गये। 

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भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

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युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

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हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

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अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।