हमारा भविष्य उज्जवल है

1927 में काकोरी काण्ड से जुड़े चार युवा राष्ट्रीय क्रांतिकारियों को धूर्त व क्रूर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने बेरहमी से फांसी की सजा दे दी थी। 25-27 साल के इन युवाओं ने ‘सरफरोशी की तमन्ना..’ तराना गाते हुए हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी। 
    
रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र प्रसाद लाहिड़ी, रोशन सिंह युवा थे और देश को क्रांति के रास्ते पर ले जाना चाहते थे। वे कांग्रेस खासकर महात्मा गांधी की नीतियों और तौर-तरीकों से क्षुब्ध थे। जिस तरह से महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया था वह इन युवाओं के क्षोभ का एक अहम कारण था। इन्हें यकीन था लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं। कांग्रेस के बरक्स पहले ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ फिर उसके नाम में समाजवादी शब्द जोड़कर बनाए गये क्रांतिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के जरिये उन्होंने अपने इरादे एकदम जाहिर कर दिये थे। वे आजाद भारत में पूंजीपतियों-भूस्वामियों का नहीं मजदूर-किसानों का राज चाहते थे। वे चाहते थे कि आजाद भारत में लुटेरे, जालिम, खून चूसने वालों का नहीं बल्कि मजदूरों-मेहनतकशों का राज हो। 
    
इन युवा क्रांतिकारियों के शानदार व्यक्तित्व की अनेकोंनेक ढंग से प्रशंसा की जा सकती है परन्तु जो गुण इन्हें एकदम अनोखा बना देता है वह है अदम्य आशावाद। 
    
उन्हें यकीन था कि एक दिन हिन्दुस्तान अवश्य ही आजाद होगा। ये यकीं राम प्रसाद बिस्मिल व अशफ़ाक़ उल्ला खां के नज्म़ व अशआर में भी मिलता है। एक जगह अशफ़ाक़ कहते हैं,
    
‘‘बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,
    
किसी दिन देखना आजाद ये हिंदोस्तां होगा।’’
    
1927 में भारत की आजादी की बात करना कि ‘बहुत ही जल्दी गुलामी की जंजीरें टूट जायेंगी’ उनके जबरदस्त आशावाद को दिखलाता है। उन्हें भविष्यदृष्टा व स्वप्नदृष्टा बनाता है। यह दिखलाता है कि उन्हें भविष्य पर पूरा यकीन था। उन्हें उस भविष्य के लिए अपने द्वारा चुने गये रास्ते पर पूरा यकीन था। यह यकीन ही उन्हें बेखौफ बना देता था। डर तो इन महान क्रांतिकारियों के आस-पास भी नहीं फटक सकता था। 
    
भारत जल्द ही आजाद होगा की इन क्रांतिकारियों की भविष्यवाणी महज 20 साल में ही सही साबित हो गयी। 15 अगस्त 1947 को जालिम लुटेरों को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा था। जो अंग्रेज घमण्ड में चूर होकर कहा करते थे कि उनके राज में सूरज अस्त नहीं होता। उनका सूरज हर बीते साल के साथ ढलता ही चला गया। 
    
ये जबरदस्त आशावाद इन राष्ट्रीय क्रांतिकारियों में कहां से पैदा होता था। क्या था जो इनको यह कहने को प्रेरित करता था कि ‘बहुत ही जल्द गुलामी की जंजीरें टूट जायेंगी’।
    
वह चीज थी गुलामी की एकदम साफ समझ और उससे हद दर्जे की नफरत। जो कौम अपनी गुलामी को ढंग से समझ जाती है वही कौम गुलामी से गहरी नफरत और आजादी के प्रति गहरे समर्पण से काम करती है। गुलामी से गहरी नफरत और आजादी के प्रति बेशुमार लगाव ही उन्हें कुर्बानी की हिम्मत व प्रेरणा देता है। 
    
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में आजादी के ऐसे मतवालों की फौज की फौज बीसवीं सदी में उठ खड़़ी हुयी है। दुनिया से उपनिवेशवाद का खात्मा इन मतवालों की फौज के साथ ही दुनिया की जनता ने किया था। अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रांसीसी-जापानी साम्राज्यवादियों के चंगुल से अपने देश को आजाद कराने के लिए अनेकों देश के क्रांतिकारियों ने एक से बढ़कर एक मिसाल पैदा की है। कौन हो-ची-मिन्ह, चे-ग्वेरा, उमर मुख्तार जैसे क्रांतिकारियों को भूल सकता है।
    
हम में से कौन है जिसे अपनी आजादी व अपने देश के लिए लड़ते फिलिस्तीनियों और कुर्दों को देखकर हिम्मत व प्रेरणा न मिलती हो। बिस्मिल, अशफ़ाक़ की तरह लड़ते हुए फिलिस्तीनियों को देखकर कौन नहीं कहना चाहेगा जल्द ही दुनिया के नक्शे में एक आजाद फिलिस्तीन देश होगा। इजरायली धूर्त, क्रूर शासकों की कैद से आजाद होकर फिलिस्तीनी अपने आसमां और अपनी जमीन में चैन की सांस लेंगे। एक न एक दिन तुर्की, सीरिया, इराक, ईरान में फैले हुए कुर्दों का अपना एकीकृत स्वतंत्र राष्ट्र होगा। ये वे लड़ाईयां हैं जिन्हें एक तरह से अपनी मंजिल काफी पहले हासिल कर लेनी चाहिए थी। 
    
बीसवीं सदी के दूसरे दशक से जो चीज आजादी की लड़ाई लड़ने वाली जनता व राष्ट्रीय क्रांतिकारियों को प्रेरणा देती थी वह चीज बाद के समय में न रहने की वजह से अपनी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने वालों के खिलाफ चली गयी। 
    
बीसवीं सदी में रूस की 1917 की ‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ ने पूरी दुनिया में मजदूरों-मेहनतकशों का खून चूसने वालों, उन पर जुल्म करने वाले, युद्धखोरों की सत्ता को उखाड़ कर फेंक दिया था। रूस में मजदूरों-किसानों का राज कायम हो गया था। बाद में रूस की क्रांति का प्रभाव पूरी दुनिया में पड़ा। भारत के राष्ट्रीय क्रांतिकारी भी इससे अछूते नहीं रहे। अशफ़ाक़, भगतसिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी ही नहीं बल्कि गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टेगौर जैसे विचारक-चिंतक-साहित्यकार भी रूसी क्रांति के प्रशंसक हो गये थे। शहीद भगतसिंह ने भारत की वास्तविक मुक्ति समाजवाद में ही देखी थी। 
    
रूस की क्रांति का प्रभाव जब अपनी बढ़ती के दौर में था तब भारत ने आजादी हासिल की थी। साम्राज्यवाद को एक तरफ समाजवाद से तो दूसरी तरफ से आजादी की लड़ाई लड़ने वालों की ओर से भीषण चुनौती मिल रही थी। समाजवाद राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई लड़ने वालों को प्रेरणा दे रहा था। बाद के समय में समाजवाद की हार ने मजदूरों-किसानों के संघर्षों को ही नहीं अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़ रही गुलाम कौमों के संघर्ष को भी बुरी तरह से प्रभावित किया। उनकी लड़ाई कठिन से कठिनतर हो गयी। फिलिस्तीन, कुर्दों की लड़ाई भारी कुर्बानियों के बावजूद अपना मुकाम नहीं हासिल कर सकी। 
    
इस बीच में जो चीज अनूठी थी वह थी इन कौमों ने अपनी मुक्ति की लड़ाई को एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ा। ऐसी ही मिसालें अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़ने वाली कई अन्य उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की भी दी जा सकती है। 
    
यही बात पूरी दुनिया में अपने शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ लगातार संघर्ष कर रहे मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, औरतों आदि शोषित-उत्पीड़ितों के संदर्भ में कही जा सकती है। न दुनिया में शोषित-उत्पीड़ितों के संघर्ष थमे हैं और न मुक्ति की आकांक्षा मिटी है। एक पीढ़ी के हाथ से मशाल दूसरी पीढ़ी के हाथों में जाती रही है। दुनिया को बदलने की लड़ाई का अनवरत सिलसिला जारी है। यह बात इस बात को सुनिश्चित करती है कि मजदूरों-मेहनतकशों का अतीत व वर्तमान कितना ही कठिन व मुसीबतों से भरा है परन्तु उनका भविष्य उज्जवल है। आने वाला समय हमारा है। 
    
एक दिन ऐसी दुनिया अवश्य ही कायम होगी जहां शोषण-उत्पीड़न का नामोनिशां नहीं होगा। न गरीबी होगी, न गैर बराबरी, न बेरोजगारी होगी। न युद्ध होंगे, न कोई देश दूसरे देश पर कब्जा करेगा न धौंसपट्टी दिखायेगा। एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जब पूरी दुनिया से मजदूरों-मेहनतकशों के खून चूसने वालों, उन पर जुल्म करने वालों का पूरी तरह से सफाया हो जायेगा। साम्राज्यवाद, पूंजीवाद का पूर्ण खात्मा हो जायेगा। 
    
एक दिन अवश्य आयेगा जब पूरी मानवजाति एकजुट हो जायेगी और अपने सुंदर भविष्य के ख्वाबों में नहीं जियेगी बल्कि वास्तव में ऐसी दुनिया में रहेगी जहां हर ओर शांति व खुशहाली होगी।  

आलेख

/ameriki-dhamakiyon-ke-sath-iran-amerika-varta

अमरीकी सरगना ट्रम्प लगातार ईरान को धमकी दे रहे हैं। ट्रम्प इस बात पर जोर दे रहे हैं कि ईरान को किसी भी कीमत पर परमाणु बम नहीं बनाने देंगे। ईरान की हुकूमत का कहना है कि वह

/modi-sarakar-waqf-aur-waqf-adhiniyam

संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

/china-banam-india-capitalist-dovelopment

आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं।