नगीना कालोनी, पूंजीवादी विकास और मजदूर-मेहनतकश

नगीना कालोनी लालकुआं (नैनीताल) उत्तराखंड रेलवे स्टेशन के समानांतर पूरब की ओर स्थित थी। उत्तराखंड सरकार, केंद्र सरकार, रेलवे, पुलिस-प्रशासन और न्यायालय द्वारा एकजुट होकर नगीना कालोनी को मई माह में मजदूरों-मेहनतकशों के लिए दमन का पर्याय बन चुके बुलडोजर से नेस्तानाबूद कर दिया गया। मजदूरों-मेहनतकशों पर आजादी के ‘अमृत काल’ में तथाकथित ‘अवैध अतिक्रमण’ के नाम पर यह कार्यवाही की गई। 
    
80 के दशक में 1982 के आस-पास लालकुआं कस्बे में भारत के बड़े पूंजीपति घराने बिरला ग्रुप द्वारा सेंचुरी पल्प एंड पेपर मिल स्थापित करनी शुरू की गयी। तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने 99 साल की लीज पर काफी सस्ती दरों में (लगभग निःशुल्क) सेंचुरी पेपर मिल को पर्याप्त जमीन सहित अन्य सुविधाएं मुहैया कराईं। यह उत्तराखंड में बड़ी औद्योगिक इकाई है। इसमें हजारों मजदूर काम करते हैं। बाद के समय में लालकुआं कस्बे में आंचल दूध डेयरी, रेलवे की स्लीपर कंपनी, इंडियन ऑयल का तेल डिपो जैसी अन्य छोटी इकाइयां भी स्थापित की र्गइं।
    
पेपर मिल में उस समय मुख्यतः पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों इत्यादि जगह के गांव-देहातों से बड़े पैमाने पर काम करने के लिए मजदूर आए। इनमें मुख्यतः अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग के लोग थे। कुछ उच्च जातियों व अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी आये थे। सेंचुरी पेपर मिल में मैनेजमेंट, स्टाफ और स्थाई श्रमिकों के लिए मिल के अंदर ही पक्की स्टाफ कालोनी बनाई गई। मिल के बाहर भी 25 एकड़ में स्थाई श्रमिकों के लिए पक्के आवास बनाए गए। बाकी लोगों को स्वयं अपना इंतजाम करना था।
    
जिन मजदूरों-मेहनतकशों को सेंचुरी मिल में घर या जगह नहीं मिल पाई उन लोगों ने आस-पास में जमीन खरीदकर बस्तियां बसा लीं। इनमें नगीना कालोनी, बंगाली कालोनी, वीआईपी गेट, 2 किलोमीटर, हाथी खाना, बजरी कंपनी जैसी कालोनियां बस गईं। इससे लालकुआं कस्बा विस्तारित हुआ और लालकुआं बाजार बड़ा होता चला गया। वहां पर स्कूल और नए-नए संस्थान खड़े होते चले गए जिससे मिल के बाहर भी कई लोगों को रोजगार मिलने लगा।
    
पेपर मिल, लालकुआं की बसी इन कालोनियों के दौरान सेंचुरी पेपर मिल से सटा हुआ काफी बड़े इलाके में बिन्दुखत्ता गांव भी बस गया। (यहां पर मुख्यतः पहाड़ी क्षेत्र के रहने वाले लोग हैं।) हजारों की आबादी पूरे उत्तराखंड से आकर बिन्दुखत्ता में बसी है जिसमें सभी जातियों के लोग हैं। जिसमें सेना में कार्यरत, सेना से रिटायर लोग, शिक्षक, सेंचुरी मिल में काम करने वाले मजदूर, छोटे किसान सहित तमाम लोग बस गए। 
    
नगीना कालोनी में लोग किसी तरह अपनी मेहनत से अपना जीवन यापन कर रहे थे। वहां रह रहे निवासियों के वोटर आईडी कार्ड सहित अन्य तमाम तरह के दस्तावेज धीरे-धीरे बनने लगे। वहां पर इनको कुछ न्यूनतम स्तर की नागरिक सुविधाएं भी मिलने लगीं। पूंजीवादी राजनीतिक दलों के छुटभैय्ये नेता नगीना कालोनी निवासियों को अपना व अपनी पार्टी का वोट बैंक समझकर इस्तेमाल करने लगते हैं। उनकी बस्तियों को स्थाई करने सहित तमाम तरह के आश्वासन देते रहते हैं। यह सब वह अपने राजनीतिक हितों, स्वार्थों के लिए करते हैं। 
    
नगीना कालोनी में राजमिस्त्री, बढ़ई, मजदूरी, फड़-ठेला लगाने वाले, सेंचुरी पेपर मिल में ठेका श्रमिक, ऑटो चालक, गौला नदी में मजदूरी इत्यादि काम करने वाले लोग रहते थे। कुछ निम्न मध्यम वर्गीय लोग भी रहते थे। यह लोग यहां पर पिछले 40-50 सालों से निवास कर रहे थे। (2014 में नगीना कालोनी को बिन्दुखत्ता नगर पालिका में शामिल किया गया था। बाद में नगर पालिका वापस हो गई थी।) बस्ती में सड़क, बिजली-पानी कनेक्शन, 2 सरकारी प्राइमरी स्कूल, आंगनबाड़ी केंद्र, राशन की दुकान (कंट्रोल) आदि सुविधाएं यहां निवास कर रहे निवासियों को मिली हुई थीं।
    
सरकारों को सालों बाद जब विकास का विस्तार करने के लिए और जगह की जरूरत होती है या किसी नयी परियोजना के लिए जगह की जरूरत होती है तो उनको अवैध घोषित कर वहां से हटाने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है। यही नगीना कालोनी में भी किया गया।
    
नगीना कालोनी के बगल में बंगाली कालोनी के लगभग 200 कच्चे-पक्के घरों को 2012 में ध्वस्त कर दिया गया। उस दौरान नगीना कालोनी में अवैध अतिक्रमण करने का नोटिस लगाया गया। फिर 2021 से बार-बार नोटिस लगाये गये। 
    
अलग-अलग विभागों में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारियों ने लोगों को उलझा दिया। उनको मालिकाने संबंधित ठोस सूचना नहीं दी गयी। (कहा जाता है नगीना कालोनी की जमीन वन विभाग की थी। इसके कुछ कागजात मौजूद हैं। कई साल पहले वन विभाग के लोग ही नगीना कालोनी वासियों को हटाने के लिए आए थे। उस दौरान लोगों ने संघर्ष करके वन विभाग के कर्मचारियों को भगाया था और अपनी जगह बचा ली थी। इसी तरह पूरा लालकुआं शहर सहित बिन्दुखत्ता नजूल और वन विभाग की जमीन पर ही बसा हुआ है।) सूचना के अधिकार से सालों-साल के कठिन और लंबे संघर्ष के बाद ही कभी-कभार कुछ सूचना मिल पाती है। 
    
शासन-प्रशासन लोगों के बीच बंटवारा करने के लिए किस्म-किस्म के भेद अपनाते रहते हैं। धर्म-जाति-क्षेत्र का भेद अंग्रेजों के जमाने से चलता आया है। यह भेद लोगों के बीच बंटवारा करने का सबसे आसान तरीका है। नगीना कालोनी में उसके बावजूद भी जब मजदूर-मेहनतकश लोग अपनी जगह या किसी अन्य मांग के लिए मिल-जुल कर साथ में खड़े होते हैं, संघर्ष करते हैं तो शासन-प्रशासन को यह नागवार गुजरता है। वह 200 मीटर ही जमीन जाएगी का भेद लेकर आ जाता है। इतनी जमीन जाएगी, इतनी नहीं जाएगी इस तरह के तमाम सारे अन्य भेदों को लेकर आ जाता है। इसको भाजपा के लोग बढ़-चढ़कर आगे बढ़ा रहे थे। इस प्रकार नगीना कालोनी में लोगों की एकता विखंडित कर दी गयी। 
    
नगीना कालोनी के लोगों ने संघर्ष के साथ एक रास्ते के बतौर उत्तराखंड हाईकोर्ट नैनीताल में भी रेलवे के अवैध नोटिस पर रोक लगाने हेतु जनहित याचिका डाली। वहां से भी जनता को कोई राहत नहीं मिली। उच्च न्यायालय द्वारा सुप्रीम कोर्ट जाने का मौका भी लोगों को नहीं दिया गया। (तुरंत ही सुप्रीम कोर्ट के लिए लोग चले गए। दूसरे दिन सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगी भी नहीं थी कि बस्ती में तोड़-फोड़ की कार्यवाही शुरू कर दी गयी)। न्यायपालिका भी आज संविधान, कानून के तहत फैसले नहीं दे रही है। समय-समय पर सत्ताधारी दल अपने हिसाब से उनके ऊपर नियंत्रण करते रहते हैं। आज न्यायालयों का रुख भी प्रतिक्रियावादी, पूंजीपरस्त हो चुका है। कुछेक मौकों को छोड़कर न्यायालयों से जनता को कोई राहत नहीं मिल रही है।
    
रेलवे के पास भी नगीना कालोनी के मालिकाने के संदर्भ में कोई नक्शा या दस्तावेज मौजूद नहीं थे। इसके बावजूद भी सरकारों की नजरों में नगीना कालोनी के लोग अवैध थे। उनको दूध में गिरी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया गया।
    
दूसरी ओर पूंजीवादी विकास माडल देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लिए पूंजी कमाने के सारे रास्ते खोल देता है। पूंजीपतियों को अपने-अपने इलाकों में कंपनी स्थापित करने के लिए सरकारों द्वारा प्रोत्साहन दिया जाता है। उनको तमाम तरह की सुविधाएं सस्ती दरों (लगभग निःशुल्क) में दी जाती हैं। इस सब के बावजूद उनको सालों-साल तक कई सारी सेवाओं में टैक्सों में भारी छूट दी जाती है। किसी शहर या किसी इलाके में कंपनी लगानी हो, रेलवे, सड़क आदि का विस्तार करना हो तो उस इलाके में जमीन, सड़क, पार्किंग, बिजली-पानी से लेकर तमाम तरह की जरूरतें उनको काफी सस्ते दामों में तत्काल मुहैय्या करा दी जाती हैं। उनको ज्यादा दौड़-भाग ना करनी पड़े इसके लिए सरकारों द्वारा ‘सिंगल विंडो सिस्टम’ बनाकर एक ही छत के नीचे सारे काम कर दिए जाते हैं। 
    
पूंजीवादी भवन, कारखाना, सड़क, रेलवे आदि तमाम तरह की बसावटों में काम करने वाले मजदूरों के लिए कोई भी योजना सरकारों के पास नहीं होती है। इन बसावटों के समय सरकारों, पूंजीपतियों द्वारा इन मजदूरों-मेहनतकशों के आवास, जीवन इत्यादि का कोई बंदोबस्त नहीं किया जाता है। 
    
मजदूर-मेहनतकश इस तरह उजाड़े जाने के बाद एक जगह से दूसरी जगह भटकने को मजबूर होते हैं। उनको आज एक जगह उजाड़ा जाता है, कल दूसरी जगह, परसों तीसरी जगह से उजाड़ दिया जाता है। इसमें उनके बच्चों के शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकार की भी परवाह नहीं की जाती है। 
    
पूंजीवादी राजनीतिक दल कहने के लिए जनता के नाम पर बड़े-बड़े वायदे और ढकोसले करते हैं। परंतु जब जनता के ऊपर इस तरह की मुसीबतें आती हैं तो यह राजनीतिक दल जनता से अपना मुंह मोड़ लेते हैं। स्वयं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहा था ‘जहां  झुग्गी, वहां मकान’ परंतु यहां तो उल्टी ही गंगा बहाई गयी। नगीना कालोनी की मजदूर-मेहनतकश जनता सत्ताधारी दल, विधायक, सांसद, मंत्रियों के पास अपना दर्द लेकर पहुंचती है तो यह उसको ही कसूरवार ठहरा देते हैं। आप लोग यहां बसे ही क्यों? यह जगह तो आपको खाली ही करनी होगी। आपको सही जगह में अपना घर-मकान बनाना चाहिए? यही विधायक-सांसद चुनाव के दौरान इन्हीं बस्ती के लोगों से अपने लिए वोट मांग रहे होते हैं और तमाम सारे चुनावी वायदे उनके लिए और उनकी बस्ती के लिए कर रहे होते हैं। परंतु जब उनके ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूटता है तो यही पूंजीवादी राजनीतिक सत्ताधारी दल अपने पूंजीपरस्त होने के कारण मजदूरों-मेहनतकशों के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। इनके लोग, इनके द्वारा नियंत्रित मीडिया, सोशल मीडिया आदि जगहों में गरीबों, मजदूरों-मेहनतकशों को ही अतिक्रमण के नाम पर निशाना बनाया जाता है।
    
आवास किसी भी व्यक्ति का मूलभूत अधिकार है। वह कोई मजदूर हो, किसान हो, मध्यमवर्गीय हो, अधिकारी हो, राजनेता हो या कोई पूंजीपति हो। परंतु पूंजीवादी समाज में मजदूर-मेहनतकश जनता को यह अधिकार नहीं दिया जाता है। जिसके पास पूंजी होती है वह बड़े घर, चौड़ी सड़कें, बड़े पार्क सहित तमाम सुविधाओं से युक्त जगह में घर बना लेते हैं। अंबानी-अडाणी-टाटा-बिरला-मित्तल -महेंद्रा जैसे लोग तमाम सुख सुविधाओं युक्त अय्याशी भरे राजमहलों में निवास करते हैं। उन्हीं के इन महलों को बनाने वाले मजदूर-मेहनतकश लोग बिना घरों के रहते हैं। 
    
मजदूर-मेहनतकश लोग सड़क, रेलवे स्टेशन विस्तार आदि विकास के विरोधी नहीं हैं। सड़कें, रेल आदि कोई योजना लगने से उनको भी एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने में सुविधा होती है, रोजगार मिलता है। अगर मजदूरों-मेहनतकशों को उनकी जगहों से उजाड़ा जा रहा है तो उनका भी सम्मानजनक पुनर्वास किया जाना चाहिए। 
    
पूंजीवादी व्यवस्था जनता के लिए आवास, नागरिक अधिकार जैसे चीजों की कोई परवाह नहीं करती है। मजदूर-मेहनतकश जनता के अधिकारों को इस पूंजीवादी व्यवस्था में संगठित होकर, मज़बूत तरीके से संघर्ष करके ही कुछ हासिल किया जा सकता है। इसमें सुधारवाद, संशोधनवाद से संघर्ष करते हुए पूंजीवादी व्यवस्था बदलने के खिलाफ अपने संघर्ष को लक्षित करना होगा। 
    
मजदूर-मेहनतकश जनता को अपने राज मजदूर राज समाजवाद में ही आवास का यह अधिकार प्राप्त हो सकता है। समाजवाद ही मेहनतकशों का सच्चा समाज है। समाजवाद में रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतें देना सरकार का आवश्यक कर्तव्य होगा। आज मजदूरों-मेहनतकशों को अपने ऐतिहासिक लक्ष्य समाजवाद के लिए एकजुट होना होगा। 
        -लालकुआं संवाददाता

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