वास्तविकता और राजनीतिक भ्रम! -रंगनायकम्मा

यह स्पष्ट है कि मतदान का अधिकांश वोट ऐसी पार्टी को मिलता है जो कल्याणवाद, राष्ट्रीय अंधराष्ट्रवाद और देशभक्ति आदि के नाम पर धन, सांप्रदायिकता, जातिवाद, धोखेबाज योजनाएं, इत्यादि जैसे कुटिल तरीकों का पालन करती है। हालांकि ये अनुचित प्रथाएं अतीत में लंबे समय से चली आ रही हैं, लेकिन वर्तमान समय में इनका तेजी से पालन किया जा रहा है। यदि कोई पार्टी मतदान में बहुमत हासिल कर लेती है, तो यह माना जाता है कि पार्टी के पास लोगों का जनादेश है। इसलिए; जो लोग चुनावी राजनीति करते हैं वे मतदान को लोकतंत्र का त्यौहार बताते हैं। सिर्फ राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि ईमानदारी से जनता के पक्ष में खड़े कुछ बुद्धिजीवी भी इसी तरह मासूमियत से सोचते हैं। अपने हालिया लेखों में से एक में, एक बुद्धिजीवी ने तर्क दिया कि किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं करना चाहिए ताकि एक पार्टी की तानाशाही न हो और उसका नेता तानाशाह न बने। ऐसी आशा शासक वर्ग और उसके राजनीतिक नेताओं के बारे में अज्ञानता को दर्शाती है। एक समय यह लेखिका भी वर्गों के बारे में बिल्कुल अनभिज्ञ थी।
    
मेरे 1969 के उपन्यास ‘‘इन द डार्कनेस...’’ में, चूंकि मैं राजनीतिक अंधकार में थी, मैंने गांधी, नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की प्रशंसा की। हालांकि, मार्क्स की ‘‘पूंजी’’ पढ़ने के बाद मैंने सीखा कि शासकों को कैसे समझा जाए। बाद में, अपने उपन्यास के एक पुनर्मुद्रण में, मैंने अपनी गलती इस प्रकार स्वीकार कीः ‘‘इस उपन्यास में मैंने नेहरू को लोकतंत्र के प्रेमी के रूप में वर्णित किया, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो नस्लीय, धार्मिक और वर्ग मतभेदों में विश्वास नहीं करता था। हकीकत तो यह है कि नेहरू भी शोषक वर्ग के नेता हैं। जब 1946-51 के दौरान तेलंगाना में गरीब किसानों ने सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष किया और जमीनें बांटीं, तो नेहरू सरकार ने रक्तपात का सहारा लिया, सेना की मदद से जमींदारों को उनकी जमीनें वापस दिलाने में मदद की और किसानों पर अत्याचार किया। ऐसे नेहरू लोकतंत्र प्रेमी और वर्ग भेद से ऊपर कैसे हो सकते हैं?’’ इस तरह मैंने अपनी गलती सुधारी। लाल बहादुर शास्त्री के मामले में भी मैंने यही किया।
    
‘‘लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी ईमानदारी और परिश्रम के कारण प्रधानमंत्री का पद सुशोभित किया।’’ इस तरह मैंने चित्रित किया। यदि यह ईमानदारी है, तो यह साधन सम्पन्न वर्ग के प्रति ईमानदारी है! वह प्रयास उस वर्ग के हितों की रक्षा के लिए था। मैंने लिखा कि लाल बहादुर शास्त्री ने ऐसा शासन किया कि उन्होंने भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान दुश्मन को नष्ट कर दिया। ‘शत्रु को नष्ट करने’ का क्या अर्थ है? ‘दुश्मन कौन हैं? पाकिस्तान के लोग भारत के लोगों के दुश्मन नहीं हैं। अगर इन दोनों देशों के बीच युद्ध हुआ तो वह इस देश के पूंजीपतियों और उस देश के पूंजीपतियों के बीच था। युद्ध के कारण दोनों देशों की गरीब जनता को ही नुकसान उठाना पड़ता है। ये गरीब लोग ही हैं जो सैनिकों के रूप में काम करते हैं। युद्धों में गरीब लोग ही मरते हैं।’’
    
एक और प्रकरण। मुझे आंध्र प्रदेश साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने के कुछ साल बाद, शायद 1966 में, इंदिरा गांधी ने विशाखापत्तनम का दौरा किया था। तभी एक पुलिस अधिकारी मेरे पास आया और बताया कि इंदिरा गांधी से मिलने के लिए ‘‘सेलिब्रिटीज’’ को निमंत्रण दिया गया था और मुझसे उस बैठक में शामिल होने के लिए कहा। उस समय अपनी राजनीतिक अज्ञानता के कारण मैं भी जाकर इंदिरा गांधी से मिली। कोई बातचीत नहीं। बस दिखता है। इंदिरा गांधी हमारा अभिवादन स्वीकार करते हुए और हम सभी की ओर एक ही सामान्य अभिवादन करते हुए हमारे सामने चलीं! जो लोग श्रम के शोषण पर आधारित शासन व्यवस्था के बारे में जानते हैं उन्हें ऐसे शासक वर्ग के प्रतिनिधियों के पास नहीं जाना चाहिए। लेकिन ऐसी थी मेरी राजनीतिक चेतना! जब एक बुद्धिजीवी ने यह इच्छा व्यक्त की कि किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलना चाहिए, तो यह भी राजनीतिक मासूमियत है।
    
राजनीतिक दल समाज में मौजूद वर्गों के हितों के लिए काम करते हैं। कुछ पार्टियां पूरे देश में मौजूद हैं जबकि कुछ केवल कुछ क्षेत्रों में ही काम करती हैं। ये पार्टियां दो प्रकार की होती हैंः वे पार्टियां जो शासक वर्गों की सेवा में हैं और वे जो श्रमिक वर्गों की सेवा में हैं।
    
शासक वर्ग वे हैं जो लाभ, ब्याज और वाणिज्यिक कमीशन जैसी आय पर जीवन यापन करते हैं। श्रमिक वर्ग में वे श्रमिक शामिल हैं जो खेतों, कारखानों, खदानों, परिवहन आदि में दिन-रात श्रम करते हैं; किरायेदार किसान, छोटे पैमाने के व्यापारी, हस्तशिल्पी और इसी तरह के अन्य।
    
कम्युनिस्ट पार्टियां, जो मूल रूप से श्रमिक वर्गों के लिए काम करने के लिए बनाई गई थीं, एक समय में कुछ हद तक स्वतंत्र रूप से कार्य करती थीं। हालांकि, पिछले 60 वर्षों के दौरान, वे किसी न किसी सत्तारूढ़ दल का अनुसरण करते रहे हैं। वे इस भ्रम में चलने के लिए किसी बुर्जुआ पार्टी की तलाश करते हैं कि ‘यह पार्टी उस पार्टी से अधिक खतरनाक है’। वास्तव में उन पार्टियों के बीच उनके वर्ग चरित्र के संदर्भ में आवश्यक अंतर क्या है? उदाहरण के लिए, एक सत्तारूढ़ दल ने ‘‘ग्रीन हंट’’ के नाम पर आदिवासी आंदोलन को दबाने की कोशिश की और दूसरे दल ने भी ‘‘प्रहार’’ लेबल के तहत यही काम किया! एक पार्टी ने खुले तौर पर आपातकाल की घोषणा की है और दूसरी पार्टी बिना किसी घोषणा के दमन का सहारा ले रही है। सत्ता में रहने वाली कोई भी पार्टी अपने प्रतिद्वंद्वी दलों को कमजोर करने के लिए अपने नियंत्रण वाली अपराध जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करती है। सत्ता में रहने वाली पार्टी छोटे उद्योगपतियों को किनारे कर देती है और बड़े पूंजीपतियों को सभी सुविधाएं प्रदान करती है जो उसे करोड़ों रुपये का दान देते हैं। आत्मनिर्भरता, आत्मनिर्भर भारत जैसे मंत्रों का जाप करते हुए, यह विदेशी पूंजीपतियों के लिए दरवाजे खोलता है। कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर, यह मजदूर वर्ग के गरीबों को भीख के रूप में मुफ्त चीजें देती है, उनके वोट बटोरती है और बार-बार अपनी सत्ता बनाए रखने की कोशिश करती है।
    
हालांकि आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस पार्टी और भाजपा में कोई अंतर नहीं है, लेकिन ‘बहुसंख्यक सांप्रदायिकता’ एक विशेष गुण है जो भाजपा में अतिरिक्त रूप से है। यदि कोई इस दुर्गुण पर सवाल उठाता है तो वे कहते हैं, ‘‘हम अकेले सांप्रदायिक नहीं हैं। आप कह सकते हैं कि हमने 2002 में मुसलमानों के साथ कुछ किया था। लेकिन, क्या कांग्रेस पार्टी ने हमसे बहुत पहले 1984 में सिखों को जिंदा नहीं जलाया था?’’ इस तरह वे कांग्रेस के गलत कामों को अपने खिलाफ खड़ा करके अपना बचाव करते हैं। ‘क्या कांग्रेस शासन के दौरान सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए थे’? वे कहते हैं, हालांकि उन दंगों में उनके संघ परिवार की भूमिका थी।
    
इन सभी बातों में सबसे मनोरंजक बात विधायकों और सांसदों का एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाना है। जो लोग कल तक एक-दूसरे को गंदी-गंदी गालियां देते थे, जिसे न तो बोला जा सकता है और न ही लिखा जा सकता है, वे शाम होते-होते अपनी पार्टियां बदल लेते हैं। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि इन पार्टियों के बीच उनके वर्ग स्वभाव, वर्ग हितों और विचारधारा के संदर्भ में कोई अंतर नहीं है? एक और अजीब बात यह है कि सभी पार्टियों में ऐसे कई विधायक और सांसद हैं जिनके खिलाफ हत्या, बलात्कार और आर्थिक अपराध जैसे अपराध करने के मामले दर्ज हैं। वे शासक हैं!
    
जब शोषण की राजनीति इस तरह की हो तो ‘यह पार्टी उस पार्टी से ज्यादा खतरनाक है’ जैसे तर्क देना बेमानी है! आइए पहले इस पार्टी को सत्ता से हटाएं।’ ‘दूसरे को बाद में देखेंगे।’ इसी प्रकार यह कामना करना भी एक भ्रम है कि किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिले। यदि कोई पार्टी बहुमत हासिल नहीं कर पाती तो क्या होगा? क्या वह अन्य दलों के साथ गठबंधन करके सत्ता में नहीं आ सकती? चाहे कोई पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनी रहे या अन्य दलों के साथ गठबंधन बनाए, वह कौन सा महान कार्य करती है? बिना किसी बाधा के श्रम के शोषण को सुविधाजनक बनाने के अलावा कुछ नहीं।
    
खैर, तो फिर जनता के पक्ष में खड़े बुद्धिजीवियों और राजनीतिक दलों को क्या करना चाहिए? श्रम के शोषण का बचाव करने वाले राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन किए बिना वर्ग संघर्ष संबंधी गतिविधियों को जारी रखना। इसके बजाय, यदि वे दो शोषक राजनीतिक गुटों में से किसी एक के साथ जुड़ जाते हैं, तो मेहनतकश जनता को कैसे लाभ होगा? उन्हें कितने भी वर्षों तक किसी न किसी शासक वर्ग की पार्टियों का पिछलग्गू बनकर रहना होगा। खैर, फिर, वे मेहनतकश लोगों को श्रम के शोषण की इस दुनिया को बदलने के लिए आवश्यक वर्ग चेतना का कार्यक्रम कब पेश करेंगे? तभी जब वे शासक वर्ग की राजनीति के बारे में सभी भ्रम त्याग देंगे। राजनीतिक भ्रम को त्यागने के लिए लोगों को मार्क्स के सुझाव का पालन करना होगाः ‘‘जहां मजदूर वर्ग अभी तक अपने संगठन में इतना आगे नहीं बढ़ पाया है कि वह शासक वर्गों की सामूहिक शक्ति, यानी राजनीतिक शक्ति, के खिलाफ निर्णायक अभियान चला सके, उसे किसी भी कीमत पर इस शक्ति के खिलाफ लगातार आंदोलन करके इसके लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। और शासक वर्गों की नीतियों के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैये से। अन्यथा, यह उनके हाथ का खिलौना बनकर रह जाएगा।’’
(तेलुगु से अनुवादः बीआर बापूजी)
(साभारः फ्रंटीयर वीकली, अंग्रेजी से अनुवाद हमारा)

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