खुश हो जाइये ! अब अपन गरीब नहीं रहे !

इंदिरा गांधी ने 70 के दशक में जब गरीबी हटाओ का नारा दिया था तो देश के सारे गरीब-मजलूम खुश हो गये थे कि चलो अब हमारे दिन बहुरेंगे। पर इंदिरा गांधी को गरीबी हटाने का असली फार्मूला नहीं पता था। सो उनके प्रयासों से गरीबी न हटनी थी और न हटी। इंदिरा ने सोचा तमाम बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर, खेती में हरित क्रांति कर गरीबी हट जायेगी पर वह विफल रही। लगभग 4-5 दशक बाद जनता के चहेते मोदी साहब पधारे। उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही बताया कि वे बचपन में चाय बेचते थे और अब देश की शीर्ष कुर्सी पर पहुंच गये हैं। एक बार फिर देश के गरीबों को अपने दिन बहुरने की आस जग गई।
    
मोदी थे तो कुछ भी नामुमकिन नहीं था तो भला गरीबी नाम की चिड़िया की मोदी के आगे क्या औकात हो सकती थी। मोदी ने गरीबी हटाने की ठान ली तो भला वह कब तक टिकती। मोदी को गरीबी हटाने का फार्मूला पता था। उनके कहते ही सारे अर्थशास्त्री गरीबी से लड़ने में जुट गये। सरकारी नौकरशाही ने आंकड़ों को इस कदर घोंटा कि बेचारी गरीबी के आंकड़ों का दम ही घुट गया। आंकड़ों की इस बाजीगरी के लिए एक ऐसा नीति आयोग बनाया गया जो हर आंकड़े की ड्रेस बदलकर उसे ऐसा पेश करने में माहिर था कि आंकड़ा खूबसूरत नजर आने लगता था। बस फिर क्या था बीते दिनों 10 वर्षों बाद जब 2022-23 का पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वे के नतीजे जारी हुए तो नीति आयोग ने घोषित कर दिया कि भारत में अब गरीब 5 प्रतिशत से भी कम रह गये हैं और शीघ्र ही इन्हें भी गरीबी के दलदल से खींच लाया जायेगा। सही ही था कि मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है। 
    
अभी 15 जनवरी, 24 को इसी नीति आयोग ने बताया था कि मोदी के 9 वर्षों के शासन में लगभग 25 करोड़ लोगों को गरीबी से उबार लिया गया है। और 2022-23 तक महज 11.28 प्रतिशत लोग ही गरीब रह गये हैं। पर जब पारिवारिक उपभोग सर्वे आया तो महीने भर में नीति आयोग ने गरीब 5 प्रतिशत रहने की घोषणा कर डाली। यह मोदी काल में ही हो सकता है कि 1 माह में 6 प्रतिशत लोग गरीबी से उबर जायें।table मोदी है तो मुमकिन है। 
    
तो अब खुशियां मनाने का वक्त आ चुका है। अपना भारत अब गरीब नहीं रहा है। अपन अब गरीब नहीं रहे। 
    
इस सर्वे ने बताया कि 2011-12 में जहां अपन गांव में औसतन 1430 रु. हर माह खर्च करते थे वो राशि अब बढ़कर 3773 रु. (2011-12 की कीमतों पर 2008 रु.) हो गयी है। उसी तरह शहर में हमारा मासिक खर्च 2630 रु. से बढ़कर 6459 रु. (2011-12 की कीमतों पर 3510 रु.) हो गया है। यानी बीते 11 वर्षों में हमारा खर्चा ढाई गुना बढ़ गया है। अगर महंगाई हटा भी दें तो हमारा खर्चा लगभग डेढ़ गुना बढ़ गया है।
    
सर्वे ने और बताया कि अब अपन चाहे शहर में रह रहे हों या देहात में आधे से कम खर्चा खाने में करते हैं और आधे से ज्यादा खर्च सैर सपाटे-शिक्षा-इलाज-मनोरंजन में करते हैं। कि दो वक्त की रोटी अब अपन के लिए ज्यादा सिरदर्द नहीं रहा। 
    
अभी हम खुशी में सराबोर होने का प्रयास ही कर रहे थे कि भीतर से श्रीमती का फरमान आया कि घर में सब्जी नहीं है। सब्जी ले आओ तब शाम का खाना बनेगा। हमने सोचा कि श्रीमती क्या जाने कि अब रोटी हमारे लिए सिरदर्दी नहीं रही। हमने झट सर्वे की तालिका खोली यह देखने को कि हम सब्जी पर कितना खर्चा करते हैं। तो हमने पाया कि शहर में हम हर माह 245 रु. व गांव में 203 रु. सब्जी पर खर्च करते हैं। हमने तुरंत हिसाब जोड़ा कि अपन शहर में रहते हैं और घर में 2 प्राणी हैं तो अपन हर महीने 490 रु. सब्जी पर खर्च कर सकते हैं। इस हिसाब से हम 16 रु. रोज सब्जी पर खर्च कर सकते हैं। हमने 20 रु. निकालकर श्रीमती जी को दिये और कहा सब्जी ले आओ। और हां तीनों टाइम की सब्जी ले आना। 
    
श्रीमती जी ने 20 रु. का नोट मोड़ते हुए हमें फटकारा कि 20 रु. में 3 टाइम की तो क्या एक टाइम की भी सब्जी ना आयेगी। इतने में तो सब्जी सूंघने को ही मिलेगी खाने को नहीं। हमारी सारी खुशी फुर्र हो चुकी थी। 
    
फिर हमने सोचा था कि चलो बाकी चीजों के भी हाल देख लेते हैं। तो पाया कि हमें हर माह किस मद में औसतन कितना खर्च करना है तो ये सूची सामने आयी। (देखें तालिका)
    
अब ये सूची देखकर अपन का दिमाग फिरने लगा। भला 8 रु. में एक आदमी एक दिन में शहर में कितना अनाज खायेगा? 3 रु. की कितनी दाल खायेगा? 5 रु. के कितने फल खायेगा? 6 रु. का कितना अंडा/मांस खायेगा?
    
यह तस्वीर देख लगने लगा कि इतने खर्चे पर तो बड़ी आबादी गरीबी में ही कही जायेगी। झट पन्ने पलट देखा तो पाया कि सरकार की गरीबी रेखा कहां है तो पाया कि गरीब कहे जाने वाले 5 प्रतिशत लोग हर माह गांव में 1441 व शहर में 2087 रु. खर्चते हैं। और दरअसल 80 प्रतिशत लोग गांव में 5447 रु. व शहर में 9625 रु. से नीचे हर माह खर्च करते हैं। 
    
अपन का दिमाग ही फिरने लगा। अपन को 80 प्रतिशत लोग ही गरीब नजर आने लगे। 
    
फिर और कलाकारी समझ में आयी कि यह सर्वे 3-3 बार लोगों के पास जाकर जुटाया गया ताकि खर्च का आंकड़ा बढ़ा सके। लोग ज्यादा खर्च वाले नजर आने लगें। इस पर भी जो तस्वीर सामने आयी वो भयावह गरीबी ही दिखला रही थी। असली तस्वीर तो और भयावह होगी। 
    
गरीबी मिटने की हमारी खुशी फुर्र हो चुकी थी। मोदी की कलाकारी हम समझ चुके थे कि कैसे वे आंकड़ों के हेर-फेर से गरीबी मिटा रहे थे। गरीबी आंकड़ों में ही घट रही थी। जमीन पर तो वो दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती जा रही थी। 

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