महाकुंभ के बाद

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पीडितों को मुआवजा नहीं लेकिन सफलता का चमकदार सेहरा

महाकुंभ समाप्त होने के बाद गंगा में काफी पानी बह गया है। लोग आस्था की डुबकी लगाकर अपने रोज के कामों में लौट चुके हैं। सरकार के लिए एक इवेंट ख़त्म हो चुका है। सरकार भी अपने अन्य एजेण्डों में व्यस्त हो गयी है। योगी सरकार ने महाकुंभ से अपनी हिंदूवादी छवि चमकाई साथ ही वह इस समय भी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना नहीं भूली। महाकुंभ की समाप्ति के बाद संभल, होली का रंग, सड़क पर नमाज और औरंगजेब आदि मुद्दों से ध्रुवीकरण का खेल जारी है।

तेजी से बदलते समय में महाकुम्भ की भगदड़ में मारे गये लोगों को भी एक तरह से भुला दिया गया। पहले तो मृतकों की संख्या पर ही विवाद बना रहा। केन्द्र सरकार ने तो साफ कह दिया कि कानून व्यवस्था राज्य का मामला है इसलिए उसके पास महाकुंभ में मरने वालों का कोई आंकड़ा नहीं है। योगी सरकार ने मृतकों की संख्या कम से कम रखते हुए 30 बताई और दिल खोलकर 25 लाख रुपये मुआवजे का वादा किया।

इंडियन एक्सप्रेस की पड़ताल से पता चला कि यह वादा भी अभी तक पूरा नहीं हुआ है, यह भी खोखला ही साबित हुआ है। कुछ ही लोगों को नकद 5 लाख रुपये मिले हैं। अधिकतर मृतक परिवार वाले बताते हैं कि उन्हें मृत्यु प्रमाण पत्र तक नहीं मिला है। कैसे मुआवजा मिले, इस प्रक्रिया का भी उन्हें नहीं पता है।

ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है, वैसे-वैसे महाकुम्भ में मृतकों और उनके परिवारजनों को मुआवजे की बात हाशिये पर जा रही है। कुछ समय और बीतते-बीतते बस यही बात शेष रह जायेगी कि योगी सरकार ने महाकुंभ का भव्य और सफल आयोजन किया था।

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संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

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आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

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