नारी मुक्ति का सवाल : आज का भारत

भारत में नारी मुक्ति का सवाल विकसित पूंजीवादी देशों के मुकाबले ज्यादा उलझा हुआ है। यहां पूंजीवाद का कम विकास होने के चलते पुराने सामंती पितृसत्तात्मक संबंध तो ज्यादा मजबूत हैं ही, यहां वर्ग के साथ जाति, धर्म और राष्ट्रीयता के सवाल नारी मुक्ति के सवाल को ज्यादा जटिल बना देते हैं। यहां नारियों की स्थिति की विविधता को सवर्ण पूंजीपति वर्ग की शासक नारियों की दलित मजदूर नारियों से तुलना से समझा जा सकता है, खासकर मुसलमान दलित मजदूर नारियों से। इस विविधता और जटिलता का सीधा असर यहां की नारी मुक्ति की परियोजना पर पड़ता है।

पहले के शासक वर्ग की नारियों को लें। कहने की बात नहीं कि शासक वर्ग की होने के चलते इनकी स्थिति साधन सम्पन्न और विशेषाधिकार सम्पन्न है। ये स्वयं को शासक वर्ग का मानती हैं और मजदूर वर्ग की नारियों से कोई एकता महसूस नहीं करतीं। मजदूर नारियों की इन्हें तभी याद आती है जब इन्हें अपने हित में उनकी जरूरत पड़ती है। यहां तक कि नारी उत्पीड़न के स्पष्ट मामलों में भी ये अपने हितों को ध्यान में रखते हुए ही प्रतिक्रिया करती हैं। इस समय भाजपा की महिला सांसदों के मामले में इसे खास तौर पर देखा जा सकता है। यही बात सिनेमा, खेल या अन्य क्षेत्रों की नामी-गिरामी स्त्रियों पर भी लागू होती है जिनका आज के पूंजीवादी समाज में खासा प्रभाव है- सोशल मीडिया पर इनके लाखों नहीं बल्कि करोड़ों ‘फालोवर’ होते हैं।

इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में शासक वर्ग की महिलाओं की स्थिति उसके पुरुषों के बराबर हो गई है। वहां गैर बराबरी मौजूद है। बड़े कारपोरेट क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों से काफी पीछे हैं। राजनीति में भी (सांसद, विधायक, मंत्री) उनकी संख्या काफी कम है। सिनेमा, खेल, मॉडलिंग इत्यादि में उनकी आय पुरुषों से कम है। इन सभी जगहों पर एक संरचनागत भेदभाव अभी भी मौजूद है हालांकि इस वर्ग के सभी लोग स्त्री-पुरुष समानता की गुहार लगाते हैं। सीधा उत्पीड़न या भेदभाव इस वर्ग की महिलाओं को यदा-कदा ही झेलना पड़ता है पर पुरानी पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के अवशेष अभी भी भेदभाव का एक संरचनागत माहौल बनाते हैं।

सार्वजनिक जीवन या सामाजिक श्रम में बिना सार्थक भूमिका के सही मायने में नारी मुक्ति की ओर नहीं बढ़ा जा सकता। इस मापदंड पर देखें तो शासक वर्ग की नारियों का एक हिस्सा अभी भी इस ओर नहीं बढ़ा है। ये नारियां ‘घरेलू’ हैं और सामाजिक जीवन में इनकी भूमिका दान-दक्षिणा संस्थाओं तक सीमित है। वे ‘सोशलीट’ होने में अपनी सार्थकता ढूंढती हैं। इनके मुकाबले उन शासक वर्गीय नारियों की स्थिति बेहतर है जो किसी व्यवसाय में हैं। यदि व्यवसाय उनकी जिन्दगी का मुख्य लक्ष्य है तो वे इस मामले में पुरुषों की बराबरी कर लेती हैं भले ही उनकी आय सापेक्षतः कम हो।

शासक वर्गीय नारियों में भी जाति, धर्म और राष्ट्रीयता के विभाजन हैं और ये कभी-कभी उन्हें एक साथ आने से रोकते हैं। शासक वर्गीय पुरुष अपने अन्य हितों में इस विभाजन का इस्तेमाल भी करते हैं। संसद और विधान सभाओं में महिला आरक्षण के मामले में इसे देखा जा सकता है। यहां पुरुष बनाम स्त्री का मामला उतना नहीं है जितना राजनीति के अन्य समीकरण जो शासकों के बीच जातिगत विभाजन से जुड़ जाते हैं। शासकों के बीच जातिगत प्रतिद्वन्द्विता शासक वर्गीय नारियों के उत्थान के आड़े आ जाती है।

शासक वर्गीय नारियों की उस वर्ग के पुरुषों के मुकाबले गैर-बराबरी के बावजूद उनकी मजदूर वर्ग की नारियों से कोई एकता नहीं बनती। उनके बीच कोई ‘बहनापा’ नहीं होता। वहां होता है तो बस शोषण-उत्पीड़न का संबंध। कई मामलों में तो शासक वर्गीय महिलाओं का मजदूर वर्ग के प्रति रुख शासक वर्गीय पुरुषों से भी बुरा होता है। अपनी गैर-बराबरी के मसले पर वे ज्यादा से ज्यादा मजदूर नारियों का इस्तेमाल करने की ओर ही बढ़ सकती हैं।

अपने शास्त्रीय रूप में नारी सवाल उन मध्यम वर्गीय महिलाओं का सवाल है जो घरेलू जीवन में कैद हैं। कामकाजू मध्यम वर्गीय महिलाओं में नारी मुक्ति का सवाल दूसरे रूप में होता है जहां नारी मुक्ति किसी हद तक हासिल की जा चुकी होती है। यहां यह याद रखना होगा कि समूचे इतिहास में मजदूर-मेहनतकश महिलाओं की स्थिति उपरोक्त दोनों वर्गों से हमेशा ही एकदम अलग रही है और आज भी है। इसका सीधा सा कारण है कि वे सामाजिक श्रम से उस तरह कटी नहीं रहीं।

जैसा कि ऊपर कहा गया है, मध्यम वर्गीय महिलाओं में दो समूह हैं- घरेलू और कामकाजू। घरेलू महिलाओं की स्थिति काफी दिक्कततलब होती है (भारत में अभिजात मजदूरों की पत्नियां भी इसी श्रेणी में आती हैं- निम्न मध्यम वर्ग के हिस्से के तौर पर)। अक्सर ही जब नारीवादी नारी सवाल पर बात करते हैं तो प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर उनकी निगाह में यहीं औरतें होती हैं। सामाजिक रूप से कटी हुई चहारदीवारी में कैद इन मध्यम वर्गीय नारियों की स्थिति वास्तव में शोचनीय होती है- खासकर मानसिक-सांस्कृतिक तौर पर। सारे ‘सास-बहू सीरियल’ इन्हें ही लक्षित होते हैं। शासक वर्गीय ‘सोशलीट’ औरतों से भिन्न इनकी अपनी कोई आवाज नहीं होती। 1960-70 के दशक से नारीवाद ने ही इन्हें स्वर प्रदान किया। भारत में इसकी अनुगूंज 1980 व 90 के दशक में ही सुनाई दी।

शासक वर्ग की महिलाओं से मध्यम वर्गीय घरेलू महिलाओं की स्थिति इन मामलों में भी भिन्न है कि इन्हें सम्पत्ति में अधिकार नहीं होता। कानूनी तौर पर इन्हें सम्पत्ति में अधिकार हासिल है पर वास्तव में उन्हें सम्पत्ति नहीं मिलती। वे स्वयं भी पैतृक सम्पत्ति में अधिकार मांगने से हिचकती हैं क्योंकि ऐसा होने पर पैतृक परिवार से संबंध पूरी तरह समाप्त होने का खतरा होता है। इतना बड़ा खतरा वे नहीं उठाना चाहतीं क्योंकि पैतृक संबंध उनके लिए सहारे का काम करते हैं। ऐसे में ये महिलायें पूरी तरह पति की आय पर निर्भर हो जाती हैं। इसीलिए वे पति पर निर्भर होती हैं जिसका बदला वे पति पर हर तरह से शिकंजा कस कर लेने का प्रयास करती हैं।

मध्यम वर्ग की कामकाजू महिलाओं की स्थिति बेहतर है। सामाजिक श्रम में भागेदारी उन्हें आर्थिक तौर पर तो आत्मनिर्भर बनाती ही हैं, उन्हें वह सार्थकता भी प्रदान करती है जो मध्यम वर्गीय पुरुषों को हासिल होती है। आर्थिक आत्मनिर्भरता उन्हें काफी हद तक घर के भीतर पुरुष की गुलामी से मुक्त करती है। लेकिन सभी कामकाजू महिलाओं के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। कईयों की आय पुरुष की आय का पूरक मात्र होती है। पुरुष ही मुख्य कमाने वाला बना रहता है। वैसे भी सरकारी नौकरियों को छोड़कर हर जगह महिलाओं की तनख्वाह पुरुषों से काफी कम होती है। स्वरोजगार के मामले में भी उनका रोजगार ‘स्त्रियोचित’ और निम्न आय वाला होता है। नौकरियों में पहले से चली आ रही श्रम-विभाजन की छाया आज भी देखी जा सकती है- बहुत सारी नौकरियों में स्त्रियां या तो हैं नहीं या न के बराबर हैं, दूसरी ओर बहुत सारी नौकरियों में ज्यादातर स्त्रियां ही हैं। इस तरह श्रम-विभाजन और आय दोनों जगह गैर-बराबरी विद्यमान है जिसके कारण संरचनागत भी हैं और सांस्कृतिक भी। इसी के अनुरूप भेदभाव भी विद्यमान हैं।

कामकाजू मध्यम वर्गीय महिलाओं की एक मामले में घरेलू मध्यम वर्गीय महिलाओं से स्थिति खराब है। उन्हें बाहर के साथ घर के काम का दोहरा बोझ उठाना पड़ता है। अभी भी ज्यादातर मध्यम वर्गीय पुरुष घरेलू काम में न के बराबर ही हाथ बंटाते हैं। ऐसे में ‘मेड’ रख पाने की हैसियत वाली मध्यम वर्गीय औरतें ही इस बोझ से मुक्त हो सकती हैं। निम्न मध्यम वर्गीय औरतें यह नहीं कर सकतीं। पहली वाली औरतों के मामले में भी स्वयं खाना बनाने और बच्चा संभालने की पुराने जमाने से चली आ रही सोच उनके लिए समस्या पैदा करती है।

बच्चा और उसका पालन-पोषण इन महिलाओं के लिए भारी परेशानी का कारण बनता है। काम की जगह पर उचित प्रबंध का अभाव और नियोक्ताओं का बर्ताव अक्सर ही कामकाजू मध्यम वर्गीय महिला के लिए पिछड़ने का कारण बन जाता है। कुछ तो न चाहते हुए भी घरेलू जीवन में सिमट जाती हैं।

शासक वर्गीय महिलाओं से भिन्न इन कामकाजू महिलाओं को न केवल आर्थिक शोषण का शिकार होना पड़ता है बल्कि उन्हें यौन उत्पीड़न भी झेलना पड़ता है। मालिक और प्रबंधक उनका शिकार करने की ताक में रहते हैं। ‘मी टू’ आंदोलन इसी की अभिव्यक्ति है।

पर कुल मिलाकर मध्यम वर्गीय महिलाओं की स्थिति मजदूर महिलाओं से काफी भिन्न है। बहुत सारे मामले में वह बेहतर भी है। इसीलिए कोई भी मध्यम वर्गीय महिला मजदूर नहीं बनना चाहेगी। इसके उलट मजदूर महिलाएं मध्यम वर्गीय बनना चाहेंगी। इनमें वर्गीय स्थिति की भिन्नता प्रमुख है। जैसे आम तौर पर मध्यम वर्ग शासक पूंजीपति वर्ग के नजदीक जाना चाहता है और मजदूर वर्ग की पांतों में गिरने से भयभीत होता है, वैसे ही मध्यम वर्गीय महिलाएं भी चाहें वे घरेलू हों या कामकाजू।

आम तौर पर मध्यम वर्ग के शासक पूंजीपति वर्ग के विचारों के प्रभाव में होने के कारण मध्यम वर्गीय नारियां भी अपनी मुक्ति के सवाल पर शासक वर्गीय नारियों के प्रभाव में होती हैं। नारीवाद इनकी अपनी शास्त्रीय विचारधारा है जो पूरे पूंजीवादी समाज के ताने-बाने को निशाना बनाने के बदले पुरुषों को निशाना बनाती है, ज्यादा से ज्यादा पितृसत्तात्मक व्यवस्था’ को। वह इस ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था’ के वर्तमान पूंजीवाद के साथ संबंध को नहीं समझ पाती और घूम फिरकर पुरुष इसके निशाने पर आ जाते हैं।

भारत की मध्यम वर्गीय नारियां जाति, धर्म और राष्ट्रीयता के आधार पर बंटी हुई हैं और उनमें यह विभाजन शासक वर्गीय नारियों से ज्यादा तीखा है। शासक वर्गीय नारियों से ज्यादा दकियानूसी और धार्मिक पोंगापंथी होने के चलते यह विभाजन ज्यादा तीखा रूप ग्रहण कर लेता है। ऐसे में ‘व्यक्तिगत ही राजनीतिक है’ का नारा यहां और संकुचित हो जाता है। आज हिन्दू फासीवादियों द्वारा मध्यम वर्गीय महिलाओं की गोलबंदी में इस नारे की विद्रूपता को देखा जा सकता है।

पूंजीवाद की आम गति को तथा आज देश की शासक वर्गीय और मध्यम वर्गीय नारियों की स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि कुछ विशेष स्थितियों को छोड़कर (मसलन हिन्दू फासीवादियों के समाज में पूरी तरह हावी हो जाने की स्थिति) वे नारियां अपनी मुक्ति की ओर बढ़ती जायेंगी। इनका एक हिस्सा तो अभी ही पुरुषों की बराबरी करने लगा है।

लेकिन यही बात मजदूर नारियों के मामले में नहीं कही जा सकती। पूंजीवाद में उनकी मुक्ति के रास्ते में भारी बाधाएं हैं।

पूंजीवाद के पहले की मेहनतकश नारियों की तरह ही मजदूर नारियां भी सामाजिक श्रम या उत्पादक गतिविधियों से उस तरह नहीं कटी हुई हैं। ज्यादातर मजदूर नारियां सामाजिक श्रम में लगी हुई हैं। यह उन्हें जहां एक हद तक पुरुषों से आजादी और पुरुषों की तुलना में बराबरी प्रदान करता है वहीं वह उन्हें दूसरी तरह की समस्याओं में धकेलता भी है।

मजदूर नारियों का श्रम ज्यादातर निम्न गुणवत्ता वाला तथा कम मजदूरी वाला होता है। उनके काम की स्थितियां ज्यादा बुरी होती हैं। अक्सर ही समान काम के लिए भी उन्हें पुरुषों की दो-तिहाई या आधी मजदूरी मिलती है।

इसी के साथ उन्हें यौन उत्पीड़न का भयंकर सामना करना पड़ता है। मालिक से लेकर प्रबंधक, सुपरवाइजर सभी उनका शिकार करने की ताक में रहते हैं। इन्कार या प्रतिरोध करने पर उन्हें काम से हाथ धोने का खतरा होता है। साथ काम करने वाले पुरुष मजदूरों का व्यवहार भी अच्छा नहीं होता।

मजदूर नारियां उस तरह के पारिवारिक ढांचे में नहीं रहतीं जिस तरह मध्यमवर्गीय नारियां रहती हैं। इसलिए यहां परिवार की गुलामी भी उस तरह की नहीं होती। अक्सर ही मजदूर परिवारों के बच्चे भी किशोरावस्था से काम करना शुरू कर देते हैं। पर अभी भी घर का ज्यादातर काम नारियों के जिम्मे ही आता है। नन्हें बच्चों के पालन-पोषण का जिम्मा भी उन्हीं का होता है। इस मामले में अक्सर मजदूर पुरुषों का व्यवहार मध्यमवर्गीय पुरुषों से ज्यादा बुरा होता है।

इस तरह मजदूर महिलाओं की स्थिति दोहरी है। एक ओर वे सामाजिक श्रम में लगे होने के कारण अपेक्षाकृत आजाद होती हैं, दूसरी ओर वे घरेलू श्रम तथा पति के पुरुष प्रधानता वाले व्यवहार के बोझ से लदी होती हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर होने के चलते उन्हें अन्य तरह के उत्पीड़न, भेदभाव और अपमान का शिकार होना पड़ता है।

मजदूर महिलाएं घरेलू श्रम के बोझ से उतनी आसानी से मुक्त नहीं हो सकतीं जितनी आसानी से मध्यमवर्गीय महिलाएं हो सकती हैं यानी ‘मेड’ के जरिये। (यह याद रखना होगा कि ‘मेड’ भी महिला मजदूर ही होती हैं)। पूंजीपति वर्ग उन्हें इतनी मजदूरी नहीं देता कि वे यह कर सकें। घरेलू श्रम (जिसमें बच्चों का पालन-पोषण भी शामिल है) से मुक्ति यदि महिला मुक्ति की शर्त है तो मजदूर महिलाओं के लिए पूंजीवाद में यह काफी मुश्किल है। केवल बहुत ऊंचे स्तर के कल्याणकारी राज्य में ही इधर की ओर प्रगति हो सकती है। सार्वजनिक भोजनालय, सार्वजनिक कपड़ा धुलाई तथा सार्वजनिक बच्चा केन्द्र ही घरेलू श्रम से मुक्ति की ओर ले जा सकते हैं।

परिवार नाम की संस्था से मुक्ति भी महिला मुक्ति की शर्त है। घरेलू श्रम के साथ यह संस्था महिलाओं को एक खास दायरे में बांधती है और खास सांचे में ढालती है। बच्चों के मां-बाप द्वारा पालन-पोषण की एक पद्धति के जरिये यह अबोध शिशुओं को पहले लड़का-लड़की और फिर पुरुष-स्त्री के सांचे में ढालती है। जैसा कि कहा गया है स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है। इसी तरह पुरुष पैदा नहीं होते बल्कि बनाये जाते हैं। ऐसे में नारी मुक्ति के लिए जरूरी है कि न केवल बच्चे पैदा करने के मामले में स्त्री का पुरुष के बराबर अधिकार हो बल्कि बच्चों के पालन-पोषण के पूरे मामले को परिवार से बाहर कर सार्वजनिक दायरे में लाया जाये- लड़का-लड़की और स्त्री-पुरुष के बीच बराबरी की धारणा के तहत।

मजदूरों में परिवार नामक संस्था उस रूप में नहीं पाई जाती जैसे मध्यम वर्ग में। इसीलिए उसकी जकड़बंदी भी उतनी नहीं होती। लेकिन तब भी ज्यादातर भारतीय मजदूरों के मामले में यह नहीं कहा जा सकता उनके यहां परिवार नाम की संस्था खत्म हो गयी है। इसलिए मजदूर नारियों को इसका बोझ ढोना पड़ता है। बच्चा पैदा करने या न करने के मामले में मजदूर नारियां स्वतंत्र नहीं हैं। परिवार नियोजन के उपायों की आसान उपलब्धता न होने या फिर इस मामले में चेतना न होने के चलते मजदूर नारियों को अक्सर ही अनिच्छित गर्भ धारण का बोझ सहना पड़ता है। यह अनिच्छित बच्चे का बोझ या फिर कानूनी-गैरकानूनी गर्भपात के कठिन और कई बार स्वास्थ्य के लिए खतरनाक कदम की ओर ले जाता है।

भारत में सामंती अवशेषों की मौजूदगी के एक अंश के तौर पर संयुक्त परिवार के अवशेष भी हैं। इस संयुक्त परिवार का बोझ भी नारी के हिस्से में आता है और अक्सर ही परिवार में भारी तनाव को जन्म देता है। मजदूरों के परिवारों में भी किसी हद तक यह समस्या विद्यमान है और मजदूर नारियों को इसे झेलना पड़ता है। इस मामले में भी वे मध्यम वर्गीय नारियों की तरह पैसे के जरिये इससे नहीं निपट सकतीं।

अन्य वर्गों की नारियों की तरह मजदूर नारियों में भी जाति, धर्म और राष्ट्रीयता के विभाजन मौजूद हैं। इसी के साथ स्थानीय और बाहरी के विभाजन भी होते हैं। पूंजीपति इन विभाजनों को जान-बूझकर बढ़ावा देते हैं जिससे वे मजदूरों को एक होने से रोक सकें।

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि मजदूर नारियों की मुक्ति के लिए जरूरी है कि पुरुष प्रधानता के खिलाफ वैचारिक संघर्ष के साथ-साथ संरचनात्मक परिवर्तन किये जायें और ठोस भौतिक स्थितियां उपलब्ध कराई जायें। यह केवल ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे से नहीं हो सकता। उस वैचारिक और भौतिक जमीन को खत्म करने की जरूरत है जो बेटी की भ्रूण हत्या तक ले जाती है। ‘बेटी पढ़ाने’ के लिए सभी बच्चों को उच्च स्तर की मुफ्त शिक्षा व्यवस्था की जरूरत है। इसके बाद पढ़ी-लिखी महिला को बराबरी की तनख्वाह वाली नौकरी की उपलब्धता की जरूरत है। इस बात की जरूरत है कि गर्भवती होने पर उसे नौकरी से न निकाला जाये और वह जल्द से जल्द काम पर लौट सके। इसके लिए काम की जगह पर शिशुशाला की जरूरत है। घर लौटने पर बच्चे मां पर बोझ न बनें इसके लिए पड़ोस में सार्वजनिक बच्चा केन्द्र की जरूरत है। घर के पास सार्वजनिक भोजनालय और सार्वजनिक कपड़ा धुलाई केन्द्र की जरूरत है। बूढ़े मां-बाप की देख-रेख के लिए भी सार्वजनिक केन्द्र की जरूरत है। इसी के साथ सारे सार्वजनिक जीवन (राजनीति, इत्यादि) में नारी की उपस्थिति सुनिश्चित करने की जरूरत है (भले ही आरक्षण के जरिये)।

पूंजीवाद में, जो निजी सम्पत्ति और निजी पहलकदमी की व्यवस्था है, उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि पूंजीपति वर्ग इस ओर बढ़ेगा। वह इन सबको भी पूंजी के हवाले करेगा, मुनाफा कमाने के लिए। ऐसे में साधन सम्पन्न (पूंजीपति वर्ग और किसी हद तक मध्यम वर्ग) लोग ही पैसे के जरिये इन्हें हासिल कर सकते हैं। मजदूर वर्ग इन्हें हासिल नहीं कर सकता। वह तो इन्हें तभी हासिल कर सकता है जब वह पूंजीपति वर्ग को इसके लिए मजबूर कर दे। पूंजीवाद का इतिहास यह दिखाता है कि यह केवल तात्कालिक तौर पर ही हो सकता है।

अमूर्त तौर पर बात की जाये तो पूंजीवाद में कुछ नारियां पूरी मुक्ति की ओर तथा बाकी किसी हद तक मुक्ति की ओर बढ़ सकती हैं। पर पूंजीवाद की कुछ गतियां ऐसी हैं जो इसकी विपरीत दिशा की ओर कार्यरत होती हैं। इनमें से दो प्रमुख हैं- श्रम शक्ति की रिजर्व सेना (बेरोजगारी) तथा स्वयं श्रम का चरित्र। ये दोनों मिलकर घरेलू और बाहरी वेश्यावृत्ति को जन्म देती हैं।

बेरोजगारी पूंजीवाद की अहं विशेषता है। यदा-कदा ही होता है जब बेरोजगारी शून्य की ओर बढ़ती है, वह भी अत्यन्त थोड़े समय के लिए। ऐसे में जिन्दा रहने की जद््दोजहद मजदूर औरतों की एक कम या ज्यादा संख्या को वेश्यावृत्ति की ओर धकेलती है। ये औरतें नारी गुलामी की अति कटु स्थितियों को जीती हैं। मजदूर औरतों की यह वेश्यावृत्ति उस वेश्यावृत्ति से भिन्न है जो उपभोक्तावादी जीवन की ललक में पूंजीवाद में होती है- ‘काल गर्ल’, विज्ञापन, मॉडलिंग, इत्यादि- हालांकि वह भी नारियों की पुरुष प्रधान समाज में खास स्थिति से ही पैदा होती है। पूंजीवाद में श्रम अपने आप में ही ऐसा होता है (अतीव श्रम विभाजन, अन्य का नियंत्रण, कार्यस्थल की खराब परिस्थितियां, इत्यादि के कारण) जो श्रमिक के ऊपर बोझ होता है। ऐसे में अच्छी तनख्वाह या मजदूरी ही इस बोझ को सहने लायक बनाती है। ऐसा न होने पर या अन्य विकल्प होने पर इस तरह के श्रम से पलायन की प्रवृत्ति होती है। नारियों को यह काम छोड़कर घरेलू महिला बन जाने की ओर उद्यत करती है जो एक मायने में घरेलू वेश्यावृत्ति की स्थिति होती है। पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था के अवशेषों के बीच पली-बढ़ी स्त्री की परंपरागत सोच इसमें उत्प्रेरक का काम करती है। इसका उलटा भी होता है। काम की ये विषम स्थितियां घरेलू महिलाओं को बाहर निकल कर सामाजिक श्रम में शामिल होने से रोकती हैं।

यहीं से नारी मुक्ति का सवाल पूंजीवाद के खात्मे के सवाल से जुड़ जाता है। अमूर्त तौर पर भले ही पूंजीवाद में नारी मुक्ति संभव हो पर वास्तव में पूंजीवाद की गतियां इसके रास्ते में बाधा बनती हैं। पूंजीवाद में केवल धीमे-धीमे और भीषण संघर्ष से ही नारियां अपनी मुक्ति की ओर आगे बढ़ती हैं। लेकिन यह मुक्ति भी बस इतने तक ले जाती है कि नारियां भी पुरुषों की तरह ही और उनके बराबर ही (न कम न ज्यादा) पूंजी द्वारा शोषित हों, पूंजी की गुलाम हों। पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था की गुलामी के साथ पूंजी की गुलामी से भी मुक्ति के लिए जरूरी है कि स्वयं पूंजी की व्यवस्था यानी पूंजीवाद को ही समाप्त कर दिया जाये।

इस बात को जोर देकर कहने की जरूरत है कि पूंजीवाद में नारी मुक्ति के सवाल का मतलब है नारी के नारी होने के चलते उसकी पुरुषों के मुकाबले गैर-बराबरी, भेद-भाव और उसके शोषण-उत्पीड़न का खात्मा। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पूंजीवाद में एक व्यक्ति के चलते उसकी गैर-बराबरी, भेद-भाव या शोषण-उत्पीड़न का खात्मा हो जायेगा। (बशर्ते वह शासक वर्ग की व्यक्ति न हो और वह भी शीर्ष पर)। न ही वह पूंजी की भांति-भांति की गुलामी से मुक्त हो जायेगी। चूंकि पूंजीवाद अपने आप में गैर-बराबरी, भेद-भाव और शोषण-उत्पीड़न वाली व्यवस्था है इसलिए लिंग (या जाति-धर्म या नस्ल) के आधार पर इनके खत्म हो जाने के बावजूद वे दूसरे यानी आर्थिक आधार पर बने रहेंगे और पूंजीवादी समाज में ये ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

इस पर जोर देने की इसलिए आवश्यकता है कि नारी मुक्ति आंदोलन में शामिल कुछ लोग खासकर नारीवादी यह सोचते हैं कि नारियां पूंजीवाद में अपनी संपूर्ण मुक्ति हासिल कर सकती हैं। उनके लिए नारी मुक्ति का मतलब उस व्यापक अर्थ में मुक्ति है जिस अर्थ में निजी सम्पत्ति पैदा होने के बाद से ही इतिहास में बात होती रही है। आज हम जानते हैं कि इस व्यापक अर्थ में मुक्ति निजी सम्पत्ति की व्यवस्था के खात्मे और वर्ग विहीन, राज्य विहीन समाज के निर्माण से ही हो सकती है। पूंजीवाद तो किन्हीं मामलों में पहले की व्यवस्थाओं से भी ज्यादा अमानवीय व्यवस्था है जिसमें पैसा या पूंजी ही सब कुछ है। इसमें सबसे सफल इंसान भी उतना ही पूंजी का गुलाम है जितना सबसे असफल। ऐसे में इस व्यवस्था में पुरुषों की बराबरी कर लेने मात्र से ही नारियों की व्यापक अर्थ में मुक्ति नहीं हो जायेगी क्योंकि इसमें पुरुष स्वयं पूंजी के गुलाम हैं।

ऐसे में व्यापक या सही अर्थों में मुक्ति के लिए नारियों को भी पुरुषों की तरह ही स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे की लड़ाई में उतरना पड़ेगा। लेकिन इस लड़ाई में सारे स्त्री-पुरुष नहीं उतरेंगे। इतिहास के हवाले से यह बात स्थापित है कि यह मजदूर वर्ग का काम है, उसका ऐतिहासिक मिशन है। आज नारी मुक्ति का सवाल व्यापक मानव मुक्ति के सवाल के साथ जुड़ा हुआ है इस अर्थ में कि पूंजीवाद के खात्मे के साथ ही यह सीमित अर्थ में हासिल हो सकती है और व्यापक अर्थ में नये वर्ग विहीन, राज्य विहीन समाज में ही। मजदूर वर्ग बाकी वर्गों को मुक्त करते हुए अंत में जब स्वयं को मुक्त करेगा तब पाया जायेगा कि अन्य तरह की मुक्तियां भी रास्ते में हासिल की जा चुकी हैं। इस सफर में मजदूर नारियां भी मजदूर वर्ग के हिस्से के तौर पर मजदूर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़़ रही होंगी। वे अपनी सीमित मुक्ति के साथ-साथ व्यापक मुक्ति के लिए भी - मानव मुक्ति के लिए - लड़ रही होंगी।

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