पश्चिमी एशिया में अमरीकी साम्राज्यवादियों का कमजोर होता प्रभाव

काफी लम्बे समय से पश्चिम एशिया के देशों पर अमरीकी साम्राज्यवादियों का दबदबा रहा है। 2021 में अफगानिस्तान से बेआबरू होकर अपनी सेनाओं को वापस बुलाने के बाद पश्चिम एशिया में अमरीकी साम्राज्यवादियों का प्रभाव क्रमशः घटता गया है। अपने घटते प्रभाव को रोकने के लिए अमरीकी साम्राज्यवादियों ने हाल के महीनों में अपनी कोशिशें तेज कर दी हैं। अभी मार्च की शुरूवात में अमरीकी रक्षा सचिव लियोड आस्टिन ने इराक, जार्डन, सीरिया, इजरायल और मिश्र की यात्रा की। आस्टिन ने इराक की यात्रा अमरीका द्वारा इराक पर कब्जे की बीसवीं सालगिरह के अवसर पर की। इसके ठीक पहले अमरीका के संयुक्त सेना के प्रमुख मार्क मिले ने भी इन देशों की अघोषित यात्रा की थी।

यह ज्ञात हो कि सीरिया में एक तिहाई हिस्से पर अमरीकी साम्राज्यवादी कब्जा किये हुए हैं। दक्षिण पूर्व सीरिया के तेल व गैस भण्डारों पर कब्जा करके वह उनकी चोरी कर रहे हैं। एक तरफ अमरीकी साम्राज्यवादी रूस द्वारा यूक्रेन के हिस्सों पर कब्जा करने का विरोध यह कह कर रहे हैं कि उसने यूक्रेन की सम्प्रुभता और क्षेत्रीय अखंडता का उल्लंघन किया है और दूसरी तरफ वह सीरिया के एक तिहाई क्षेत्र पर कब्जा किए हुए है। अमरीकी साम्राज्यवादी सीरिया में अपने लगभग 900 फौजी तैनात किये हुए हैं। इन फौजियों के अतिरिक्त, निजी ठेकेदारों की सैन्य टुकड़ियां हैं। इसके पहले मार्क मिले ने सीरिया की गैर-कानूनी यात्रा की थी। इस यात्रा के लिए उसने सीरिया सरकार से अनुमति नहीं ली थी। तुर्की ने भी सीरिया में मार्क मिले की यात्रा का विरोध किया है। सीरिया में तुर्की जिन कुर्द विद्रोहियों के विरुद्ध लड़ रहा है, अमरीकी साम्राज्यवादी उन कुर्द विद्रोहियों का समर्थन कर रहे हैं। मार्क मिले यह कहकर सीरिया में अपनी फौज तैनात किए हुए हैं कि वे आई एस आई एस आतंकवादियों का सफाया कर रही हैं। जबकि हकीकत यह है कि आई एस आई एस के आतंकवादी अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा प्रशिक्षित किये गये हैं और किये जा रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा उन्हें धन और हथियार मुहैय्या कराये जाते हैं। ये आतंकवादी अमरीकी साम्राज्यवादियों की नाजायज संतानें हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी इनका इस्तेमाल बशर अल असद की सरकार के विरुद्ध करते हैं। इन्हीं आतंकवादियों का रूस के विरुद्ध यूक्रेन में इस्तेमाल किया जा रहा है। मार्क मिले की यात्रा के तत्काल बाद इजरायल ने सीरिया के अलेप्पो हवाई अड्डे पर मिसाइल से हमला करके उसे अनुपयोगी कर दिया। इसी हवाई अड्डे से अंतर्राष्ट्रीय राहत सामग्री भूकम्प पीड़ितों तक पहुंच रही थी। एक तरफ तो सीरिया में भूकम्प से जान-माल का भारी नुकसान हुआ, दूसरी तरफ अमरीकी साम्राज्यवादी सीरिया पर प्रतिबंध लगाए हुए हैं और वे इजरायल के जरिये लगातार सीरिया पर हमला कर रहे हैं।

अमरीकी साम्राज्यवादी सीरिया में तख्तापलट कराने में नाकाम होने के बाद, सीरिया को तबाह-बर्बाद करने में तुले हुए हैं। सीरिया का साथ ईरान दे रहा है। रूस की फौजों ने अमरीकी साम्राज्यवादियों की तख्तापलट कराने की योजना को असफल कर दिया है। इसके बावजूद वे अभी भी अपनी फौजों और आतंकवादियों व इजरायल की मदद से सीरिया में गड़बड़ी फैला रहे हैं।

इसी तरह, अमरीकी साम्राज्यवादी इराक में अभी भी 2500 की तादाद में अपनी फौज तैनात किए हुए हैं। आस्टिन इराक में 8 वर्ष तक अमरीकी सेना के सर्वोच्च कमाण्डर थे। 2011 में इराक से अमरीकी फौजें वापस होने की घोषणा की गयी थी। 2014 में फिर से अमरीकी फौजें तैनात कर दी गयीं। वे अभी भी वहां से हटने को तैयार नहीं हैं। एक समय संसद ने विदेशी फौजों को इराक छोड़ने का प्रस्ताव पारित किया था। लेकिन अभी तक की किसी भी इराकी सरकार ने अमरीकी फौजों को देश से बाहर नहीं किया। अभी भी आस्टिन ने यही घोषणा की कि उनकी फौज इराक को छोड़कर जाने वाली नहीं है। इराकी सरकार एक तरफ अमरीकी साम्राज्यवादियों की फौजों को अपने यहां से बाहर करने से कतरा रही हैं तो दूसरी तरफ वह ईरान के साथ अपने रिश्ते अच्छे रखना चाहती है।

अमरीकी साम्राज्यवादी पश्चिम एशिया में लगभग 3400 सैनिक तैनात किये हुए हैं। इसके अतिरिक्त नौसैनिक बेड़ा और हवाई जहाज इस क्षेत्र में तैनात हैं। पिछले 20 से अधिक वर्षों तक अमरीकी साम्राज्यवादियों का यह प्रभाव क्षेत्र रहा है। इसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर ईरान रहा है, जिस पर प्रतिबंधों के जरिए अमरीकी साम्राज्यवादियों ने उसे तबाह-बर्बाद करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। इसके बावजूद ईरान अमरीकी साम्राज्यवादियों के सामने बिना घुटना टेके खड़ा रहा है।

आस्टिन ने पश्चिम एशिया के दौरे पर आते समय इस बात की डींग हांकी थी कि अमरीकी सेना दुनिया में सबसे समर्थ लड़ने वाली सेना है जो आसानी से दुनिया के किसी भी कोने में पहुंच कर मार कर सकती है। अमरीकी साम्राज्यवादी इस बात से आशंकित हैं कि रूस-यूक्रेन युद्ध और ताइवान व दक्षिण चीन सागर में क्रमशः रूस और चीन में उसके उलझे रहने से कहीं पश्चिम एशिया में उसे पीछे न हटना पड़ जाये, इसलिए वे अपनी सैन्य शक्ति का ढिंढोरा पीट रहे हैं।

इस समय पश्चिम एशिया की सबसे बड़ी घटना साऊदी अरब और ईरान के बीच होने वाला समझौता है। यह समझौता चीन की मध्यस्थता में सम्पन्न हुआ है। यह सर्वविदित है कि साऊदी अरब लम्बे अरसे से अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए इस इलाके में स्तम्भ रहा है। साऊदी अरब के शासक अमरीकी साम्राज्यवादियों के सबसे बड़े हथियारों के खरीददार रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ, अमरीकी साम्राज्यवादी ईरान को शैतान राज्य का दर्जा दिये हुए थे। वे हर तरह से ईरान की सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। अभी तक साऊदी अरब और ईरान एक-दूसरे के विरुद्ध रहे हैं। वे इस क्षेत्र के सबसे ताकतवर देश हैं। दुनिया में सबसे अधिक तेल भण्डार वाला देश साऊदी अरब है। समूचे पश्चिमी एशिया में ये दोनों देश एक-दूसरे के विरुद्ध ताकतों की मदद करते रहे हैं। यदि सीरिया में ईरान बशर अल-असद की हुकूमत की मदद करता रहा है तो साऊदी अरब विरोधी गुटों की मदद करता रहा है। लेबनान में ईरान हिजबुल्ला की मदद करता है तो साऊदी अरब दूसरे गुटों की। यमन में ईरान हौथी विद्रोहियों की मदद कर रहा था तो साऊदी अरब हौथी विद्रोहियों को समाप्त करने की लड़ाई कई वर्षों से लड़ रहा था। कतर ने जब ईरान के साथ अपने सम्बन्ध बेहतर करना शुरू किये तो साऊदी अरब और अन्य शेखशाहियों ने उसकी नाकेबंदी कर दी। अब इन दो ताकतवर क्षेत्रीय शक्तियों के बीच समझौता हो जाने से इस क्षेत्र में टकराव के कम होने की संभावनायें बढ़ गयी हैं। सबसे बड़ी बात तो यह हुई है कि यह समझौता चीन की मध्यस्थता में हुआ है। यही बात अमरीकी साम्राज्यवादियों को सबसे अधिक खलने वाली है। साऊदी अरब लम्बे समय से अमरीकी साम्राज्यवादियों का सहयोगी रहा है। इधर कुछ एक साल से साऊदी अरब अमरीकी साम्राज्यवादियों से स्वतंत्र अपनी विदेश नीति अपनाने की ओर गया है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान उसने रूस के साथ अपने सम्बन्ध नहीं तोड़े। बाइडेन ने साऊदी अरब जाकर उससे तेल के उत्पादन को बढ़ाने की बात की। इस पर जोर दिया। लेकिन साऊदी अरब ने उसके प्रस्ताव को नहीं माना। अब साऊदी अरब ने चीन को मध्यस्थता के लिए स्वीकार करके अमरीकी साम्राज्यवादियों को एक झटका और दे दिया है। अमरीकी साम्राज्यवादी दुनिया भर में चीन को अपना दुश्मन घोषित करते रहे हैं। वे चीन के विरुद्ध व्यापार युद्ध में लगे रहे हैं। उसी चीन की मध्यस्थता में साऊदी अरब ने ईरान के साथ समझौता करके अमरीकी साम्राज्यवादियों के इस क्षेत्र में दबदबे को चोट पहुंचाने का काम किया है।

यह समझौता बीजिंग में 10 मार्च को हुआ। इस समझौते के तहत आपसी सम्बन्धों को सामान्य बनाने की बात की गयी। अपने-अपने दूतावासों को दूसरे के यहां दो महीने के अंदर खोलने का संकल्प लिया गया। 2001 में हुए सुरक्षा, व्यापार और निवेश के सहयोग को पुनर्बहाल करने पर जोर दिया गया।

यदि यह समझौता कायम रहता है और यमन में साऊदी अरब हौथी के विरुद्ध सैन्य अभियान को रोक देता है तो ईरान और साऊदी अरब के बीच अप्रत्यक्ष संघर्ष का यह बिन्दु समाप्त हो सकता है। साऊदी अरब, अमरीकी साम्राज्यवादियों की मदद से यमन में कहर बरपा करता रहा है।

अमरीकी साम्राज्यवादियों को किनारे लगाकर यह समझौता चीन की मध्यस्थता में होने से चीनी साम्राज्यवादियों की बढ़ती हुई ताकत और प्रभाव का पता चलता है। अमरीकी साम्राज्यवादी दशकों से इस क्षेत्र में सैनिक और राजनीतिक प्रभुत्व बनाये हुए थे, लेकिन वे ऐसे किसी बड़े समझौते को अंजाम देने में असफल रहे। इस समय चीन इस क्षेत्र का एक बड़ा मध्यस्थ बन कर उभरा है। साऊदी अरब का चीन की मध्यस्थता स्वीकार करना अमरीकी साम्राज्यवादियों के मुंह पर तमाचा है।

अब पश्चिमी एशिया का क्षेत्र अकेले अमरीकी साम्राज्यवादियों के प्रभाव का क्षेत्र नहीं रह गया है। अब पश्चिमी एशिया में चीनी साम्राज्यवादियों का भी प्रभाव बढ़ रहा है। इस क्षेत्र की दो बड़ी शक्तियों के कूटनीतिक सम्बन्ध बहाल हो जाने के बाद अन्य विवादों के निपटारे का रास्ता खुल जाता है। इसके साथ ही इस क्षेत्र में अमरीकी और चीनी साम्राज्यवादियों के बीच प्रतिस्पर्धा और टकराहटों की भी संभावनायें बढ़ जाती हैं। अभी तक ईरान को लगातार अमरीकी साम्राज्यवादी धमकी देते रहे हैं। वे ईरान के भीतर उपजे असंतोष का फायदा उठाकर हुकूमत परिवर्तन की भी साजिश करते रहे हैं। वे इजरायल के जरिए ईरान और सीरिया पर हमले कराते रहे हैं। ईरान के विरुद्ध व्यापक आर्थिक प्रतिबंधों के जरिए उसकी अर्थव्यवस्था और वहां के लोगों के जीवन को नारकीय बना रहे हैं। लेकिन ईरान ने चीन और रूस के साथ अपने सम्बन्धों को मजबूत बनाया है। चीन की बेल्ट और रोड इनीशिएटिव के जरिये वहां चीन अपने आर्थिक डैने तेजी से फैला रहा है। इसके अतिरिक्त शंघाई सहकार संगठन में ईरान और साऊदी अरब शामिल होना चाहते हैं। ईरान मध्य एशियाई देशों के साथ अपने रिश्तों को मजबूत कर रहा है। ऐसी स्थिति में अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा ईरान पर सैनिक आक्रमण करने के नतीजे उनके लिए कोई अच्छे नहीं होने वाले हैं। इसलिए भी, अमरीकी साम्राज्यवादी इजरायल को ईरान पर आक्रमण करने के लिए उकसाते हैं। अब यदि साऊदी अरब और ईरान के रिश्ते अच्छे होते हैं और ये अपनी क्षेत्रीय प्रतिद्वन्द्विता और टकराव को एक-दूसरे के साथ सहयोग करने की ओर ले जाते हैं तो इसका प्रभाव समूचे पश्चिम एशिया के देशों पर सकारात्मक पड़ेगा। अमरीकी साम्राज्यवादी ईरान की हुकूमत को पड़ोसी देशों के साथ अलग-थलग करने की जो योजना बनाते रहे हैं, वह अब खटाई में पड़ सकती है। भविष्य में ऐसा भी हो सकता है कि अमरीकी साम्राज्यवादी और इजरायल इस क्षेत्र में अलगाव में पड़ जाये।

लेकिन अभी यह परिस्थिति नहीं है। साऊदी अरब के शासक अभी भी हथियारों और आर्थिक मामलों में अमरीकी साम्राज्यवादियों पर ज्यादा निर्भर हैं। इन शासकों ने अपने सीमित विकल्प को और विस्तृत किया है। ये अब अमरीकी और ब्रिटिश धुन पर नाचने वाले शासक नहीं हैं। ये विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ अपने सम्बन्धों को बनाने और बढ़ाने में लगे हैं। ये पड़ोसी देशों के शासकों के साथ अपने स्वतंत्र रिश्तों को कायम करते हैं और बिगाड़ते हैं।

यही हाल ईरान और अन्य शासकों का है। अब इस समझौते के कारण अमरीकी साम्राज्यवादियों का इस क्षेत्र में एक सशक्त प्रतिद्वन्द्वी चीन खड़ा हो गया है। चीन के शासक अभी आर्थिक सम्बन्धों के जरिए दुनिया भर में अपना प्रभाव विस्तार कर रहे हैं जबकि अमरीकी साम्राज्यवादी आर्थिक सम्बन्धों को राजनीतिक और सैन्य ताकत के जरिए स्थापित करते हैं। जैसे-जैसे अमरीकी साम्राज्यवादी आर्थिक तौर पर पहले से कमजोर होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे वे अधिकाधिक सैन्य धमकी और राजनीतिक हस्तक्षेप का सहारा लेना बढ़ा रहे हैं। वे क्षेत्रीय विवादों को भड़का कर स्थानीय ताकतों को आपस में लड़ाकर अपने हस्तक्षेप की जमीन तैयार करते हैं। वे दुनिया भर में छाया युद्धों के जरिए अपने प्रभुत्व को बनाये रखने की कोशिश करते हैं।

पश्चिम एशिया में इन दो ताकतवर देशों- साऊदी अरब और ईरान के बीच हुए समझौते से अमरीकी साम्राज्यवाद की प्रतिष्ठा और स्वीकार्यता को धक्का लगा है। चीनी साम्राज्यवादियों की स्वीकार्यता बढ़ी है।

लेकिन इसका यह अर्थ निकालना बिल्कुल गलत होगा, कि इससे अमरीकी साम्राज्यवादी इस क्षेत्र से बाहर हो गये हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों का इस क्षेत्र के शासकों में अभी भी मजबूत प्रभाव है। वे उसी लुटेरे वर्ग से आते हैं जिनसे दुनिया भर के शासक आते हैं। ये सभी लूट की दुनिया को कायम रखना चाहते हैं। इन सभी की लूट के माल के बंटवारे की लड़ाई है। इसलिए अमरीकी साम्राज्यवादी और इस क्षेत्र के लुटेरे शासकों के बीच लुटेरों की एकता है। ये सभी मजदूर-मेहनतकश अवाम के खून की प्यासी ताकतें हैं।

मजदूर-मेहनतकश अवाम इन रक्तपिपासु ताकतों के बीच की टकराहटों और अंतरविरोधों को जितना ठीक तरीके से समझेंगे उतना ही इनके विरुद्ध अपने युद्ध के संचालन में मदद मिलेगी। इनकी टकराहटों और अंतरविरोधों की सही समझ के आधार पर इनकी वस्तुगत ताकत का पता चलेगा और इनके बीच के आपसी अंतर्विरोधों को इस्तेमाल करने की परिस्थिति में कारगर भूमिका निभायी जा सकेगी।

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

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