दक्षिण अफ्रीका : अवैध खनन रोकने के नाम पर 100 से ज्यादा खनिकों की मौत

/south-africa-avaidha-khanan-rokane-ke-naam-par-100-se-jyaadaa-miners-ki

दक्षिण अफ्रीका की सोने की खान से इन दिनों खनिकों की लाशें निकल रही हैं। 10 जनवरी से शुरू हुए बचाव अभियान में अब तक दर्जनों लाशें निकाली जा चुकी हैं। यह अभियान कुछ संगठनों की मदद से शुरू किया गया। बाद में चारों तरफ आलोचना होने पर शासन-प्रशासन ने 13 जनवरी से बचाव अभियान शुरू किया। जो मजदूर जिंदा निकाले गये हैं उन्हें अवैध खनन के आरोप में गिरफ्तार किया जा रहा है।
    
जोहांसबर्ग से 150 किलोमीटर दूर दक्षिण पच्छिम में स्थित स्टिलफोंटेन खान में महीनों से सैकड़ों मजदूर फंसे हैं। माइनिंग अफेक्टेड कम्युनिटीज यूनाइटेड इन एक्शन द्वारा भेजे गये वीडियो में खान के अंदर मजदूरों की लाशें दिखाई दे रही हैं। साथ ही भूख की वजह से नरकंकाल बन चुके खनिक हैं। ये मजदूर बचाये जाने की गुहार लगा रहे हैं।
    
दरअसल मामला यूं है कि दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने अवैध खनन को रोकने के लिए उमगोड़ी अर्थात छेद बंद करो अभियान चलाया हुआ है। जब खनन कम्पनी व्यवसायिक रूप से किसी खान में खनन बंद कर देती है तो वह खान को यूं ही छोड़ देती है। इसके बाद उन खानों से लोग सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से खनन कर खनिज (सोना, चांदी आदि) निकालने का काम करते हैं और बाजार में बेच देते हैं। दक्षिण अफ्रीका की सरकार इसी अवैध खनन पर रोक लगाना चाहती है। 
    
लेकिन इसके लिए दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने जो तरीका अपनाया हुआ है वह बेहद अमानवीय है। अवैध कही जाने वाली खानों में काम कर रहे मजदूरों की रसद की आपूर्ति बंद करने के साथ ही पुलिस इन खानों से मजदूरों के निकलने वाली रस्सियां भी हटा देती है ताकि ये मजदूर मजबूर होकर बाहर निकल आएं। ऐसा ही अगस्त 24 में स्टिलफोंटेन की खान में किया गया। वहां उस समय करीब 4000 मजदूर काम कर रहे थे। ये खान के अलग-अलग हिस्सों में समूह में काम रहे थे।
    
इन मजदूरों में अधिकांश मजदूर दक्षिण अफ्रीका के आस-पास के अन्य देशों से आये प्रवासी मजदूर हैं जो दो वक्त की रोटी की खातिर अपनी जान दांव पर लगाए हुए थे। इनके पास खान से निकलने के रास्ते के रूप में दूसरा रास्ता छोड़ा गया जो बेहद कठिन था। साथ ही इन मजदूरों को बाहर निकलने पर अवैध खनन करने और गैर कानूनी रूप से दक्षिण अफ्रीका में घुसने के आरोप में गिरफ्तार करने की धमकी दी गयी। अब अंदर मजदूर भूख-प्यास से तड़पने लगे लेकिन सरकार के मंत्रियों ने उन तक कोई सहायता नहीं पहुंचने दी। उन्होंने कहा कि खनन के काम में लगे ये लोग अपराधी हैं। और वे अपराधियों की कोई मदद नहीं करेंगे।
    
बाद में कुछ समूहों ने कोर्ट के जरिये इन मजदूरों तक सहायता पहुंचाने की अनुमति प्राप्त कर ली। दिसंबर से कुछ खाना-पानी मजदूरों तक पहुंचाया जाने लगा लेकिन ये नाकाफी था और तब तक मजदूरों की स्थिति काफी खराब हो चुकी थी। उन्हें सख्त इलाज की जरूरत थी। सरकार के अमानवीय व्यवहार ने धीरे-धीरे मजदूरों की जान लेनी शुरू कर दी। बाद में जब एक वीडियो के जरिये खान के अंदर प्लास्टिक में बंधी लाशों और नरकंकाल बन चुके मजदूरों की स्थिति उजागर हुई तो सरकार की चारों तरफ आलोचना होने लगी और मजबूर होकर बचाव अभियान में शामिल होना पड़ा। लेकिन तब तक 100 से ज्यादा मजदूर मौत के मुंह में समा चुके थे।
    
इस घटना ने 2012 में लोनामिन की प्लेटिनम की खान में मजदूरों के हुए नरसंहार की याद दिला दी जब हड़ताली मजदूरों को चारों तरफ से घेरकर उन पर गोलियां चलाई गयीं और 38 मजदूरों को मौत के घाट उतार दिया गया था। खान मजदूरों की ये मौतें सामान्य नहीं हैं बल्कि सरकार द्वारा जान बूझकर की गयी हत्यायें हैं। 
    
दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने अवैध खनन को रोकने के नाम पर जिन मजदूरों की जान ले ली क्या वे वास्तव में इस अवैध खनन के लिए जिम्मेदार हैं। क्या जिन खान मालिकों ने खनन करने के बाद इन खानों को बिना भरे छोड़ दिया वे इस अवैध खनन के लिए जिम्मेदार नहीं हैं? क्या इस अवैध खनन से मोटी कमाई करने वाले माफिया इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं? क्या सरकारें इस अवैध खनन में काम करने वाले मजदूरों को धकेलने के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। यदि इन मजदूरों को सम्मानजनक रोजगार मिल रहा होता तो ये अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए इन मौत के कुओं में न उतरते जहां मौत किसी भी वक्त उनको अपने शिकंजे में कसने के लिए तैयार रहती है।

आलेख

/ceasefire-kaisa-kisake-beech-aur-kab-tak

भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

/terrosim-ki-raajniti-aur-rajniti-ka-terror

आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

/modi-government-fake-war-aur-ceasefire

युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

/fasism-ke-against-yuddha-ke-vijay-ke-80-years-aur-fasism-ubhaar

हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

/jamiya-jnu-se-harward-tak

अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।