ठगों और लुटेरों का लूटपाट वाला राष्ट्रवाद

अडाणी-मोदी प्रकरण से संघ के हिन्दू फासीवादियों का राष्ट्रवाद एक बार फिर उफान पर आ गया। उन्होंने बिना लाग-लपेट घोषित कर दिया कि अडाणी समूह पर हमला भारत पर हमला है। वह उभरते भारत को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय साजिश है। राष्ट्रवादी इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। स्वयं अडाणी समूह ने भी अपने काले कारनामों को ढंकने के लिए राष्ट्रवाद का सहारा लिया और इस तरह एक बार फिर साबित किया कि ‘देशभक्ति बदमाशों की अंतिम शरणस्थली है’।

संघ के हिन्दू फासीवादियों के विपरीत कांग्रेस पार्टी और अन्य विपक्षी दलों ने जताने की कोशिश की कि अडाणी समूह के काले कारनामों को उजागर करना भारत या उसकी अर्थव्यवस्था पर हमला नहीं है। कि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत है। कि संघी राष्ट्रवाद की शरण इसलिए ले रहे हैं कि वे अडाणी-मोदी के रिश्तों को छिपाना चाहते हैं।

जैसा कि आजकल अक्सर होता है। हिन्दू फासीवादी और उनके विरोधी दोनों सही हैं। दोनों सही बात कर रहे हैं और दोनों मिलकर आज स्वयं ही अपनी व्यवस्था का भंडाफोड कर रहे हैं।

अडाणी-मोदी के रिश्ते देश-दुनिया में कोई रहस्य की चीज नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी अडाणी के ही जहाज से सारे देश में चुनाव प्रचार करने जाते थे। अंत में जब वे प्रधानमंत्री बनने दिल्ली आये तो अडाणी के ही जहाज में। मोदी ने न केवल देश में बंदरगाह, हवाई अड्डे, कोयला खदानें इत्यादि अडाणी की झोली में डाले बल्कि विदेशों में भी उन्हें सौदे दिलाने में व्यक्तिगत भूमिका निभाई। यह सब कुछ कोई ‘ओपेन सीक्रेट’ नहीं था क्योंकि इसमें कुछ भी गुप्त नहीं था। अभी हाल तक दोनों ने इसे गुप्त रखने का प्रयास भी नहीं किया था।

इसमें भी कोई दो राय नहीं कि भारत में विपक्षी दलों द्वारा अडाणी पर हमला असल में मोदी पर हमला था। निशाना अडाणी नहीं बल्कि मोदी थे। अपनी बारी में संघियों द्वारा इसे राष्ट्रवाद की ढाल से रोकने की कोशिश असल में मोदी को बचाने की कोशिश थी। वैसे भी संघी एक लम्बे समय से मोदी और मोदी सरकार पर हमले को देश पर हमला घोषित कर बचने की कोशिश करते रहे हैं। यह ‘इंदिरा इज इंडिया एण्ड इंडिया इज इंदिरा’ का संघी संस्करण है। मोदी और संघियों ने इंदिरा गांधी से अच्छी राजनीतिक शिक्षा ली है।

लेकिन इस पूरे प्रकरण में मोदी और अडाणी तथा इनके रिश्ते अपेक्षाकृत छोटा मसला हैं। बड़ा मसला स्वयं आज का छुट्टा पूंजीवाद है। यहां से देखें तो अडाणी समूह पर हमला असल में भारत पर या ज्यादा सही कहें तो भारतीय पूंजीवाद पर हमला है। यह भारतीय पूंजीवाद के उस मॉडल पर हमला है जिसका सबसे मूर्त रूप अडाणी-अंबानी हैं। मजे की बात यह है कि भारतीय पूंजीवाद पर यह हमला स्वयं छुट्टे वैश्विक पूंजीवाद के भीतर से हो रहा है- व्यक्तिगत मुनाफे के लिए। जैसा कि हमेशा होता है यह पूंजीपति वर्ग के भीतर आपसी प्रतिद्वन्द्विता का परिणाम है। यह भी विडंबना है कि भारतीय पूंजीवाद के इस मॉडल की रक्षा में वास्तव में विपक्षी दल सामने आ रहे हैं जब वे दावा करते हैं कि अंबानी-अडाणी भारतीय पूंजीवाद के मूर्त रूप नहीं हैं बल्कि वे अपवाद हैं। अडाणी की रक्षा में उतरकर ‘राष्ट्रवादी’ संघी साबित कर रहे हैं कि भारतीय पूंजीवाद ठगों का पूंजीवाद है जबकि विपक्षी कोशिश कर रहे हैं कि भारतीय पूंजीवाद को ठगों से अलग दिखाया जाये।

मसले को थोड़ा खोला जाये।

अडाणी समूह की ठगी का सारा प्रकरण जिस ‘हिन्डेनबर्ग रिपोर्ट’ से शुरू हुआ उसका सारतत्व क्या था? उसका सारतत्व यह था कि अडाणी समूह की कंपनियों के शेयरों के बाजार भाव उनके वास्तविक दाम से छः-सात गुना ज्यादा थे। ऐसा क्यों? इसलिए कि अडाणी समूह के थोड़े से खरीदे-बेचे जा सकने वाले शेयरों (75 प्रतिशत शेयर गौतम अडाणी के अपने पास हैं) में से अच्छे-खासे को गौतम अडाणी के भाईयों की विदेशों में स्थित फर्जी कम्पनियों ने खरीद रखा है। तथाकथित ‘टैक्स हैवेन्स’ वाली जगहों पर पंजीकृत इन फर्जी कम्पनियों में पैसा स्वयं अडाणी समूह का ही है जो चोरी-छिपे देश से बाहर भेजा जाता है। यानी स्वयं गौतम अडाणी का पैसा उनके भाईयों की विदेश स्थित फर्जी कंपनियों से घूमकर वापस आता है और उनकी कंपनियों के शेयर खरीदकर उनके दाम बढ़ाता है। फिर इन बढ़ी कीमतों वाले शेयर के बल पर अडाणी समूह की कंपनियां बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेती हैं और अपना व्यवसाय बढ़ाती हैं। इससे इनके शेयरों का बाजार और चढ़ता है। नतीजा होता है अडाणी समूह की कंपनियों के शेयरों का अपने वास्तविक दाम से छः-सात गुना ज्यादा हो जाना तथा भारी कर्ज के बल पर अडाणी समूह के व्यवसाय का लगातार बढ़ते जाना।

ध्यान देने की बात है कि ‘हिन्डेनबर्ग रिपोर्ट’ का ज्यादा जोर भारत सरकार द्वारा देश के भीतर और बाहर अडाणी को व्यवसाय दिलाने पर नहीं है- चाहे कानूनी या चाहे गैर-कानूनी तरीके से। इन व्यवसायों के आधार पर ही वह अडाणी समूह की कंपनियों के शेयरों के वास्तविक दाम आंकती है। यह धांधली एक अलग ही किस्सा है जिसे ‘हिन्डेनबर्ग रिपोर्ट’ को तैयार करने वाले ज्यादा गलत नहीं मानते। पर यह आज के लुटेरू पूंजीवाद का अहम पहलू है।

‘हिन्डेनबर्ग रिपोर्ट’ का केन्द्र बिन्दु है विदेशों के ‘टैक्स हैवेन्स’ में स्थित गौतम अडाणी के भाईयों की फर्जी कंपनियों द्वारा अडाणी समूह की कंपनियों में निवेश शेयर बाजार के जरिये। यहां यह गौरतलब है कि भारत से इन फर्जी कंपनियों में पैसा पहुंचना भले ही गैर-कानूनी तरीके से हो रहा हो पर इन फर्जी कंपनियों द्वारा अडाणी समूह की कंपनियों में जो निवेश किया जा रहा है वह पूर्णतया कानूनी तरीके से हो रहा है। यहां यदि कुछ गैर-कानूनी है तो यही कि ये कंपनियां फर्जी हैं, इस अर्थ में कि इस तरह के निवेश के अलावा उनका और कोई व्यवसाय नहीं है। स्वयं उनके द्वारा निवेश करना गैर-कानूनी नहीं है। यही नहीं, वे अपने आप में गैर-कानूनी नहीं हैं क्योंकि वे अपनी जगह पर पंजीकृत हैं।

इस सारे प्रकरण में ज्यादा बड़ा सवाल यही है कि यदि ये कंपनियां कानूनी तरीके से पंजीकृत हैं और कानूनी तरीके से निवेश कर रही हैं तो फिर ये इतने बड़े पैमाने की धांधली का माध्यम क्यों और कैसे बन रही हैं। क्या यह नियम-कानूनों में किसी झोल की वजह से है जिसका पूंजीपति फायदा उठा रहे हैं, जैसा कि वे हमेशा करते हैं। या फिर यह झोल जान-बूझकर पैदा किया गया है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इससे भी आगे एक पूरी व्यवस्था तैयार की गयी है लूट-पाट के लिए जो ऊपर से झोल वाली दिखती है? असल में तीसरी बात ही सच है।

एक उदाहरण लें। उदारीकरण के पूरे दौर में मारीशस भारत में विदेशी निवेश करने वाला दूसरे या तीसरे नंबर का देश रहा है। 2022 में मारीशस का सकल घरेलू उत्पाद करीब 11 अरब डालर था जबकि भारत का करीब 3500 अरब डालर। अब सहज सवाल पैदा होता है कि मारीशस जैसा छोटे से द्वीप वाला देश अपने से साढ़े तीन सौ गुना बड़ी अर्थव्यवस्था में निवेश करने वाला दूसरे या तीसरे नंबर का देश कैसे हो सकता है? जवाब है मारीशस में पंजीकृत वे कंपनियां जो वास्तव में बड़े देशों की हैं और जिन्होंने केवल इसी काम के लिए वहां पंजीकरण करा रखा है। यह किसलिए? कर बचाने के लिए। यह कर कैसे बचता है? मारीशस और दूसरे देशों की सरकारों के बीच समझौते के जरिये जिसके तहत ये कंपनियां केवल एक जगह कर देंगी (जहां करों की दर कम होगी)। मारीशस जैसे देशों को इसीलिए ‘टैक्स हेवेन्स’ कहा जाता है। यानी टैक्स या कर बचाने की जगहें।

अब सवाल यह पैदा होता है कि मारीशस जैसे ‘टैक्स हैवेन्स’ (अडाणी भाईयों की फर्जी कंपनियां ज्यादातर मारीशस में ही हैं) अस्तित्व में कैसे आ गये? इसका सरल सा उत्तर है- उदारीकरण के दौर में दुनिया की सभी सरकारों ने मिलकर इन्हें जन्म दिया। छोटे-छोटे द्वीपीय देशों ने अपने यहां विदेशी कंपनियों के पंजीकरण के लिए आसान नियम बनाये और कर की दरें अत्यन्त नीची रखीं। फिर बड़े देशों की सरकारों ने इनसे ‘दोहरा कर बचाने’ के समझौते किये जिसके तहत ये कंपनियां केवल एक जगह कर देंगी- स्वभावतः ही नीची करों की दर वाली जगह। बड़े देशों ने दावा किया कि इसके जरिये उनके यहां विदेशी निवेश आयेगा। ‘टैक्स हैवेन’ देश को करों से आय होनी थी।

इस तरह दुनिया भर की सरकारों द्वारा ये ‘टैक्स हैवेन्स’ अस्तित्व में लाये गये। यह दुनिया भर के पूंजीपतियों की मांग पर किया गया- करों से बचने के लिए। इसलिए जब आज दुनिया भर की पूंजीवादी सरकारों के नुमाइंदे जी-20 की बैठकों में ‘टैक्स हैवेन्स’ पर नाखुशी जाहिर करते हैं तो वे परले दरजे की धोखाधड़ी कर रहे होते हैं। वे चाहें तो ‘टैक्स हैवेन्स’ एक झटके में बंद हो सकते हैं।

‘टैक्स हैवेन्स’ की संरचना में ही निहित था कि वहां फर्जी कंपनियों का जमावड़ा हो जाये। जहां कंपनियों का पंजीकरण केवल इसलिए हो रहा हो कि उसके जरिये कहीं और निवेश किया जायेगा तो असली और फर्जी का भेद अपने आप मिट जाता है। पंजीकृत हो रही कंपनी के पीछे कोई असली व्यवसाय वाली असली कंपनी है या बस पैसे को घुमा-फिराकर लाने वाले लोग, यह गैर-महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसे में भारत का पैसा बाहर जाकर फिर घूमकर वापस आ सकता है। वह काले धन के तौर पर जायेगा (अक्सर आयात ज्यादा दामों पर और निर्यात कम दामों पर करने के जरिये) और आयेगा सफेद धन के तौर पर। चक्र से गुजरकर काला सफेद हो जायेगा।

जब कांग्रेस की सरकार में पी. चिदम्बरम वित्त मंत्री थे तब का एक किस्सा है। एक सुहानी सुबह उनके मंत्रालय ने घोषित किया कि शेयर बाजार में ‘पार्टिसिपेटरी नोट्स’ के जरिये जो विदेशी निवेश होता है उसमें बताना पड़ेगा कि उस ‘नोट्स’ के पीछे कौन लोग हैं। जैसे ही यह खबर फैली शेयर बाजार धड़ाम से नीचे गिर गया। चंद घंटों में सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। ‘पार्टिसिपेटरी नोट्स’ शेयर बाजार में गुमनाम तरीके से पैसा लगाने का बड़ा माध्यम है। ‘टैक्स हैवेन्स’ की फर्जी कंपनियां अक्सर इसी के जरिये निवेश करती हैं। इसका मतलब क्या हुआ? यह कि सरकार ने स्वयं ‘टैक्स हैवेन्स’ की फर्जी कंपनियों द्वारा निवेश का पक्का इंतजाम कर रखा है।

यहां यह याद रखना होगा कि ‘टैक्स हैवेन्स’; फर्जी कंपनियां, ‘पार्टिसिपेटरी नोट्स’ के माध्यम से शेयर बाजार में निवेश, इत्यादि का समूचा गोरखधंधा मोदी सरकार की देन नहीं है। यह कांग्रेस सरकार की देन है। ज्यादा व्यापक रूप में कहें तो निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर के वैश्विक पूंजीवाद की देन है। इस गोरखधंधे वाले समूचे ताम-झाम को दुनिया भर के पूंजीपति वर्ग ने और उनकी नुमाइंदा सरकारों ने मिलकर खड़ा किया है। यह दुनिया की मजदूर-मेहनतकश जनता को बेलगाम तरीके से चूसने के तरीकों में से एक है। यह गोरखधंधा पूर्णतया कानूनी है और यदि उसमें कुछ भी गैर-कानूनी है तो उसका जान-बूझकर इंतजाम किया गया है।

यह अकारण नहीं है कि अडाणी को निशाना बनाने वाले कांग्रेसी या अन्य विपक्षी नेता मारीशस जैसे ‘टैक्स हैवेन्स’ की पूरी व्यवस्था पर कोई बात नहीं कर रहे हैं। ऐसा करते ही उंगली उनकी ओर उठने लगेगी। जब गौतम अडाणी ने दावा किया कि उन्हें सभी सरकारों के दौर में आगे बढ़ने का मौका मिला तो वे झूठ नहीं बोल रहे थे। बस वे यह कहना भूल गये कि मोदी के राज में (2002 में गुजरात से शुरू करके) यह मौका बहुत बढ़ गया।

बस फर्क इतना ही है। कांग्रेसियों ने 1991 में देश में छुट्टे पूंजीवाद की ओर जो कदम बढ़ाये उसे मोदी ने (पहले गुजरात में और फिर पूरे देश में) सरपट दौड़ में बदल दिया। मोदी ने बचा-खुचा शरम-लिहाज भी छोड़ दिया। उन्हें चिंता नहीं रह गयी कि किसी पूंजीपति का ‘सेल्समैन’ बन जाने पर लोग क्या कहेंगे।

अडाणी माडल असल में आज भारतीय पूंजीवाद का माडल है। और ज्यादा बड़े पैमाने पर यह छुट्टे वैश्विक पूंजीवाद का माडल है। सभी इसे अच्छी तरह जानते हैं। सभी इसमें शामिल हैं। ‘हिन्डेनबर्ग रिपोर्ट’ तैयार करने वाले भी इसमें शामिल हैं और उन्होंने इसे छिपाया भी नहीं। उन्होंने इस रिपोर्ट से अडाणी समूह को होने वाले नुकसान से फायदा उठाने की योजना बनाई और सफल भी हुए। अडाणी की गलती यह थी कि मोदी के पूर्ण समर्थन के प्रभाव में वे यह भूल गये थे कि सारी दुनिया में मोदी का राज नहीं है जबकि अडाणी का व्यवसाय तो सारी दुनिया में फैला है।

अडाणी पर हमला भारत पर हमला है क्योंकि अडाणी माडल ही भारतीय पूंजीवाद का माडल है। भारत के सारे पूंजीपति इसी माडल पर चल रहे हैं। यही भारत सरकार का भी माडल है। यदि कोरोना काल की तबाही के दौरान सभी पूंजीपतियों का मुनाफा दोगुना बढ़ गया तो इसी माडल की बदौलत। इसीलिए अडाणी पर हमला वास्तव में भारतीय पूंजीवाद पर हमला है। इससे भारतीय पूंजीवाद को केवल इसी तरह बचाया जा सकता है कि अडाणी (और अंबानी) को अपवाद घोषित कर दिया जाये, नियम नहीं। और यह काम संघी ‘राष्ट्रवादी’ नहीं कर रहे हैं बल्कि कांग्रेसी और विपक्षी कर रहे हैं।

पर भारत के लुटेरू पूंजीवाद को इस तरह न तो कांग्रेसी बचा सकते हैं और न संघी। वे अडाणी पर जंग में राजनीतिक फायदा उठाने की जो भी कोशिश कर रहे हैं उससे कुल मिलाकर लुटेरू पूंजीवाद का वीभत्स चेहरा ही और उजागर हो रहा है। यह अधिकाधिक साफ हो रहा है कि कैसे आज के लुटेरू पूंजीवाद में कानूनी और गैर-कानूनी की सारी सीमाएं मिट गयी हैं। कि सरकारें स्वयं कानूनी तरीके से गैर-कानूनी को आगे बढ़ा रही हैं। कैसे पूंजीपति वर्ग किसी भी तरह की नैतिकता के दावे से भी वंचित हो गया है।

अडाणी-मोदी प्रकरण का वास्तविक निहितार्थ यह नहीं है कि मोदी रंगे हाथों पकड़े गये हैं। मोदी ने तो स्वयं को छिपाने की कोशिश ही नहीं की थी। असली निहितार्थ यह कि इस प्रकरण से स्वयं ‘नये उभरते’ भारतीय पूंजीवाद का असल लुटेरू चेहरा सामने आ गया है। और यह अच्छी बात है।

आलेख

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