आज का अघोषित तानाशाही का काल

आपातकाल के दिनों को याद करते हुए

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल के दिनों को भारतीय लोकतंत्र का एक काला अध्याय बताया है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि उन दिनां की याद करते हुए आज भी रूह कांप उठती है। 
    
यह बात सही है कि आपातकाल के समय यहां के नागरिकों के मूल अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। विरोध पक्ष के नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया था। लोगों पर तरह-तरह के अत्याचार किये गये थे। बिना मुकदमा चलाये लोगों को जेलों में डाला गया था। सचमुच में यह भारतीय आजादी के बाद का एक काला अध्याय था जो 21 महीने तक चला था। 
    
लेकिन आज कोई घोषित आपातकाल नहीं है। कोई घोषित मीडिया की सेंसरशिप नहीं है। न ही कोई प्रतिबद्ध न्यायपालिका की बात की जा रही है। नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के निलंबन की भी घोषणा नहीं हुई है। हड़तालों, जुलूसों, प्रदर्शनों और धरनों पर प्रतिबंधों की कोई घोषणा नहीं हुई है। ऊपरी तौर पर लोगों के जनवादी अधिकार बरकरार हैं। 
    
लेकिन वास्तविकता क्या है? तमाम पूंजीवादी मीडिया-अखबार और टी.वी. चैनल भाजपा के गुणगान में लगे हैं। दिन-रात मीडिया में हिन्दू साम्प्रदायिकता का प्रचार किया जा रहा है। कई सारे सामाजिक कार्यकर्ताओं को लम्बे समय से बिना मुकदमा चलाये जेलों में डाल दिया गया है। आपातकाल के समय तो देवकांत बरूआ ने ‘‘इंदिरा इज इण्डिया, इण्डिया इज इन्दिरा’’ का नारा दिया था। लेकिन आज कोई भी जो नरेन्द्र मोदी की सरकार की आलोचना करता है उसे ‘‘देशद्रोही’’, ‘‘गद्दार’’ इत्यादि सम्बोधनों से नवाजा जाता है और बहुतों को इसी आधार पर जेल में ठूंस दिया जाता है। 
    
इंदिरा गांधी के आपातकाल में तो हुकूमत के अंग- पुलिस, न्यायालय, जेल इत्यादि लोगों पर जुल्म और अत्याचार करते थे। आज हुकूमत के ये अंग तो अत्याचार व उत्पीड़न करते ही हैं, इसके साथ ही बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद और तरह-तरह के हिन्दूवादी संगठन अल्पसंख्यकों पर हमले करते हैं। इन हिन्दूवादी संगठनों द्वारा मॉब लिंचिंग की जाती है। ये निजी गुण्डा गिरोह कभी ‘लव जिहाद’ के नाम पर, कभी ‘‘गौरक्षा’’ के नाम पर और कभी हिजाब के नाम पर अल्पसंख्यकों विशेष तौर पर मुसलमान आबादी पर हमला करते हैं। यह पिछले 9-10 वर्षों से जारी है और बढ़ रहा है। 
     
यह बात आज के अत्याचार और दमन को आपातकाल के दौर के दमन से अलग करती है। यह हिन्दूवादी गुण्डावाहिनियों द्वारा किया जाने वाला अल्पसंख्यकों पर चौतरफा हमला है जिसे राज्य की संस्थाओं का संरक्षण प्राप्त है। यह एक अतिरिक्त आयाम है। 
    
आपातकाल के दौरान पाठ्यक्रमों में कोई पुरातनपंथी कूपमण्डूकता पूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया था। न तो इतिहास लेखन में किसी किस्म का परिवर्तन किया गया था। आज इतिहास लेखन का भी साम्प्रदायीकरण किया जा रहा है। आज वैज्ञानिक व तर्कपरक दृष्टिकोण के बजाय अवैज्ञानिक व कूपमण्डूकता का नजरिया पेश किया जा रहा है। 
    
उस समय राज्य की संस्थाओं में साम्प्रदायिक तत्वों को नहीं भरा जा रहा था। आज तो नौकरशाही में या तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेकरधारी लिए जा रहे हैं और संघ की हिमायत करने वाले लोग भरे जा रहे हैं। विश्वविद्यालयों के वी.सी. व राज्यों के राज्यपाल के पद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों से भरे हुए हैं। 
    
उस समय राज्य की संस्थाओं, संवैधानिक संस्थाओं पर सत्ताधारी पार्टी का नियंत्रण था। आज भी नियंत्रण है। यह एक ऊपरी तौर पर समानता नजर आती है। लेकिन इन स्वायत्त संवैधानिक संस्थाओं को जितना पालतू आज बनाया गया है, उस सीमा तक उस समय नहीं बनाया गया था। 
    
उस समय, इंदिरा गांधी की सत्ता देश के बड़े पूंजीपतियों की सेवा करती थी और आज की नरेन्द्र मोदी की सत्ता भी पूंजीपतियों-देशी और विदेशी- की सेवा में संलग्न है। यह एक समानता है। इंदिरा गांधी ‘‘समाजवाद’’, ‘‘गरीबी हटाओ’’ और ‘‘20 सूत्रीय कार्यक्रम’’ के जरिए मजदूर-मेहनतकश आबादी की आंखों में धूल झोंककर देशी-विदेशी पूंजीपतियों की सेवा में लगी थी। नरेन्द्र मोदी की हुकूमत खुले तौर पर बड़े कारपोरेट घरानों की सेवा में लगी है। अडाणी-अम्बानी को बेशर्मी की हद तक लाभ पहुंचाने में नरेन्द्र मोदी की सरकार लगी हुर्ह है। 
    
इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान सभी विरोधी दलों के नेताओं को जब जेल में ठूंसा था, उस समय भी वह अपने वर्ग बंधुओं के प्रति एक तरह का व्यवहार कर रही थीं और अपने वर्ग शत्रुओं के प्रति दूसरी तरह का व्यवहार कर रही थीं। शासक वर्ग के प्रतिनिधियों को जेलों में विशिष्ट सुविधायें मुहैय्या करा रही थीं। जबकि अन्य लोगों को साधारण कैदियों की तरह डाल रही थीं। आज नरेन्द्र मोदी की हुकूमत अपने किसी भी विरोधी को दुश्मन समझकर निपट रही है। कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों और जनता के सच्चे हिमायतियों के लिए दोनों सत्तायें एक सा व्यवहार करती रही हैं और कर रही हैं। बस फर्क इतना ही है कि इंदिरा की तानाशाही के खिलाफ जनता तुरंत ही आसानी से लामबंद हो गई पर आज की हिन्दू फासीवादी हुकूमत जनता के एक ठीक-ठाक हिस्से को भ्रमित कर अपने साथ लामबंद किये हुए हैं। इस तरह इंदिरा की तानाशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ना आसान था। जबकि हिन्दू फासीवादियों के खिलाफ संघर्ष कहीं जटिल है व यह धैर्यपूर्वक योजनाबद्ध प्रयासों की मांग करता है। 
    
इंदिरा गांधी के आपातकाल में फर्जी इंकाउण्टर (मुठभेड़) होते थे। लेकिन उनकी संख्या आज की तुलना में काफी कम थी। आज इनकी संख्या बहुत बढ़ गयी है। 
    
ये कुछ अंतर और समानतायें हैं। इंदिरा गांधी के समय के आपातकाल की और आज की अघोषित तानाशाही में। 
    
ये ही अंतर तानाशाही शासन और फासिस्ट शासन के बीच के हैं। 
    
इंदिरा गांधी का आपातकाल तानाशाही शासन था, जबकि आज की नरेन्द्र मोदी की सत्ता फासीवाद की ओर बढ़ रही सत्ता है। 

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है