एक बार फिर ‘विकास’ और आम जनता

मई के महीने में सी एस डी एस-लोकनीति के एक सर्वेक्षण का परिणाम काफी चर्चा में रहा। इस सर्वेक्षण ने दिखाया था कि प्रधानमंत्री पद के लिए जहां नरेन्द्र मोदी 43 प्रतिशत लोगों की पसंद थे वहीं 27 प्रतिशत लोग इस पद पर राहुल गांधी को देखना चाहते थे। इसने यह भी दिखाया कि कांग्रेस पार्टी को भाजपा के 39 प्रतिशत के मुकाबले 29 प्रतिशत वोट मिल सकते थे (लोक सभा चुनाव में)। इस सर्वेक्षण से कांग्रेसियों ने ही नहीं उदारवादियों और वाम-उदारवादियों ने भी काफी खुशी महसूस की। 
    
पर अभी यहां चर्चा इस बात की नहीं हो रही है। बल्कि इसी सर्वेक्षण के कुछ दूसरे नतीजों की बात हो रही है। इस सर्वेक्षण में जब लोगों से पूछा गया देश के सामने सबसे बड़े मुद्दे क्या हैं तो 29 प्रतिशत ने बेरोजगारी, 22 प्रतिशत ने भुखमरी तथा 19 प्रतिशत ने महंगाई बताया। ये सब मिलकर 70 प्रतिशत होते हैं। भ्रष्टाचार केवल पांच प्रतिशत के लिए मुद्दा था। सर्वेक्षण के ये नतीजे इसी तरह के अन्य सर्वेक्षणों के अनुरूप ही थे जो लगातार बेरोजगारी, भुखमरी और महंगाई को सबसे बड़ा मुद्दा बताते रहे हैं। 
    
लेकिन इसी के साथ एक रोचक तथ्य जुड़ा था। जब लोगों से कहा गया कि वे मोदी सरकार के विकास कार्यों का आकलन करें तो 47 प्रतिशत ने इसे अच्छा बताया और 40 प्रतिशत ने खराब। यानी अच्छा बताने वालों की संख्या खराब बताने वालों से ज्यादा थी। 
    
सर्वेक्षण के इन दोनों नतीजों में ऊपरी तौर पर कोई मेल नहीं है। पचास प्रतिशत से ज्यादा लोग मानते हैं कि बेरोजगारी और भुखमरी सबसे बड़े मुद्दे हैं। लेकिन पचास प्रतिशत से थोड़़े ही कम लोग यह भी मानते हैं कि सरकार विकास का अच्छा कार्य कर रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि विकास बेरोजगारी और भुखमरी की समस्या को हल क्यों नहीं कर रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि विकास का दावा झूठा है और लोग सरकारी प्रचार के प्रभाव में इस झूठ पर विश्वास करने लगते हैं? या इसके उलट कहीं विकास की वजह से ही तो बेरोजगारी और भुखमरी नहीं बढ़ रही है? सच्चाई क्या है? 
    
दो-तीन घटनाओं से इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया जाये। 
    
पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी कुछ दिनों के अंतराल पर वंदे भारत रेलगाड़ी का उद्घाटन करते रहे हैं। लोकसभा चुनावों से पहले सरकार का 75 वंदे भारत चलाने का लक्ष्य था। देश मोदी के नेतृत्व में खूब तरक्की कर रहा है यह दिखाने के लिए हर नयी वंदे भारत का उद्घाटन मोदी स्वयं करते हैं। वंदे भारत ऐशो-आराम वाली गाड़ी है। इसमें उच्च मध्यम वर्गीय और उच्च वर्गीय लोग ही यात्रा कर सकते हैं। 
    
आज से पच्चीस-तीस साल पहले पैसे वालों की ऐसी एक ही गाड़़ी थी- राजधानी एक्सप्रेस। लेकिन उदारीकरण के दौर में ऐसी गाड़ियों की संख्या क्रमशः बढ़ती गयी है। पहले शताब्दी, फिर दूरन्तो, फिर तेजस और अब वन्दे भारत। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी काल में सामान्य गाड़ियों की संख्या में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है। उल्टे कोविड काल में पैसेन्जर गाड़ियां या तो बंद कर दी गईं या फिर उन्हें एक्सप्रेस घोषित कर उनका किराया बढ़ा दिया गया। 
    
ऊपरी तौर पर देखें तो इन गाड़ियों का इतनी संख्या में चलना यह दिखाता है कि देश तरक्की कर रहा है। लेकिन इस तरक्की का लोगों पर क्या असर पड़ रहा है? इसका असर यह पड़ रहा है कि सामान्य गाड़ियों के सामान्य डिब्बों या यहां तक कि शयनयान डिब्बों में भी भीड़ भयंकर बढ़ गई है। उदारीकरण के शुरूआती समय में शयनयान डिब्बों में सामान्य टिकट लेकर चढ़ने को प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन अब बढ़ती भीड़ के कारण कोई भी इस प्रतिबंध की परवाह नहीं करता। सामान्य डिब्बों में तो हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। इन दोनां तरह के डिब्बों में मजदूर-मेहनतकश यानी देश के नब्बे-पिंचानबे प्रतिशत लोग यात्रा करते हैं। 
    
इस तरह देखें तो रेल की तरक्की का परिणाम यह निकल रहा है कि मजदूरों-मेहनतकशों के लिए रेल यात्रा करना और ज्यादा कष्टकारी और महंगा होता जा रहा है। केवल थोड़ी सी पांच प्रतिशत आबादी है जो इस तरक्की का फायदा उठा रही है। 
    
रेल की इस तरक्की का मजदूर-मेहनतकश जनता पर असर दूसरी तरह से भी देखा जा सकता है। नये चमकते रेल स्टेशनों से सामान्य ठेले-खोमचे वाले गायब हो गये हैं। अब वहां महंगे सामान बेचने वाले स्टाल ही हैं। अब रेलवे स्टेशन पर मजदूर-मेहनतकश खरीद कर खाना नहीं खा सकते। यही हाल कई रेलगाड़ियों का भी हो गया है जिसमें बाहर के वेंडर अपना सामान नहीं बेच सकते। 
    
तरक्की का एक दूसरा उदाहरण लिया जाये। आज बहुत सारे लोग दावा करेंगे कि शापिंग माल और आनलाइन खरीददारी तरक्की के बड़े उदाहरण हैं। घर बैठे छूट पर सस्ता सामान किसे स्वीकार नहीं होगा? और यह आधुनिक तरक्की से ही संभव हुआ है। पर इस तरक्की का छोटे दुकानदारों पर क्या असर पड़ रहा है, जिनकी संख्या करोड़ों में है। आज भाजपा के परंपरागत समर्थक दुकानदार भी शिकायत करते पाये जाते हैं कि जीएसटी, नोटबंदी, कोरोना लॉकडाउन तथा आनलाइन शापिंग ने उनका धंधा एकदम चौपट कर दिया है। नोटबंदी और लॉकडाउन भले ही मोदी के तुगलकी फैसले हों पर जीएसटी और आनलाइन शापिंग तो सरकार द्वारा तरक्की के उदाहरण के तौर पर पेश किये जाते हैं। इस तरक्की ने खुदरा व्यापार वालों को दिवालिया बना दिया है। ये लोग जायें तो जायें कहां? पहले लोग सोचते थे कि कुछ नहीं होगा तो दुकान खोल लेंगे। अब दुकानें ही बंद हो रही हैं। 
    
तरक्की का एक तीसरा उदाहरण कारपोरेट खेती का है जिसे किसानों के एक लम्बे संघर्ष ने फिलहाल व्यवहार में आने से रोक दिया। यदि सरकार और पूंजीपति वर्ग सफल हो जाते तथा देश नये कृषि कानूनों के जरिये कारपोरेट खेती की ओर बढ़ जाता तो क्या होता? खेती आधुनिक हो जाती। वह तरक्की कर जाती। पर किसानों का क्या होता? वे या तो अपनी जमीन से हाथ धो बैठते या कारपोरेट कंपनियों के बंधक बन जाते। स्वतंत्र किसान के रूप में उनका अस्तित्व संकट में पड़ जाता। 
    
औद्योगिक क्षेत्र में भी तरक्की हो रही है। नयी तकनीक वाली औद्योगिक इकाईयां लग रही हैं। पुराने औद्योगिक क्षेत्र बंद हो रहे हैं और नये औद्योगिक क्षेत्र खुल रहे हैं। नयी उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद भी बाजार में आ रहे हैं। पर मजदूरों का क्या हो रहा है? मजदूर छंटनी का शिकार हो रहे हैं। पुराने ज्यादा तनख्वाह और यूनियन वाले प्लांट बंद हो रहे है और नये कम तनख्वाह वाले बिना यूनियन वाले प्लांट खुल रहे हैं। मजदूरों को मजबूर किया जा रहा है कि वे स्थाई नौकरी के बदले कम तनख्वाह पर ठेके में काम करें। मजदूर तरक्की का स्वाद इस तरह चख रहे हैं। 
    
उदारीकरण के समूचे दौर में पूंजीपति वर्ग, उसकी सरकार और उसके कलमघसीटों ने एक लम्बे समय तक पूंजीवाद में तरक्की के इस पहलू को हर संभव तरीके से छिपाने का प्रयास किया। लगातार झूठे आंकड़े गढ़कर यह बताने का प्रयास किया गया कि उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में भुखमरी कम हो रही है। भारत में हर सरकार ने यह दावा किया। सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के आंकड़े दिखाकर वे दावा करते थे कि देश कितना तरक्की कर रहा है। पर वे यह नहीं बताते थे कि यह तरक्की किसकी जेब में जा रही है। 
    
वर्षों तक सच्चाई को झुठलाने के बाद अब पूंजीवादी दायरों में इस सच्चाई को जगह मिलने लगी है। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक भी दबी जुबान से यह स्वीकार करने लगे हैं कि उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में तरक्की का सबको बराबर फायदा नहीं हुआ है, कि अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ी है। इनके मुकाबले आक्सफैम नामक दानदाता संस्था है जो हर साल रिपोर्ट प्रकाशित कर पूंजीपतियों और सरकारों को चेता रही है कि अमीरी-गरीबी की खाई विस्फोटक स्तर तक जा पहुंची है। 
    
इस हो-हंगामे के दबाव में भारत सरकार को भी गैर-बराबरी और भुखमरी पर एक रिपोर्ट जारी करनी पड़ी। इस पूरे मसले पर लीपापोती करने वाली यह रिपोर्ट पिछले साल आई। इसके बारे में ज्यादातर लोगों ने इस तथ्य से जाना कि इसमें स्वीकार किया गया था कि 2019-20 के सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार देश में पच्चीस हजार रुपये महीना से ज्यादा कमाने वाले केवल दस प्रतिशत लोग हैं। 
    
उदारीकरण-वैश्वीकरण के पिछले तीन दशकों में देश के ‘विकास’ की पूंजीवादी दायरों में खूब धूम रही है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में 6 से 9 प्रतिशत सालाना वृद्धि दर की खबरें आती रही हैं। इसका पूंजीवादी दायरों में खूब गुणगान किया जाता रहा है। इसी के अनुरूप यह दावा किया जाता रहा है कि लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठ रहा है और भुखमरी घट रही है। 
    
पर भुखमरी के घटने के दावे में एक पेंच फंसता रहा है। 1990 के बाद से ऐसा दो-तीन बार हुआ जब सरकार ने दावा किया कि देश में भुखमरी की रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या 35-40 प्रतिशत से घटकर 15-20 प्रतिशत रह गई। यह थोड़ा अजीब था क्योंकि भुखमरी की दर एक बार नीचे आ जाने के बाद फिर ऊपर कैसे जा सकती थी। होता यह था कि इस विषय पर हंगामा मचने के बाद विशेषज्ञों की कोई नयी समिति गठित होती थी और वह नये आंकड़े दे देती थी। संप्रग सरकार के समय में तो एक बार तीन समितियों ने तीन आंकड़े प्रस्तावित किये- एक ही समय। मोदी सरकार ने इस सारे झमेले को ही समाप्त कर दिया। उसने आंकड़े जारी करना बंद कर बस दावे करने शुरू कर दिये। 
    
भुखमरी के बारे में सरकारी आंकड़ों के इन घपलों के पीछे असल बात यह थी कि कुछ स्वतंत्र किन्तु स्थापित अर्थशास्त्री सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठाते रहते थे। ऐसा करने वालों में उत्सा पटनायक प्रमुख थीं। उन्होंने इस शताब्दी के पहले दशक से ही कहना शुरू किया कि देश में भुखमरी की दर असल में बहुत ज्यादा है। यह 70 से 85 प्रतिशत के बीच है। उन्होंने प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता को आधार बनाया था जो उदारीकरण के काल में क्रमशः घटती गई थी। सरकारी अर्थशास्त्रियों ने इसे यह कह कर नकारने की कोशिश की कि लोगों की उपभोग सामग्री बदल गई है। अब लोग खाद्यान्न के साथ अंडा, मांस-मछली, दूध इत्यादि का भी सेवन करने लगे हैं जिस कारण खाद्यान्न का उपभोग कम हो गया है। इस तरह खाद्यान्न उपभोग का कम होना बढ़ती भुखमरी का नहीं बल्कि बढ़ती समृद्धि का सबूत है। 
    
इस सारे वाद-विवाद के बीच अंततः संप्रग सरकार ने 2013 में स्वीकार कर लिया कि वास्तव में देश में भुखमरी का स्तर बहुत ज्यादा है। यह उसने खाद्य सुरक्षा कानून बनाकर किया जिसके तहत देश की करीब दो-तिहाई आबादी को राहत वाली दर पर अनाज दिया जाना था। देश के कई खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों को इस कानून के तहत एक कर दिया गया। 
    
मोदी ने सत्ता में आने के बाद पहले तो कांग्रेस के साठ साल की नाकामी को खूब कोसा फिर अपने विकास के नगाड़े पीटना शुरू किये। लेकिन कोविड के समय यह नगाड़ा फूट गया। मोदी सरकार को असलियत स्वीकार करनी पड़ी और लोगों को भूखों मरने से बचाने के लिए उन्हें मुफ्त अनाज देना पड़ा। इस समय मोदी सरकार द्वारा वही खाद्य सुरक्षा कानून की योजना लागू की जा रही है जो कांग्रेसियों ने बनाई थी और जिसका मोदी ने मजाक उड़ाया था। यही नहीं आज मोदी सरकार अस्सी करोड़ लोगों को राहत वाला अनाज देने को अपनी भारी उपलब्धि बता रही है और लोगों से कह रही है कि इसके लिए लोगों को मोदी का एहसानमंद होना चाहिए व मोदी को वोट देना चाहिए। 
    
इस तरह यह स्पष्ट है कि सरकार आज प्रकारान्तर से स्वीकार कर रही है कि देश की लगभग दो तिहाई आबादी भुखमरी की शिकार है। वह सरकारी राहत वाले राशन पर जिन्दा रहने को मजबूर है। आंकड़ों की सारी हेरा-फेरी के मुकाबले यह सच्चाई इतनी ठोस है कि कोई भी इससे इंकार नहीं कर सकता। 
    
तब फिर भुखमरी की इस सच्चाई और ‘विकास’ में क्या संबंध है? जैसा कि शुरू में कहा गया है, भुखमरी-बदहाली का कारण स्वयं ‘विकास’ ही है। पूंजीवादी विकास के कारण जब छोटा-मझोला किसान, दस्तकार या दुकानदार तबाह हो जाता है तो आज उसे पहले से बेहतर कमाई वाली नौकरी नहीं मिलती। एक तो वह अपनी छोटी सम्पत्ति से हाथ धोकर अपनी स्वतंत्र हैसियत खो देता है। पर इसके बदले में मजदूरी वाली गुलामी से उसकी आय पहले से बेहतर नहीं होती। वह स्वतंत्र हैसियत भी खो देता है और उसकी आय भी कम हो जाती है। वह दोनों तरफ से मारा जाता है। यह उसकी बदहाली को बढ़ा देता है और उसे भुखमरी की अवस्था में भी धकेल सकता है। छोटी सम्पत्ति वालों की यह तबाही उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में बहुत तेज हो गई है। किसान, दस्तकार, दुकानदार इत्यादि सभी इसके शिकार हो रहे हैं। इन लोगों के जीवन स्तर में यह निरपेक्ष गिरावट है।
    
लेकिन इसी के साथ मजदूर-मेहनतकश जनता के जीवन-स्तर में सापेक्ष गिरावट भी पिछले तीन-चार दशकों से हो रही है। देश की अर्थव्यवस्था में 6-7 प्रतिशत की वृद्धि दर से जो आय और दौलत पैदा हो रही है वह किन्हीं लोगों की जेबों में जा रही है। यह ऊपर के दो-तीन प्रतिशत लोग हैं, ज्यादा से ज्यादा पांच प्रतिशत। एक आकलन के अनुसार ऊपर के 1 प्रतिशत लोग 1980 में देश की आय का 6 प्रतिशत हिस्सा पाते थे जो 2015 में 22 प्रतिशत हो गया। इन एक प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल दौलत का 57 प्रतिशत हिस्सा है। 
    
स्वभावतः ही इन लोगों के मुकाबले देश की मजदूर-मेहनतकश आबादी की सापेक्षिक हालत खराब हो गई। वे स्वयं को ज्यादा गरीब महसूस करेंगे। यह तब भी होगा यदि उनकी आय निरपेक्ष तौर पर थोड़ी बढ़ जाये। 
    
गरीबी, भुखमरी हमेशा ही सामाजिक और इसीलिए सापेक्षिक चीजें होती हैं। ये निरपेक्ष नहीं होतीं। इसीलिए समाज का जीवन स्तर बदलने से ये बदल जाती हैं। आज भी विकसित और पिछड़े देशों में भुखमरी की रेखा के अलग-अलग मापदंड हैं। स्वयं उसी देश में उसके मापदंड समय के साथ बदल जाते हैं। भारत में भी लम्बे समय से मांग हो रही है कि 1971 में निर्धारित भुखमरी के मापदंड को बदला जाये क्योंकि पचास सालों में देश का जीवन स्तर बहुत बदल गया है। (1971 का मापदंड था : शहरों में 2100 किलोकैलोरी तथा देहातों में 2400 किलोकैलोरी पाने लायक अनाज उपभोग तथा 40 ग्राम प्रोटीन रोजाना) 
    
जब तक विकास इस रूप में होता है कि छोटी सम्पत्ति वाले तबाह होकर और भी कम कमाने वाले मजदूर बन जायें तथा जब तक समाज में गैर-बराबरी बढ़ती है तब तक गरीबी और भुखमरी भी बढ़ेगी। और चूंकि पूंजीवादी विकास में अब तक ज्यादातर समय ऐसा ही होता रहा है इसीलिए पूंजीवाद में भुखमरी-गरीबी बढ़ती रही है। केवल ‘कल्याणकारी राज’ का काल कुछ हद तक इसका अपवाद था। आज के छुट्टा पूंजीवाद में पूंजीवाद के पुराने दिन लौट आये हैं। इसीलिए गरीबी-भुखमरी एक बार फिर बढ़ रहे हैं। भारत में भी पिछले तीन दशक से यही हो रहा है। मोदी काल में इसमें और तेजी आ गई है। 
    
मोदी सरकार द्वारा ‘विकास’ के सारे दावों को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए। यह पूंजीपति वर्ग का विकास है, मजदूर-मेहनतकश जनता की कीमत पर!  

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है