‘हिन्दू राष्ट्र’ की ओर एक और कदम

संघ परिवार की ओर से गाहे-बगाहे यह बात होती रही है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना के सौ साल होने तक भारत एक ‘हिन्दू राष्ट्र’ बन जायेगा। अब यह समय बहुत नजदीक आ गया है। इस समय देश भर में हिन्दू फासीवादी कुछ इस तरह का बर्ताव कर रहे हैं मानो उनका ‘हिन्दू राष्ट्र’ का सपना पूरा होने ही वाला है। 
    
हिन्दू फासीवादियों के इस ‘हिन्दू राष्ट्र’ के लक्ष्य की प्राप्ति में अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। एक रूप में देखा जाये तो इस आंदोलन ने ही हिन्दू फासीवादियों को वह राजनीतिक स्थिति प्रदान की जिसके बल पर वे केन्द्र में सत्तानसीन हुए। अब अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण अपनी परिणति तक पहुंच रहा है और हिन्दू फासीवादियों ने इसका हर संभव राजनीतिक दोहन करने का अभियान छेड़ दिया है। 
    
अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर राम मंदिर का निर्माण हिन्दू फासीवादियों के लिए कभी भी धार्मिक मसला नहीं था। यह उनके लिए शुरू से ही एक राजनीतिक मसला था। राम जन्म भूमि के लिए रथ यात्रा निकालने वाले लाल कृष्ण आडवाणी ने खुलेआम कहा भी था कि यह धार्मिक नहीं बल्कि राजनीतिक मसला है। यह हिन्दू अस्मिता और हिन्दू गौरव का मसला है। 
    
हिन्दू फासीवादियों के लिए भारत आने वाले मुसलमान शासक केवल शासक भर नहीं थे। बल्कि वे हिन्दुओं को गुलाम बनाने वाले लोग थे। इसलिए मुसलमानी शासन के दौरान हिन्दू गुलाम हो गया। और चूंकि भारत हिन्दुओं का देश था तो भारत गुलाम हो गया। इसीलिए हिन्दू फासीवादी आठ सौ या बारह सौ साल की गुलामी की बात करते हैं। 
    
हिन्दू फासीवादियों के लिए भारत की इस गुलामी से मुक्ति तभी मिल सकती है जब हिन्दू पूरे समाज में हावी हो जायें। इसी का यह भी मतलब है कि मुसलमानों को दबा कर दोयम दर्जे के नागरिक की स्थिति में डाल दिया जाये। इस सबके जरिये हिन्दू गुलामी के सारे चिन्हों को मिटा दिया जाये। बाबरी मस्जिद भी इनमें से एक थी। 
    
उपरोक्त से स्पष्ट है कि इस सबमें राम की धार्मिक आस्था प्रसंगवश ही है। यहां राजनैतिक गौरव के लिए धर्म का इस्तेमाल है। अयोध्या में भव्य राम मंदिर इसलिए नहीं बनाया जा रहा कि लोग वहां जाकर राम की पूजा करेंगे। वैसे भी हिन्दू आस्था में पूजा-पाठ के मामले में राम की पूजा बहुत गौण है। हनुमान इस मामले में बहुत आगे हैं। सबसे आगे हैं शिव या शंकर। इसलिए अयोध्या में जो कुछ भी हो रहा है उसका हिन्दू धर्म या आस्था से कोई संबंध नहीं है। 
    
महत्वपूर्ण बात यह है कि हिन्दू फासीवादी इसे छिपा भी नहीं रहे हैं। इसे उन्होंने पहले भी नहीं छिपाया था और आज भी नहीं छिपा रहे हैं। उन्होंने बहुत पहले ही 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर 2024 में ही राम मंदिर के उद्घाटन की योजना बना ली थी और वे अब उस योजना पर अमल कर रहे हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए सांप-छछूंदर की स्थिति पैदा कर दी है। विपक्षी न तो इस राजनीतिक राम मंदिर को स्वीकार कर सकते हैं और न नकार सकते हैं। 
    
वैसे देश की गैर-भाजपाई या भाजपा विरोधी राजनीतिक पार्टियों की स्थिति इस मामले में कभी भी अच्छी नहीं रही है। जब 1980 के दशक के मध्य में हिन्दू फासीवादियों ने राम मंदिर का मुद्दा उठाया तब से लेकर आज तक इन पार्टियों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही रही है। उन्होंने कभी खुलकर यह नहीं कहा कि राम मंदिर का मुद्दा एक घोर साम्प्रदायिक राजनीतिक मुद्दा है और वे इसका विरोध करते हैं। इस मामले में उन्होंने हमेशा ही गोलमाल किया। कांग्रेस पार्टी का इस मामले में और भी शर्मनाक रुख रहा। यह कांग्रेसी सरकार ही थी जिसके रहते 1949 में बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति रखी गयी और बाबरी मस्जिद पर ताला लगाया गया। यह कांग्रेसी सरकार ही थी जिसने 1986 में इस ताले को खुलवाया और वहां हिन्दुओं को पूजा-पाठ की इजाजत दी। यह कांग्रेसी सरकार ही थी जिसने वहां शिलान्यास होने दिया और अंत में यह कांग्रेसी सरकार ही थी जिसने बाबरी मस्जिद का ध्वंस होने दिया। यानी राम मंदिर मामले में हर कदम पर कांग्रेसियों ने या तो हिन्दू फासीवादियों को छूट दी या फिर स्वयं आगे बढ़कर उनका काम किया। यदि आज कमलनाथ जैसे कांग्रेसी नेता राम मंदिर का श्रेय लेना चाहते हैं तो वे बहुत बेजा दावा नहीं कर रहे हैं। बस हिन्दू फासीवादी उनके दावे को तवज्जो देने को तैयार नहीं हैं। 
    
एक मायने में देखा जाये तो अयोध्या में राम मंदिर का मसला भारत के पूंजीवादी जनतंत्र का आइना है जिसमें इसका असली चेहरा स्पष्ट नजर आता है। 1949 से अब तक इस मसले का सफर साथ ही भारत के पूंजीवादी जनतंत्र का सफर है जिसने एक विकृत और टूटे-फूटे धर्म निरपेक्ष जनतंत्र से लेकर हिन्दू फासीवादी निजाम के कगार तक पहुंचने की यात्रा पूरी की है। इसके तीन चरणों को लें। 
    
जब 1949 में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद शुरू हुआ तो अभी स्वतंत्र भारत और उसका पूंजीवादी जनतंत्र अस्तित्व में आ ही रहा था। इसमें धर्म निरपेक्षता की जो धारणा स्वीकार की गई थी वह धर्म का राज्य से पूर्ण अलगाव के बदले ‘सर्व धर्म समभाव’ की वकालत थी। अब यह स्वाभाविक ही था कि ‘समभाव’ में कुछ को दूसरों से ज्यादा भाव मिलता, खासकर बहुसंख्यकों को। 
    
उस समय कांग्रेस पार्टी में शीर्ष नेतृत्व में भी हिन्दू साम्प्रदायिक मानसिकता के लोगों की भरमार थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत, राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और गृहमंत्री सरदार पटेल इत्यादि इनमें से कुछ थे। नेहरू जैसे लोग अपेक्षाकृत अलगाव में थे। इसलिए जब बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति रखी गई तो इस मूर्ति को निकाल फेंकने का सख्त निर्णय सरकार ने नहीं लिया। इसके बदले अदालती आदेश से मूर्ति को वहीं छोड़ते हुए बाबरी मस्जिद पर ताला लगवाने का रास्ता अपनाया गया। एक मुसलमानी धार्मिक स्थल को मुसलमानों के कब्जे से बाहर करने में हिन्दू साम्प्रदायिक सफल हो गये थे। यह सरकार की मिली भगत से किया गया। कांग्रेसी सरकार ने हिन्दू साम्प्रदायिकों से सख्ती से निपटने के बदले उनके साथ सांठ-गांठ की थी और इसमें न्यायपालिका का इस्तेमाल किया था। 
    
लेकिन यह भी समय की पहचान थी कि तब यह मसला तात्कालिक उछाल के बाद ठंडे बस्ते में चला गया। हिन्दू साम्प्रदायिक इसे ज्यादा तूल देने में सफल नहीं हो पाये और कांग्रेसियों ने भी हिन्दुओं का तुष्टीकरण करते हुए मसले को फिलहाल वहीं दफना दिया। तब देश के पैमाने पर कांग्रेस पार्टी के वर्चस्व तथा हिन्दू फासीवादियों की अत्यन्त कमजोर स्थिति में यह आसान भी था। 
    
लेकिन 1980 के दशक के मध्य में हिन्दू फासीवादी इस दफनाए गये मुर्दे को उखाड़ कर बाहर ले आये और देखते ही देखते एक शैतान खड़ा हो गया। 
    
तब तक हिन्दू फासीवादी देश में पहले से काफी मजबूत हो गये थे। उन्होंने आपातकाल में भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में जगह हासिल कर ली थी और जनता पार्टी सरकार में तो उनके करीब सौ सांसद रह चुके थे। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी अब तक नेहरूवाद को छोड़कर कब की ‘इंदिरा इज इंडिया’ वाली पार्टी बन चुकी थी। स्वयं इंदिरा गांधी अपना ‘गरीबी हटाओ’ का नारा कब की भूल चुकी थीं और पंजाब को खालिस्तानी आतंकवाद की चपेट में झोंक चुकी थीं। जब इस भस्मासुर ने उनकी जान ली तो उनके सुपुत्र राजीव गांधी ने भांति-भांति के साम्प्रदायिकों के इस्तेमाल को अपनी नीति बना लिया। 
    
इसी माहौल में यह हुआ कि इंदिरा गांधी विश्व हिन्दू परिषद के सम्मेलन में शामिल हुईं और बाद में इसी संगठन के नेतृत्व में छेड़े गये राम मंदिर आंदोलन में मदद करते हुए राजीव गांधी ने 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा दिया। एक बार फिर फैसला कांग्रेसी सरकार ने किया और इसके लिए अदालत का इस्तेमाल किया। 
    
लेकिन अबकी बार जिन्न बोतल से बाहर निकल चुका था या शैतान कब्र से बाहर आ चुका था। इस बार कांग्रेस पार्टी साम्प्रदायिक शक्तियों से सांठ-गांठ कर उन्हें अपने हिसाब से चलाने में कामयाब नहीं हो पाईं। इसके ठीक उलट अब ये हिन्दू फासीवादी थे जो पहलकदमी ले रहे थे और कांग्रेसी हिन्दुओं का तुष्टीकरण करने की गरज से उनके पीछे घिसट रहे थे। पर इस सबका फायदा हिन्दू फासीवादियों को हो रहा था। हिन्दू फासीवादी 1986 से 91 के बीच छलांग लगा कर आगे बढ़े और 1997 में गठबंधन के जरिये केन्द्र में सत्तानशीन हो गये। 
    
1980 के दशक तक भारत का पूंजीवादी जनतंत्र एक निरंकुशतावादी साम्प्रदायिक और जातिवादी मोड़ ले चुका था जिसे भांति-भांति की पार्टियां अभिव्यक्त कर रही थीं। जहां हिन्दू फासीवादी खुलेआम हिन्दू साम्प्रदायिकता की राजनीति कर रहे थे वहीं पुराने समाजवादी आंदोलन की वारिस ‘सामाजिक न्याय’ की पार्टियां जातिवादी राजनीति में ही अपनी गति देख रही थीं। कांग्रेस पार्टी इनकी खिचड़ी पकाने की कोशिश करते हुए हर जगह मात खाती जा रही थी। 
    
अब तक एक आदर्श के तौर पर भी भारत में पूंजीवादी जनतंत्र की वकालत करने वाले लोग गायब हो गये थे यानी ऐसे लोग जो कहते हों कि जाति-धर्म इत्यादि से ऊपर नागरिक की पहचान ही सर्वोपरि होनी चाहिए। यदि ऐसे लोग कुछ बचे थे तो वे थे सरकारी कम्युनिस्ट जिन्होंने मजदूर राज का अपना लक्ष्य छोड़कर पूंजीवादी राज्य का स्थानीय संचालक बनना स्वीकार कर लिया था। 
    
1980 के दशक में राम मंदिर आंदोलन की सफलता साथ ही भारत के उस पूंजीवादी जनतंत्र की विफलता का भी द्योतक थी जिसकी घोषणा आजादी के बाद की गई थी। अब यह स्पष्ट था कि इस जनतंत्र को दफनाने का लक्ष्य रखने वाली ताकत मजबूत होती जा रही थी और उसको रोकने की क्षमता इस जनतंत्र में नहीं थी। जिस रूप में इस जनतंत्र को गढ़ा गया था और जिस रूप में इसका विकास हुआ था उसमें यह क्षमता पैदा हो भी नहीं सकती थी। हालात इतने बुरे थे कि इस जनतंत्र को बचाने की फिराक में लगे लोगों को जातिवादी राजनीति ही इसकी काट दिखती थी। कमंडल के सामने मंडल को खड़ा करने की रणनीति तात्कालिक तौर पर सफल भी दिखी जब 1990 के दशक के मध्य से भाजपा का विकास ठहर गया। 
    
पर समाज में जो और भी मूलभूत शक्तियां सक्रिय थीं और जो असल में हिन्दू फासीवादी उभार की जड़ में थीं वे तो निष्क्रिय नहीं हुईं थीं। वे सक्रिय थीं और उन्होंने शीघ्र ही हिन्दू फासीवादियों के नये उभार को जन्म दिया। 
    
दरअसल असफलता केवल भारत के पूंजीवादी जनतंत्र की नहीं थी। यह विकास के उस माडल की भी थी जिसे भारत के पूंजीपति वर्ग ने आजादी के बाद स्वीकार किया था। भारत के पूंजीवादी जनतंत्र की असफलता असल में इस माडल की असफलता की राजनैतिक अभिव्यक्ति थी। जब 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में नयी आर्थिक नीति की ओर बढ़ा गया तो भी इससे मुक्ति नहीं मिली। बल्कि इसने बुनियादी समस्याओं को विकराल ही बनाया। छोटी सम्पत्ति वालों की भयंकर तबाही, विशाल गैर-बराबरी और बढ़ती बेरोजगारी और कंगाली इनमें से कुछ प्रमुख थीं। 
    
हिन्दू फासीवादियों के उभार की जड़ में ये बुनियादी समस्याएं थीं जिनसे आरक्षण की राजनीति और जातिगत जोड़-तोड़ से नहीं निपटा जा सकता था, खासकर यह देखते हुए कि हिन्दू फासीवादियों ने इसकी काट करने का तरीका खोज निकाला था। इनसे कांग्रेसियों की फर्जी कल्याणकारी योजनाओं से भी नहीं निपटा जा सकता था। और जब देश के बड़े पूंजीपति वर्ग ने तय कर लिया कि उसके तात्कालिक मुनाफे तथा दूरगामी हित दोनों के लिए मोदी के नेतृत्व में हिन्दू फासीवादी ही बेहतर विकल्प हैं तो फिर भारतीय राजनीति का वर्तमान चरण शुरू हो गया जहां देश अब हिन्दू फासीवादी निजाम के कगार पर खड़ा है। 
    
यह चरण राम मंदिर आंदोलन को अपनी परिणति तक पहुंचते देख रहा है। अब कांग्रेसी इसमें खिलाड़ी नहीं बल्कि दर्शक हैं। अब सारी पहलकदमी और निर्णय हिन्दू फासवादियों के हाथ में है। पहले की तरह अब भी सरकारी मशीनरी और अदालतां का इसमें इस्तेमाल हो रहा है। 
    
जब 1949 में बाबरी मस्जिद में रात के अंधेरे में रामलला की मूर्ति रखी जा रही थी तो देश में पूंजीवादी जनतंत्र की नींव रखी जा रही थी। अब जब दिन के उजाले में गाजे-बाजे के साथ बाबरी मस्जिद स्थल पर रामलला की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है तो साथ ही भारत के पूंजीवादी जनतंत्र की नींव भी खोदी जा रही है। बल्कि कहा जाये ते नींव खोदने का काम समाप्ति तक पहुंच रहा है। तब प्रधानमंत्री ने सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन पर जाने से मना कर दिया था। अब प्रधानमंत्री खुद ही मुख्य यजमान बन गया है। वैसे यह आज के भारतीय समाज और स्वयं हिन्दू फासीवादियों का दिलचस्प अंतर्विरोध है कि सनातनी परंपरा का ढिंढोरा पीटने वाले इस आयोजन में मुख्य यजमान एक शूद्र है जिसे ब्राह्मणी परंपरा के हिसाब से ऐसे अवसर पर आस-पास भी नहीं फटकना चाहिए। 
    
2025 तक हिन्दू फासीवादी भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित कर पाते हैं या नहीं यह भविष्य की बात है। पर इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने इस समय व्यवहारतः वह बहुत कुछ हासिल कर लिया है जो ‘हिन्दू राष्ट्र’ में हो सकता है। इस समय देश में जो कुछ हो रहा है उस पर एक नजर डाल लेना ही इसके लिए पर्याप्त है। हालात यह हैं कि यदि 2024 में चुनाव जीतने के बाद हिन्दू फासीवादी भारत को संवैधानिक तौर पर ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित करने की ओर बढ़ें तो न तो उन्हें विपक्षी रोकेंगे और न न्यायालय। वे इसके साथ समझौता कर लेंगे। 
    
पर मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश यह समझौता नहीं कर सकते क्योंकि यह ‘हिन्दू राष्ट्र’ उन्हीं की कीमत पर और उन्हीं की छाती पर बन रहा होगा। उन्हें तो इसके खिलाफ संघर्ष में उतरना ही होगा।

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