धारा-370 फैसला : जी हुजूर, सिर-माथे पर !

संविधान की धारा-370 को निष्प्रभावी करने के केन्द्र सरकार के 2019 के फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये हालिया फैसले ने वर्तमान मुख्य न्यायाधीश से उम्मीद लगाये उदारवादियों और वाम-उदारवादियों को काफी निराश किया है। सभी ने लगभग एक स्वर से कहा है कि वे इस फैसले से काफी निराश हुए हैं। यह इस हद तक है कि वे इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका भी नहीं दाखिल करना चाहते। ‘कुछ नहीं होगा’। बात यहां तक कही जाने लगी है कि अब पहले से ही बताया जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला क्या होगा। 
    
इस घनघोर निराशा की वजह है। एक लम्बे समय से ये लोग यह उम्मीद लगाये बैठे थे कि जब माननीय चन्द्रचूड़ मुख्य न्यायाधीश बनेंगे तो सर्वोच्च न्यायालय की जो पिछले सालों में दुर्गति हुई है उससे निजात मिलेगी। सालों से लटके पड़े संवैधानिक मामलों का निपटारा होगा (धारा-370, चुनावी बाण्ड, नागरिकता संशोधन कानून, इत्यादि) तथा लगातार निरंकुश होती जा रही केन्द्र सरकार पर अंकुश लगेगा। मुख्य न्यायाधीश के घोषित उदार विचार उनमें यह उम्मीद जगाते थे। हालांकि दुष्यंत दवे जैसे लोग चेता रहे थे कि सरकार से टकराने के मामले में मुख्य न्यायाधीश का रिकार्ड कोई अच्छा नहीं है, पर फिर भी कहीं से भी उम्मीद की किरण की खोज में लगे लोगों ने मुख्य न्यायाधीश पर भरोसा जताया। अब उनका भरोसा टूट गया है।
    
और यह टूटना भी चाहिए। धारा-370 पर जो फैसला आया है वह न केवल संवैधानिक तौर पर दूषित है बल्कि वह जनतंत्र की बुनियादी भावना के खिलाफ है। ऐसा फैसला केवल सरकार के कदम को सही ठहराने की कोशिश में ही आ सकता है और ऐसा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने वर्तमान निरंकुश सरकार को, जो फासीवादी जहनियत से सराबोर है, आगे और भी जनतंत्र विरोधी निरंकुश कदम उठाने को आज्ञा पत्र दे दिया है। यह फैसला स्वयं राजा से भी ज्यादा वफादार बनने वाला फैसला है। 
    
इस फैसले के कुछ पहलुओं को लें। 
    
इस फैसले के दो महत्वपूर्ण बिन्दु थे। पहला, जम्मू-कश्मीर प्रदेश को विशेष स्वायत्तता देने वाली संवैधानिक धारा-370 को निष्प्रभावी करना तथा, दूसरा, स्वयं इस प्रदेश को दो टुकड़ों में बांटकर उसे केन्द्र शासित क्षेत्र घोषित कर देना। दोनों ही पूंजीवादी जनतंत्र की सामान्य मान्यताओं का घोर उल्लंघन थे। 
    
धारा-370 भारत के संविधान में तभी जोड़ी गयी थी जब उसका निर्माण हो रहा था। यानी यह कोई किसी खास स्थिति में जोड़ी गई धारा नहीं थी। यह धारा जम्मू-कश्मीर प्रदेश को देश के दूसरे प्रदेशों से बिल्कुल अलग खास किस्म की स्वायत्तता देती थी। संवैधानिक दायरे में यह महत्तम स्वायत्तता थी क्योंकि शुरू में केवल विदेश विभाग, रक्षा और संचार ही केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में थे। बाकी प्रदेश के अधीन थे। इनमें केन्द्र का दखल केवल जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की संस्तुति पर ही हो सकता था ।
    
धारा-370 में जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के प्रावधान का विशेष महत्व था। इसे ही महत्तम स्वायत्तता हासिल प्रदेश को चलाने के लिए प्रदेश का संविधान बनाना था। इस महत्तम स्वायत्तता की स्थिति में इस तरह प्रदेश का अपना संविधान जरूरी हो जाता था। बाकी प्रदेशों की तरह भारत के आम संविधान से यहां काम नहीं चल सकता था। इस तरह जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा होते हुए भी इसे एक खास किस्म की संप्रभुता हासिल थी। इसी संप्रभुता की वजह से बाकी मामलों में केन्द्र का दखल इसकी अनुमति से हो सकता था। 
    
यहां यह याद रखना होगा कि सार्विक मताधिकार से चुनी हुई संविधान सभा जनतांत्रिक दृष्टि से सर्वोच्च संस्था होती है। संप्रभु आम जनता इसी के माध्यम से अपनी संप्रभुता अभिव्यक्त करती है। जनतंत्र में जनता ही संप्रभु होती है और संविधान सभा इस संप्रभुता का मूर्त रूप। 
    
इसलिए जब भारत के संविधान में धारा-370 के माध्यम से जम्मू-कश्मीर के लिए संविधान सभा का प्रावधान किया गया तो इसका अतीव महत्व था। इसका सामान्य सा मतलब था कि जम्मू-कश्मीर के भारत का अभिन्न हिस्सा होते हुए भी इनके बीच रिश्ते को ठोस तौर पर तय करने का अधिकार केवल जम्मू-कश्मीर की जनता को था और जनता के इस अधिकार की व्यावहारिक परिणति संविधान सभा में होनी थी। स्वयं धारा-370 में भी कोई भी परिवर्तन केवल जम्मू-कश्मीर की जनता की अनुमति से हो सकता था- संविधान सभा के माध्यम से। 
    
पूंजीवादी जनतंत्र की आम धारणा तथा भारत के संविधान में दर्ज धारा-370 के स्पष्ट प्रावधानों को देखते हुए यहां संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी कि धारा-370 में किसी भी बदलाव का जम्मू-कश्मीर की जनता से क्या संबंध है। और ठीक इसी बिन्दु पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला जनतंत्र की बुनियादी भावना का खुला उल्लंघन कर देता है। वह केन्द्र सरकार के फैसले को सही ठहराते हुए जनतंत्र को ही निरस्त कर देता है। 
    
देश की केन्द्रीय सत्ता में काबिज हिन्दू फासीवादियों के आम चरित्र को देखते हुए यह जरा भी अचरज की बात नहीं थी कि उनके द्वारा धारा-370 को निष्प्रभावी किये जाने के फैसले में जम्मू-कश्मीर की जनता कहीं नहीं थी। बल्कि वह संगीनों की नोंक पर थी। हिन्दू फासीवादियों को पता था कि वर्षों से क्रमशः छल-छद्म और तीन-तिकड़म से व्यवहारतः निष्प्रभावी बना दी गयी धारा-370 का औपचारिक तौर पर अवसान जम्मू-कश्मीर की जनता को स्वीकार नहीं होगा। इसलिए उसकी संस्तुति या अनुमति का तो सवाल ही नहीं उठता था। उल्टे जरूरी था कि इस जनता के द्वारा किसी भी विरोध प्रदर्शन की गुंजाइश को पहले ही समाप्त कर दिया जाये। इसीलिए समूचे कश्मीर को खुली जेल में तब्दील कर दिया गया। 
    
पर कश्मीरी जनता को कैद कर आगे बढ़ने वाले हिन्दू फासीवादी यह जानते थे कि स्वयं भारतीय संविधान उनके रास्ते में बाधा है क्योंकि धारा-370 में किसी भी फेर-बदल के लिए जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की पूर्व संस्तुति का प्रावधान अभी भी वहां मौजूद था। इससे पार पाने के लिए उन्होंने एक संवैधानिक तिकड़म की जिसे स्वयं सर्वोच्च न्यायालय को असंवैधानिक बताना पड़ा। यह थी धारा-370 में संविधान सभा के बदले विधान सभा पढ़ना जिसका व्यावहारिक मतलब था धारा-356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू होने पर संसद। अब संसद स्वयं संस्तुति कर धारा-370 को निष्प्रभावी कर सकती थी और 6 अगस्त 2019 को यही किया गया। 
    
केन्द्रीय सरकर की इस संवैधानिक तिकड़म को असंवैधानिक घोषित करने के बाद (क्योंकि धारा-370 में संविधान सभा को विधान सभा पढ़ने की इजाजत कोई नहीं दे सकता था) स्वाभाविक था कि सर्वोच्च न्यायालय धारा-370 को बहाल कर देता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने केन्द्र सरकार से भी ज्यादा असंवैधानिक कदम उठाया। उसने कहा कि 1957 में जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा भंग होने के बाद धारा-370 में इसकी संस्तुति वाले प्रावधान का कोई मतलब नहीं बनता था। वह अपने आप ही निष्प्रभावी हो गया था। अब भारत का राष्ट्रपति स्वयं ही धारा-370 में कोई बदलाव कर सकता था। और चूंकि अंत में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से ही धारा-370 निष्प्रभावी हुई, इसलिए वह संवैधानिक है। 
    
यह गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय की यह दलील धारा-370 की मूल भावना का खुला उल्लंघन है। मूल भावना यही थी कि जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ संबंधों को परिभाषित करने वाली धारा में कोई भी परिवर्तन जम्मू-कश्मीर की जनता (उसके चुने गये प्रतिनिधियों के माध्यम से) की रजामंदी से ही की जा सकती है। यानी जम्मू-कश्मीर की जनता इस बदलाव के केन्द्र में थी। उसके न चाहने पर बदलाव नहीं हो सकता था। अब उसे सारे परिदृश्य से गायब कर बदलाव का अधिकार राष्ट्रपति यानी केन्द्र सरकार को दे देना इस भावना का खुला उल्लंघन है। यह जनतंत्र का खुला उल्लंघन है। 
    
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला बार-बार जम्मू-कश्मीर के भारत में एकीकरण की बात करता है। पर वह एक बार भी जम्मू-कश्मीर की जनता की बात नहीं करता जो इस सबके केन्द्र में होनी चाहिए थी। 
    
यह भी आश्चर्य की बात नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला धारा-370 के अस्थाई प्रावधान होने पर जोर देता है। बस वह भूल जाता है कि स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ही इसे पहले स्थाई प्रावधान घोषित कर चुका है। वह यह नहीं देखना चाहता कि जम्मू-कश्मीर की स्थिति आज भी भारत में विशेष है इसलिए ‘‘अस्थाई’’ प्रावधान की आज भी जरूरत है। वह यह मानने से इंकार कर देता है कि धारा-370 में बदलाव किये बिना जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा का भंग होना इस बात का द्योतक है कि धारा-370 का ‘‘अस्थाई’’ प्रावधान वास्तव में स्थाई हो गया था क्योंकि अब उसे कोई नहीं बदल सकता था। इसकी मूल भावना को देखते हुए यही एकमात्र सही निष्कर्ष था। 
    
यदि सर्वोच्च न्यायालय ने इस सामान्य सी सच्चाई को स्वीकार करने का साहस किया होता तो उसने 1957 के बाद जम्मू-कश्मीर पर लागू किये गये तमाम केन्द्रीय और सहवर्ती सूची के प्रावधानों को निरस्त कर दिया होता। यही नहीं, उसने 1953 से 57 के बीच लागू किये गये प्रावधानों को भी निरस्त कर दिया होता क्योंकि ये प्रावधान जम्मू-कश्मीर के तब मान्य नेता शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर तथा उनकी अनुपस्थिति में जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा को छल-नियोजित कर लागू किये गये थे। तब सर्वोच्च न्यायालय जम्मू-कश्मीर के मामले में 1953 की स्थिति बहाल करता। यही न्याय की बात है। शायद यही वास्तविक समाधान भी होता। यह नहीं भूलना होगा कि 1953 से शुरू कर 1980 के दशक तक केन्द्र सरकार द्वारा छल-छद्म ही अंततः 1989-90 में जम्मू-कश्मीर की जनता को विद्रोह तक ले गया जो आज भी जारी है। देश का सर्वोच्च न्यायालय पहले भी इस छल-छद्म पर मुहर लगाता रहा है। इस बार ऐसा करते हुए वह चार कदम ओर आगे चला गया। ऐसा करते हुए भारत के जर्जर संघीय ढांचे पर उसने एक जोरदार लात लगा दी। 
    
संघीय ढांचे का सवाल असल में भारत में जनतंत्र का सवाल ही है। जब देश के अलग-अलग क्षेत्र एकरस न हों तो उन्हें एकरस कानून से नहीं चलाया जा सकता। उनकी असमता और विषमता को ध्यान में रखना ही होगा। उसके लिए प्रावधान करने ही होंगे। यह देश के संघीय ढांचे का आधार बनता है जो किसी क्षेत्र या प्रदेश की जनता को अधिकार देता है कि वह अपने किन्हीं खास मामलों को भिन्न तरह से संचालित करे। धारा-370 इसका सर्वोच्च रूप था जिसमें विदेश विभाग, रक्षा तथा संचार के मामलों को छोड़कर बाकी सारे मामलों में तय करने का अधिकार जम्मू-कश्मीर की जनता को था। 
    
अब जिस तरह से केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर की प्रदेश की मान्यता को समाप्त कर उसे दो केन्द्र शासित क्षेत्र में बांट दिया वह संघीय ढांचे पर बहुत बड़ा हमला था। इस फैसले के पहले प्रदेश की जनता की (विधान सभा के रूप में) कोई राय नहीं ली गई। सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को भी उचित ठहराया। यह एक झटके से केन्द्र सरकार को यह अधिकार दे देता है कि वह किसी प्रदेश के साथ कुछ भी कर सके। 
    
भारत का संघीय ढांचा पहले से बहुत कमजोर रहा है। इसमें केन्द्रीयता का पक्ष हमेशा प्रधान रहा है। थोड़ी-बहुत संघीय स्थिति तभी बेहतर रही जब 1989 से 2014 के बीच केन्द्र में गठबंधन की सरकारें रहीं। लेकिन 2014 से हिन्दू फासीवादियों वाली केन्द्रीय सरकार ने संघीय ढांचे पर एक के बाद एक हमले किये हैं। यह उनकी एक ‘अखंड भारत’ परियोजना का हिस्सा है। धारा-370 का खात्मा भी इसी के तहत है। अब प्रदेश के पुनर्गठन पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने उनके हौंसले और बुलंद कर दिये हैं। भविष्य में वे इस दिशा में और भी उद्धत ढंग से कदम उठायेंगे। 
    
इस तरह देखा जाये तो सर्वोच्च न्यायालय ने धारा-370 पर अपने फैसले के द्वारा हिन्दू फासीवादियों द्वारा भारत के टूटे-फूटे और जर्जर पूंजीवादी जनतंत्र को खत्म करने को एक भारी आवेग प्रदान किया है। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि 2024 में हिन्दू फासीवादी चुनाव जीतें और फिर संविधान में संशोधन कर भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दें तो सर्वोच्च न्यायालय उसे संवैधानिक ठहरा दे। यदि धारा-370 को निष्प्रभावी बनाने का फैसला संविधान की मूल आत्मा या बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं है तो हिन्दू राष्ट्र की घोषणा भी नहीं होगा। 
    
भारत के पूंजीवादी जनतंत्र की इस हत्या में भागीदार सर्वोच्च न्यायालय तब बन रहा है जब मुख्य न्यायाधीश अपने भाषणों में और फैसलों तक में जनतंत्र और असहमति के अधिकार की लगातार बात करते हैं। लेकिन ये केवल बातें होती हैं। स्वयं फैसलों तक में व्यवहार उलटा होता है। बाबरी मस्जिद फैसले से लेकर अब तक न जाने कितने फैसले आ चुके हैं जिसमें सद्वचनों और फैसलों में भारी फर्क होता है। सद्वचन के बाद फैसला सरकार के या हिन्दू फासीवादियों के पक्ष में होता है। साबरीमाला मंदिर का फैसला तो अद्भुत था जिसमें गृहमंत्री की इस धमकी के बाद कि न्यायालयों को ऐसे फैसले नहीं देना चाहिए जिन्हें लागू न किया जा सके, सर्वोच्च न्यायालय ने पुनर्विचार के जरिये अपने ही फैसले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। 
    
न्यायाधीश लोया के हश्र के बाद शायद माननीय न्यायाधीशों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे हिन्दू फासीवादियों से सीधे टकरायेंगे। उनसे यही उम्मीद की जा सकती है कि वे हिन्दू फासीवादियों के हिसाब से फैसला दें और इतिहास के लिए अपने फैसलों और भाषणों में जनतंत्र पर कुछ सद्वचन छोड़ जायें। उनसे जनतंत्र को बचाने की उम्मीद करना परले दरजे की नादानी और बेवकूफी होगी। हिन्दू फासीवादियों का मुकाबला न्यायालयी बहसों और फैसलों से नहीं बल्कि खेत-खलिहानों और फैक्टरियों-कारखानों की उस भीषण जंग से होगा जो एक-दूसरे रूप में आज भी चल रही है।  

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