
हालिया भारत-पाक झड़प के दौरान और उसके बाद भारत में कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने भाजपा को घेरने के प्रयास में एक बात बार-बार दोहराई। वह थी 1971 में पाकिस्तान के विभाजन की बात। कांग्रेसियों ने बड़े शान के साथ बारंबार दोहराया कि इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये थे।
इस ऐतिहासिक सवाल को यदि छोड़ भी दें कि क्या वास्तव में 1971 में पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश के निर्माण का श्रेय या दोष इंदिरा गांधी (अथवा भारत सरकार) को दिया जा सकता है, तब भी यह सवाल बना ही रहता है कि पाकिस्तान का विभाजन कांग्रेसियों या भारतीयों के लिए गौरव की बात क्यों होनी चाहिए? यदि यह गौरव की बात है तो भारत से कश्मीर का अलगाव या पूर्वोत्तर के प्रदेशों का अलगाव क्या पाकिस्तान या चीन के लिए गौरव की बात नहीं होगी? और फिर उन्हें इसका प्रयास नहीं करना चाहिए? और यदि वे ऐसा प्रयास करते हैं तो भारतीयों को इससे शिकायत क्यों होनी चाहिए? ऐसी शिकायत किस नैतिक आधार पर जायज ठहराई जा सकती है? जो चीज हमें पूर्णतया अस्वीकार है वहीं दूसरे के साथ करना शान की बात कैसे हो सकती है।
लेकिन जब मामला राष्ट्रवाद का हो तो ऐसा हो सकता है। और ठीक यही चीज राष्ट्रवाद को अंधराष्ट्रवाद में बदल देती है। अंध राष्ट्रवाद विवेक को नष्ट कर व्यक्तियों को और अंत में समूचे राष्ट्र तक को उन्माद की अवस्था में ढकेल देता है जो अपनी बारी में उसी राष्ट्र के लिए अत्यन्त घातक साबित होता है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय मुसोलिनी के इटली तथा हिटलर के जर्मनी का यही हश्र हुआ।
इस बात को इस समय भी महसूस किया जा सकता है। इस समय कांग्रेसी, भाजपाई, इत्यादि सभी कह रहे हैं कि भारत को साम, दाम, दंड, भेद हर चीज का इस्तेमाल कर पाकिस्तान को विभाजित कर देना चाहिए। ये राष्ट्रीय उन्मादी आजकल बलूचिस्तानी राष्ट्रीयता के सबसे बड़े समर्थक बने हुए हैं। लेकिन यदि वास्तव में पाकिस्तान टुकड़े-टुकड़े में बंट जाता है तो क्या होगा? क्या भारत उससे पैदा होने वाली क्षेत्रीय अस्थिरता को झेल पायेगा? क्या भारत में उसी तरह की अलगाववादी प्रवृत्तियां और मुखर नहीं हो जायेंगी? अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इराक व सीरिया को बांट दिया है। उसके बाद क्या हुआ? क्या वे स्वयं उसे फिर संभाल पाये?
लेकिन अंधराष्ट्रवादी उन्माद का यही चरित्र है कि वह इस तरह के सवालों से आंख चुराता है। इसीलिए यह संभव होता है कि अच्छे भले वाम-उदारवादी भी अंधराष्ट्रवादी उन्मादी बन जाते हैं। वे हिन्दू फासीवादियों से ज्यादा स्वयं को राष्ट्रवादी जताने लगते हैं।
आज कहा जाये तो, राष्ट्रवाद की यही नियति है। जब राष्ट्रवाद ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील न रह गया हो तो उसका झंडा बुलंद करना अंधराष्ट्रवाद की ओर ही ले जायेगा। एक सांस में वैश्वीकरण का जाप करते हुए दूसरी सांस में राष्ट्रवाद की बात करना कोई और परिणाम नहीं पैदा करेगा।
एक समय था जब राष्ट्रवाद प्रगतिशील था। सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद के पैदा होने के समय से अभी तीस-चालीस साल पहले तक राष्ट्रवाद प्रगतिशील था हालांकि साम्राज्यवादी देशों में इसकी प्रगतिशीलता सौ-डेढ़ सौ साल पहले ही खत्म हो गई थी। उभरते पूंजीपति ने राष्ट्र-राज्य के रूप में स्वयं को सुदृढ़ किया तथा इस तरह पूंजीवाद के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। इसी अर्थ में यह प्रगतिशील था। लेकिन जब विकसित राष्ट्र-राज्यों ने बाकी दुनिया को अपना गुलाम बना लिया तो वे प्रगतिशील नहीं रह गये। बल्कि वे प्रतिक्रियावादी हो गये। अब गुलाम देशों में आजादी की लड़ाई का संघर्ष प्रगतिशील हो गया जिसका लक्ष्य होता था आजाद राष्ट्र राज्य का निर्माण। दुनिया भर में आजादी की लड़ाई का यह संघर्ष 1980 के दशक तक चलता रहा।
आज की तारीख में भी केवल वे ही राष्ट्रवाद प्रगतिशील हैं जो अपनी आजादी के लिए संघर्षरत हैं। फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष इसमें सर्वप्रमुख है। इसके अलावा इराक, सीरिया, लेबनान, यमन, लीबिया, इत्यादि में भी ये संघर्ष चल रहे हैं।
लेकिन जहां कहीं भी इस तरह की आजादी के संघर्ष (साम्राज्यवाद से या क्षेत्रीय ताकत से मुक्ति का संघर्ष) नहीं चल रहे हैं। वहां राष्ट्रवाद प्रगतिशील नहीं है (उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की मुक्ति के संघर्ष भी प्रगतिशील है)। वहां राष्ट्रवाद प्रतिक्रियावादी है तथा शासकों के शोषण-उत्पीड़न का औजार मात्र है।
इस तथ्य पर गौर करें। राष्ट्रवाद का आधार है राष्ट्र राज्य। और यह पूंजीपति वर्ग के साथ संबंध है। मध्य वर्ग भले ही राष्ट्रवाद की खूब माला जपे पर राष्ट्र राज्य पर कब्जा पूंजीपति का होता है। और आज पूंजीपति वर्ग वैश्वीकरण का हामी है। राष्ट्र राज्य के रूप में अपने घरेलू बाजार का पर्याप्त दोहन करने के बाद वह सारी दुनिया में व्यवसाय कर रहा है और सारी दुनिया के पूंजीपतियों के साथ मिल-जुलकर कारोबार कर रहा है। वह स्वयं राष्ट्रपारी हो गया है। लेकिन यही वैश्वीकृत या राष्ट्रपारी पूंजीपति वर्ग अपने-अपने देशों में राष्ट्रवाद को हवा दे रहा है। वह केवल इसीलिए यह कर रहा है कि वैश्विक होड़ में वह कुछ अतिरिक्त फायदा उठा सके।
पूंजीपति वर्ग के इन कुटिल कदमों का वीभत्स परिणाम हो रहा है हालांकि वह पूंजीपति वर्ग के फायदे में है। जरा सोचें। पिछले अस्सी साल से अमरीकी साम्राज्यवादी दुनिया पर राज कर रहे हैं। इन सालों में उन्होंने दुनिया को बेतहाशा लूटा है। इस लूटपाट के लिए इन्होंने न जाने कितने देशों पर हमला कर उन्हें तबाह किया। न जाने कितने देशों में इन्होंने तख्तापलट करवाये। न जाने कितने राजनेताओं की हत्याएं करवाईं। करोड़ों लोग इनकी क्रूर हिंसा का शिकार हुए। आज ये ही अमरीकी साम्राज्यवादी अपने देश में राष्ट्रवाद को हवा दे रहे हैं। उनका लंपट-दुराचारी और मुंहफट राष्ट्रपति नारा दे रहा है- ‘अमेरिका को फिर महान बनाओ’। फिर महान क्यां बनाओ? इसलिए कि सारी दुनिया में अमरीकी लूटपाट और हिंसा पहले की तरह चलती रहे। इस तरह की महानता को चाहने वाले किस तरह के राष्ट्रवादी हो सकते हैं? इस राष्ट्रवाद का क्या चरित्र हो सकता है? यह इससे दीख रहा है कि अमरीकी अवाम का एक हिस्सा इजराइली जियनवादियों द्वारा गाजा में किये जा रहे नर-संहार को स्वीकार कर रहा है। अमरीकी साम्राज्यवादियों के समर्थन-सहयोग के बिना यह नर-संहार एक दिन भी जारी नहीं रह सकता।
पूंजीपति वर्ग पूरी बेहयाई से इस राष्ट्रवाद का इस्तेमाल कर रहा है। इसके लिए देशों का फर्जी इतिहास गढ़ रहा है। इस फर्जी इतिहास की घुट्टी लोगों को पिलाई जा रही है जिससे उन्हें पूंजीपति वर्ग के हित में सरकारों के पीछे गोलबंद किया जा सके। उन्हें राष्ट्रीय उन्माद या अंधराष्ट्रवाद में धकेल कर उनके जनवादी अधिकारों को छीना जा रहा है। उन्हें मिलने वाली राहत में कटौती की जा रही है।
इस अंधराष्ट्रवाद का एक वीभत्स पहलू यह है कि यह अक्सर ही कमजोरों के खिलाफ लक्षित होता है। बाह्य और आंतरिक तौर पर उसका निशाना अक्सर कमजोर लोग होते हैं। अफगानिस्तान या इराक पर हमला करते समय अमरीकियों को किस बहादुरी का एहसास हुआ होगा, यह कहना मुश्किल है। वह जो भी रहा हो, अत्यन्त जुगुप्सित रहा होगा। तबाह, बरबाद देशों पर आसमान से बमबारी किस भावना का संचार कर सकती है? अत्यन्त जुगुप्सित किस्म का परपीड़ा आनंद ही इसका परिणाम हो सकता है। इसी तरह आंतरिक तौर पर अत्यन्त कमजोर व असहाय अप्रवासी मुसलमानों को निशाना बनाने में भी वही परपीड़ा का आनंद हो सकता है।
भारत को लें। बांग्लादेश से यहां आये लोगों या रोहिंग्या लोगों पर एक नजर डाल लेना ही किसी को आश्वस्त कर देने के लिए काफी होगा कि वे देश में सबसे दीन-हीन लोग हैं? फिर उनसे किस आधार पर घृणा की जा सकती है? 140 करोड़ के देश के लिए ये कुछ लाख दीन-हीन लोग कैसे खतरा पैदा कर सकते हैं? लेकिन फिर भी अंधराष्ट्रवाद इनके प्रति लोगों में नफरत और भय जगाने में कामयाब होता है। इनको भारत सरकार जब क्रूरता से सीमा पार ढकेलती है या समुद्र में जबरन उतार देती है तब कोई करुणा नहीं बल्कि देशभक्ति का गर्व पैदा होता है। यह परपीड़ा आनन्द नहीं तो और क्या है?
दुनिया में अभी हाल तक बहादुरी के सारे किस्से किसी कमजोर द्वारा बलशाली का मुकाबला करने के रहे हैं। डेविड द्वारा गोलियाथ का मुकाबला करने के किस्से रहे हैं। एकलव्य द्वारा अर्जुन का मुकाबला करने के किस्से रहे हैं। जब देशों ने आजादी की लड़ाईयां लड़ीं तब भी यही था- कमजोर द्वारा बलशाली का मुकाबला। गुलाम द्वारा गुलाम बनाने वालों का मुकाबला। इसी में वीरता थी। इसी में शौर्य था। इसी में गौरव था। प्रगतिशील राष्ट्रवाद ऐसा ही था।
लेकिन प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद या अंधराष्ट्रवाद ऐसा नहीं है। इसमें बलशाली द्वारा कमजोर को सताया जाना शौर्य या वीरता है। सताया जाने वाला जितना कमजोर या दीन-हीन होगा उसमें परपीड़ा सुख उतना ही ज्यादा होगा। बलशाली से डरना और कमजोर को सताना इस राष्ट्रवाद की खासियत है। यह यूं ही नहीं है कि यह राष्ट्रवाद क्रूर साम्राज्यों से प्रेरणा लेता है। एर्दोगान स्वयं को अतोमन साम्राज्य का वारिस समझता है और हिन्दू फासीवादी प्राचीन काल के किसी काल्पनिक हिन्दू राष्ट्र से अभिभूत होते हैं जो अफगानिस्तान से इंडोनेशिया तक फैला हुआ था।
जैसा कि पहले कहा गया है, आज राष्ट्रवाद की नियति है कि वह अंध राष्ट्रवाद में बदल जाये क्योंकि राष्ट्रवाद ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील नहीं रह गया है। इसीलिए वाम उदारवादी भी अंध राष्ट्रवादी बनने के लिए अभिशप्त हैं। और जब उनकी होड़ हिन्दू फासीवादियों से हो तो वे भी उन्मादी और इसलिए क्रूर हो ही जायेंगे।
लेकिन कुछ वाम उदारवादी उन्माद और क्रूरता की अवस्था तक जाने से हिचक जाते हैं। उनका भला मन घबरा उठता है। ऐसे में वे हिन्दू फासीवादियों से अलग राष्ट्रवाद की बात करने लगते हैं। वे अपनी ही तरह के किसी भले राष्ट्रवाद की कल्पना में डूब जाते हैं।
लेकिन मानवीय चेहरे वाला राष्ट्रवाद कैसे अस्तित्व में आ सकता है? मानवीय चेहरे वाले पूंजीवाद व मानवीय चेहरे वाले साम्राज्यवाद की तरह मानवीय चेहरे वाला राष्ट्रवाद भी क्या केवल छलावा मात्र नहीं है?
जैसा कि पहले कहा गया है, पहले का प्रगतिशील राष्ट्रवाद या तो सामंतवाद के खिलाफ राष्ट्र राज्य के निर्माण के संघर्ष में पैदा हुआ था या फिर किसी बाहरी ताकत द्वारा थोपी गयी गुलामी के खिलाफ संघर्ष में। अक्सर ही ये दोनों संघर्ष आपस में घुलमिल जाते थे। अब जब ये दोनों संघर्ष न हों तो मानवीय चेहरे वाला राष्ट्रवाद कहां से पैदा हो सकता है।
कोई कह सकता है कि यह ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की धारणा से पैदा हो सकता है जिसके अनुसार सारी दुनिया ही अपना परिवार है। लेकिन भारत में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की माला जपने वाले हिन्दू फासीवादी ही सबसे ज्यादा उन्मादी अंधराष्ट्रवादी हैं जो अफगानिस्तान से लेकर इंडोनेशिया तक सारे देशों को हड़प लेने का मंसूबा पालते हैं।
नारे की बात छोड़ भी दें तो कोई कह सकता है कि पंचशील के सिद्धान्तों पर चलते हुए या संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा पर चलते हुए देशों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ते कायम हो सकते हैं और सारे देश अपनी भलाई के बारे में सोचते हुए शांतिपूर्ण-सहअस्तित्व में जी सकते हैं। राष्ट्रवादी होना इस सबमें आड़े नहीं आता, बल्कि इस सबमें मदद ही करता है।
इस तरह की भली बातों की कलई तब खुल जाती है जब पिछले सत्तर-अस्सी साल के इतिहास पर नजर दौड़ाते हैं। तब पाते हैं पंचशील के सिद्धांत या संयुक्त राष्ट्र का घोषणा पत्र देशों के बीच जंग को नहीं रोक पाये। और तब राष्ट्रवाद अंधराष्ट्रवाद में तब्दील हो गया। भारत-चीन युद्ध के समय भारत में माहौल इसका एक अच्छा उदाहरण है।
वैसे भी सदिच्छाएं किसी सामाजिक परिघटना का आधार नहीं बन सकतीं। यदि राष्ट्रवाद को अंधराष्ट्रवाद में तब्दील होने से रोकना है तो केवल सदिच्छा पर्याप्त नहीं होगी।
राष्ट्रवाद एक ऐतिहासिक परिघटना है जिसका पहले प्रगतिशील पहलू प्रधान था, अब प्रतिक्रियावादी पहलू प्रधान है। समाज की गति में इसकी जड़ें थीं- पूंजीवाद की उत्पत्ति और विकास में। प्रगतिशील राष्ट्रवाद ने समाज को आगे ले जाने का काम किया। अब प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद समाज के आगे जाने में बाधा बन रहा है। और पूंजीपति वर्ग अंधराष्ट्रवाद के रूप में इसका इस्तेमाल कर रहा है। इसका इस्तेमाल तात्कालिक और दूरगामी दोनों दृष्टि से हो रहा है- तात्कालिक मुनाफा बढ़ाने के लिए भी तथा अपनी सड़ी-गली पूंजीवादी व्यवस्था की रक्षा में। यदि गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी से बेहाल मजदूर-मेहनतकश जनता का ध्यान अपने पूंजीपति वर्ग पर केन्द्रित होने के बदले पड़ोसी देश पर केन्द्रित हो जाये तो इससे अच्छा क्या होगा? यदि यह जनता पूंजीपति वर्ग को अपना दुश्मन मानने के बदले पड़ोसी देश की जनता को अपना दुश्मन मानने लगे तो इससे अच्छा क्या होगा।
इस प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद या उन्मादी अंधराष्ट्रवाद के बदले किसी किस्म के प्रगतिशील राष्ट्रवाद को पेश करना ठीक नहीं होगा। यह इसलिए कि समाज की गति इसकी मांग नहीं करती। समाज की गति मांग करती है कि सारी दुनिया से पूंजीवाद खत्म हो तथा उसी के साथ उसकी राष्ट्र राज्य की सीमाएं भी खत्म हों। निजी सम्पत्ति से मुक्त ‘वसुधैव कुटुंबकम’ वाला समाज अस्तित्व में आ जाये।
लेकिन जब तक पूंजीवाद है तब तक साम्राज्यवाद द्वारा कमजोर देशों का उत्पीड़न जारी है। तब तक देशों के भीतर राष्ट्रीयताओं का उत्पीड़न भी हो सकता है। इनके खिलाफ संघर्ष जरूरी और प्रगतिशील होगा। इनसे न तो मुंह मोड़ा जा सकता है और न उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है। गाजा में जो कुछ हो रहा है उससे आंख नहीं मूंदी जा सकती।
लेकिन इस बात को रेखांकित करना होगा कि इनके खिलाफ संघर्ष सही दिशा में तभी चल सकता है जब उन्हें पूंजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी आम संघर्ष का हिस्सा माना जाये। पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे के आम संघर्ष का हिस्सा माना जाये। इसी के जरिये अंधराष्ट्रवाद या उन्मादी राष्ट्रवाद से भी बचा जा सकता है।