पश्चिम एशिया : बदलते समीकरण

A. चीन और अमरीका के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा

पश्चिम एशिया में कई दशकों से अमरीकी साम्राज्यवादियों का प्रभुत्व रहा है। अब यह प्रभुत्व कमजोर हो रहा है और चीन का प्रभाव क्षेत्र इस इलाके में बढ़ता जा रहा है। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी चिंतित हो उठे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी जब एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन को घेरने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं, तभी चीनी साम्राज्यवादियों की मध्यस्थता में साउदी अरब और ईरान के बीच समझौता हो गया। इस समझौते का प्रभाव समूचे पश्चिम एशिया के शक्ति संतुलन में आये बदलावों में देखा जा रहा है। सबसे पहले यह यमन में दिखाई पड़ा। पिछले 8 वर्षों से साउदी अरब और यमन के हौथी विद्रोहियों के बीच चल रहे युद्ध में युद्ध विराम हुआ। युद्ध बंदियों की अदला बदली हुयी और यमन की समस्या का राजनीतिक समाधान निकालने की चर्चा तेज हो गयी। इसके बाद इस क्षेत्र के देश सीरिया का अलगाव खत्म होने की प्रक्रिया तेज हुई। अभी तक अमरीकी साम्राज्यवादियों के दबाव में अरब देश सीरिया में बशर अल-असद की हुकूमत के विरुद्ध इस्लामी आतंकवादियों और अन्य विरोधियों की मदद कर रहे थे। सीरिया को अरब लीग से बाहर कर दिया गया था। लेकिन साउदी अरब और ईरान के बीच हुए समझौते के बाद सीरिया को अरब लीग में शामिल कर लिया गया और कई अरब देशों के साथ सीरिया के कूटनीतिक सम्बन्ध बहाल हो गये। इस क्षेत्र की सबसे ज्वलंत समस्या फिलिस्तीन का इजरायली यहूदी नस्लवादी कब्जाकारी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष तेज हो गया। अमरीकी साम्राज्यवादी और इजरायल जिस ईरान को अरब देशों से अलग-थलग करने की कोशिश में कामयाब हो चले थे, उसमें गम्भीर धक्का लगा। लेबनान के हिजबुल्ला संगठन का इससे हौंसला और बुलंद हो गया। वे फिलिस्तीन की आजादी की लड़ाई में और ज्यादा सक्रिय हो गये। इन सभी घटनाक्रमों से अमरीकी साम्राज्यवादी बौखला से गये हैं। वे अपने कमजोर होते जा रहे प्रभाव को फिर से बढ़ाने के लिए और सक्रिय हो गये हैं। 
    

अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश मंत्री को साउदी अरब भेजा। इसके पहले अमरीकी खुफिया एजेंसी के निदेशक की अप्रैल महीने में साउदी अरब की अघोषित यात्रा हुयी थी। इस निदेशक ने साउदी अरब की हुकूमत की इस बात की आलोचना की कि उसने सर्वप्रथम अमेरिका के माध्यम से समझौता करने के बजाय उसकी बगैर जानकारी के चीन और रूस के जरिए ईरान के साथ समझौता किया। इसके ठीक बाद अमरीकी राष्ट्रपति के सलाहकार ब्रेट मैकगुर्क साउदी अरब गये। फिर सुरक्षा सलाहकार और विदेश मंत्री की साउदी अरब जाने की योजना बनी। 
    

अमरीकी साम्राज्यवादियों के इन उच्च अधिकारियों की ये यात्रायें उनकी निगाह में इतनी महत्वपूर्ण और गम्भीर हैं कि इनमें होने वाली बहस के मुद्दों को निहायत ही गोपनीय रखा गया है। लेकिन इससे यह साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि साउदी अरब में इन उच्च अधिकारियों की यात्रा का मकसद चीन के पश्चिम एशिया में बढ़ते प्रभाव को रोकना है। 
    

इसलिए, चीन का प्रतिकार करने के लिए अमरीकी साम्राज्यवादी साउदी अरब को बहुत कुछ रियायत देने का तैयार हैं। चीन के साथ विच्छेद करने की अमरीकी साम्राज्यवादियों की वृहत भू-राजनीति के हिस्से के बतौर इन्हें वैकल्पिक वैश्विक आपूर्ति श्रंखला के रास्ते से जुड़ने का प्रस्ताव दिया जा रहा है। अमरीकी साम्राज्यवादी साउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के शासकों के साथ आकर्षक समझौते करने की बात इस शर्त के साथ कर रहे हैं कि वे चीन के साथ अपने आर्थिक व राजनीतिक सम्बन्धों को विच्छेद (डीकपल) करने की ओर ले जायें। 
    

लेकिन अमरीकी साम्राज्यवादी शायद यह भूल जाते हैं कि साउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के शासक बदली हुयी या बदलती जा रही अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में अपनी सौदेबाजी की ताकत बढ़ा रहे हैं और वे किसी खास साम्राज्यवादी देश या गुट के साथ अपने को पूर्णतया नत्थी करने को तैयार नहीं हैं। वे अमरीकी और पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादियों के साथ-साथ चीनी और रूसी साम्राज्यवादियों से भी अपने आर्थिक, राजनीतिक और कूटनीतिक सम्बन्धों को बढ़ा रहे हैं। हाल ही में अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अरबों डालर के बोइंग विमानों के सौदे का उन्हें प्रस्ताव दिया है। यह साउदी अरब के शासकों के हितों की मांग के अनुरूप है। लेकिन यदि अमरीकी साम्राज्यवादी यह सोचते हैं कि ये समझौते चीन और रूस के साथ सम्बन्धों की बलि देकर किये जायेंगे तो यह अमरीकी साम्राज्यवादियों की खामख्याली है। 
    

इस संदर्भ में यदि अमरीकी साम्राज्यवादी यह सोचते हैं कि इन प्रलोभनों के जरिये वे साउदी अरब को चीन-विरोधी बना देंगे, साउदी अरब को अमरीका का पुछल्ला बना देंगे और साउदी अरब अपनी राजनीतिक स्वायत्तता को त्याग देगा तो यह उनकी बड़ी भूल होगी। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने प्रभुत्व के अंतर्गत साउदी अरब को ले आयें, यह आज की परिस्थिति में सम्भव नहीं दीखता। 
    

यदि ऐसा होता तो जितनी तेजी के साथ साउदी अरब शंघाई सहकार संगठन की ओर झुक रहा है, वह सम्भव नहीं होता। शंघाई सहकार संगठन को पश्चिम के साम्राज्यवादी ‘‘एशियाई नाटो’’ की संज्ञा देते हैं। यह संगठन चीन के नेतृत्व में बना क्षेत्रीय संगठन है। इस समय साउदी अरब इस संगठन का संवाद हिस्सेदार (क्पंसवहनम च्ंतजदमत) है। अमरीकी साम्राज्यवादी साउदी अरब को यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि वे चीन के खिलाफ जायें और वैकल्पिक वैश्विक आपूर्ति श्रंखला का मुख्य हिस्सेदार बनें। ऐसा हो पाना सम्भव नहीं लगता। अमरीकी साम्राज्यवादी रूस-यूक्रेन युद्ध में रूस को पराजित करने की कोशिश में लगे हैं। चीन और रूस पश्चिम एशिया में अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने में सक्रिय हैं। इसमें पहले ही अमरीकी साम्राज्यवादी ओपेक के मामले में रूस को बाहर कराने में असफल हो चुके हैं। 
    

साउदी अरब के शासक इन दोनों साम्राज्यवादी गुटों विशेष तौर पर अमरीकी और चीनी साम्राज्यवादियों के बीच बढ़ रही प्रतिस्पर्धा और टकराव की संभावनाओं और वास्तविकताओं का सौदेबाजी करने में इस्तेमाल कर रहे हैं।  

B. ईरान और अमरीका के बीच होरमुज की खाड़ी में टकराव

पिछले अप्रैल महीने में ओमान की खाड़ी में ईरान का तेल ले जा रहे एक जहाज को अमरीकी बेड़े ने उसका रास्ता बदलकर बहरीन के मनामा बंदरगाह ले जाने को मजबूर किया। वहां से यह अपने देश गया। यह तेल का जहाज चीन जा रहा था। अमरीकी साम्राज्यवादियों का यह आरोप था कि ईरान द्वारा उस पर लगे प्रतिबंधों का यह उल्लंघन था। यह वस्तुतः एक समुद्री डकैती थी। उस समय ईरानी नौ सेना होरमुज की खाड़ी और ओमान की खाड़ी में अमरीकी नौसेना की कार्रवाई को रोकने में असमर्थ थी। 
    

इसके थोड़े ही समय बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध होरमुज की खाड़ी में ईरान ने जवाबी कार्रवाई की। 27 अप्रैल को इस्लामी क्रांतिकारी गार्ड कोर नेवी ने संयुक्त राज्य अमेरिका के मालिकाने के तेल टैंकर पर होरमुज की खाड़ी में कब्जा कर लिया। यह तेल मार्शल द्वीप समूह जा रहा था। इस तेल टैंकर को साउदी अरब और कुवैत में भरा जा रहा था। 
    

इस मालवाहक जहाज का बीमा अमरीकी शेवरॉन कारपोरेशन ने कर रखा था। इस जहाज पर उस समय ईरान द्वारा कब्जा किया गया जब अमरीकियों ने अरब देशों को तेल का भुगतान कर दिया था और टैंकर में तेल भर दिया गया था। यह अजीब बात है कि टैंकर का रजिस्ट्रीकरण चीन ने किया था। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी यह सोचते थे कि उनके तेल टैंकर की निर्बाध यात्रा होगी। लेकिन होरमुज की खाड़ी में ईरान ने अपने टैंकर की चोरी का बदला ले लिया। 
    

अमरीकी नौसेना के पांचवें बेड़े के वाइस एडमिरल ने अपनी असफलता को स्वीकार किया कि वे इस्लामी क्रांतिकारी गार्ड नेवी को रोकने में नाकामयाब रहे। ये घटनायें बताती हैं कि ऊर्जा स्रोतों और समुद्री और थल संचार के लिए संघर्ष तेज होता जा रहा है। ईरान की इस कार्रवाई का समर्थन चीन और रूस कर रहे थे। साउदी अरब भी ईरान के समर्थन में था। 
    

फारस की खाड़ी, ओमान की खाड़ी, बासफोरस जल डमरू मध्य, स्वेज नहर और पनामा नहर व होरमुज की खाड़ी महत्वपूर्ण ऊर्जा संचार के रास्ते हैं जिनसे तेल और व्यापारिक बेड़े पश्चिम एशिया के ऊर्जा सम्पन्न क्षेत्रों से गुजरते हैं। इस क्षेत्र के बेड़े होरमुज की खाड़ी को बंद कर सकते हैं। इससे पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में वास्तविक आर्थिक संकट और ऊर्जा स्रोतों का अभाव पैदा हो सकता है। 
    

साउदी अरब और ईरान के बीच हुए समझौते का बदला लेने के बतौर अमरीकी साम्राज्यवादियों ने ओमान की खाड़ी में आणविक पनडुब्बी को तैनात करने की इजाजत दे दी है। फिर भी, यदि यह पनडुब्बी होरमुज की खाड़ी को पार करने की कोशिश करेगी तो इसका पता लगा लिया जायेगा। इसका एक बार ईरानी पनडुब्बी फतह द्वारा पता लगा लिया गया था और इसे सतह पर आने के लिए मजबूर कर दिया गया था और फिर वहां से हटा दिया गया। 
    

ईरान और साउदी अरब को पश्चिमी देशों को तेल बेचने में कोई एतराज नहीं है। लेकिन ईरान और साउदी अरब यह नहीं चाहते कि उनके तेल का अमरीका और ब्रिटेन बीमा करें और उनकी देखरेख में उनके तेल का परिवहन हो। इसके नतीजे के बतौर ईरान इन्हीं पश्चिमी देशों को बिक्री, बीमा और निकासी के समझौते तेहरान, रियाद या बीजिंग और मास्को में उपलब्ध कराता है। ईरान की तरफ से ऐसी कार्रवाई इस क्षेत्र में अमरीका और यू.के. के प्रभुत्व को कमजोर करेगी या कम से कम उनके एकाधिकार से उन्हें वंचित करेगी और तेल उत्पादक देशों की इज्जत करना आवश्यक बना देगी। 
    

यह भविष्य में देखने लायक बात होगी कि होरमुज की खाड़ी में ‘‘टैंकर युद्ध’’ पश्चिमी एशिया क्षेत्र में ऊर्जा स्रोतों पर एक नये नौसेना टकराव को जन्म देगा या नहीं। लेकिन समय बदल रहा है। रूस, चीन और ईरान जैसी आणविक शक्तियों के साथ में, अन्य अरब राजशाहियां इस क्षेत्र में नए गठबंधन बनाने के लिए साथ-साथ आ रही हैं। हो सकता है कि थोड़े समय बाद व्यवहारवादी इजरायल शांति और व्यापार का रास्ता चुने। यह भविष्य में देखने वाली बात होगी क्योंकि समय परिवर्तनशील है व बहुत कुछ बदल रहा है। 
    

अमरीकी साम्राज्यवादी ईरान पर तमाम कठोर आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद, ईरान को अलग-थलग करने की तमाम कोशिशों के बावजूद और हुकूमत परिवर्तन करने की तमाम साजिशों के बावजूद अभी तक ईरान को झुकाने में नाकामयाब रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यह सब करना अब तो और भी मुश्किल होगा क्योंकि मौजूदा दौर में ईरान चीन और भारत के साथ गहरे आर्थिक सम्बन्धों को बढ़ा रहा है। इन देशों की बढ़ती जा रही उत्पादक क्षमताओं के लिए और ज्यादा तेल की आवश्यकता होगी। चीन ने पहले ही तेहरान के साथ एक समझौता किया है जिसके अनुसार अगले 25 वर्षों में चीन ईरान में 450 अरब डॉलर से अधिक अर्थव्यवस्था में लगायेगा। इस रकम का एक हिस्सा वह ईरान की गैस की प्रौद्योगिकी में तथा ईरानी तेल उद्योग के आधुनिकीकरण में निवेश करेगा। इस निवेश के बदले चीन ईरान का तेल खरीदेगा। इससे ईरान का अलगाव काफी कम हो जायेगा। 
    

चीन के साथ बढ़ते आर्थिक सम्बन्ध और रूस के साथ व्यापक सुरक्षा सम्बन्धी घनिष्ठता ने ईरान के अलगाव को खत्म करने में मदद की है। ईरान का तेल भण्डार दुनिया में तीसरे स्थान पर है। उसके तेल व गैस के निर्यात से तथा आधुनिक उद्योगों व अवरचना में चीनी निवेश ने ईरान की आर्थिक हैसियत को बढ़ाने में योगदान दिया है। इसके साथ ही, साउदी अरब के साथ होने वाले समझौते ने अरब देशों के साथ इसकी वैमनस्यता को खत्म या कम कर दिया है। यही वह ताकत है जिसके बल पर वह होरमुज की खाड़ी में अमरीकी साम्राज्यवादियों को चुनौती देने की स्थिति में आ गया है। समय के साथ हर चीज बदल रही है। 

 

आलेख

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