‘सामाजिक न्याय’ के झण्डे में छेद ही छेद

    इस वक्त ‘सामाजिक न्याय’ का मुद्दा गरमाने के लिए नीतिश कुमार, एम.के.स्टालिन से लेकर राहुल गांधी ने कमर कसी हुयी है। ‘सामाजिक न्याय’ को सुनिश्चित कराने के लिए जातिगत जनगणना की मांग की जा रही है। अपनी बातों को जोर व व्यावहारिक रूप देने के लिए नीतिश कुमार ने बस्तर में जातिगत जनगणना के काम को जोर-शोर से चलाया हुआ है। यह दीगर बात है कि बिहार में जातिगत जनगणना के काम में संविदा पर रखे जिन शिक्षकों व कर्मचारियों को झोंका गया है वे काम के बोझ के तले दबे हुए हैं और वे अपने लिए ‘न्याय’ की मांग भी नहीं कर सकते हैं। 
    ‘सामाजिक न्याय’ एक भ्रामक शब्दावली है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है मानो समाज के सभी शोषित-उत्पीड़ित-वंचितों के लिए न्याय की मांग की जा रही है। परन्तु असल में इसका अर्थ है कि सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग (ओ बी सी) में आने वाली जातियों को उनकी संख्या के अनुरूप आरक्षण मिले। हाल में राहुल गांधी ने जाति जनगणना के साथ यह मांग भी उठायी कि आरक्षण पर लगी 50 प्रतिशत की सीमा को खत्म कर आबादी में जिस जाति की जितनी हिस्सेदारी है उसके अनुरूप उसकी भागीदारी हो। आरक्षण एक नन्हा सा कदम है परन्तु इस कदम से ‘सामाजिक न्याय’ आधा-अधूरा ही रहता है। 
    ‘सामाजिक न्याय’ की मांग एक लोकलुभावन मांग है। इसे इस वक्त एक चुनावी दांव के रूप में भी देखा जा रहा है। यह माना जा रहा है कि इसके जरिये विपक्षी पार्टियां हिन्दू फासीवादी पार्टी भाजपा और उसके मातृ संगठन आर एस एस को घेरना चाहती हैं और आम चुनाव में जीत हासिल करना चाहती हैं। इसे लोकप्रिय शैली में कमण्डल को रोकने के लिए ‘मण्डल-2’ की रणनीति की भी संज्ञा दी जा रही है। 
    यह बात ठीक है कि जाति जनगणना की मांग ने फिलहाल भाजपा की हालत सांप-छछूंदर की जैसी कर दी है। वह न तो खुलकर इस मांग का विरोध कर पा रही है और न ही समर्थन। ‘सामाजिक न्याय’ के झण्डाबरदार भाजपा की इस हालत का पूरा-पूरा चुनावी लाभ उठा लेना चाहते हैं। तमिलनाडु की डी एम के पार्टी ने मण्डल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने वाले ्रप्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की आदमकद प्रतिमा को तमिलनाडु में स्थापित करने का फैसला लिया है ताकि वह अपने ‘सामाजिक न्याय’ के मुद्दे को और ऊंचा बुलंद कर सके। 
    ‘सामाजिक न्याय’ की मांग मूलतः हिन्दू धर्म के अनुयाईयों तक ही सीमित हो जाती है। यद्यपि जातिगत विभाजन और भेदभाव से कोई भी धर्म मूलतः नहीं बचा है। (सिर्फ पारसी या यहूदी जैसे बेहद अल्पसंख्या वाले ही अपवाद हो सकते हैं)। ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, सिक्ख जैसे धर्मों में जातिगत विभाजन और भेदभाव मौजूद है। पर ईसाई-मुस्लिम धर्म में जातिगत आरक्षण का लाभ गैर हिन्दू होने के कारण मुख्यतः नहीं मिलता है। इस तरह से ये धर्म सामाजिक न्याय की इस मांग के दायरे से बाहर हो जाते हैं। 
    ‘सामाजिक न्याय’ की मांग पर इस आधार पर भी औचित्य खड़ा किया जाता है कि जब देश में सरकारी नौकरियां सिमटती गयी हैं और शिक्षा का निजीकरण जारी है तो ‘सामाजिक न्याय’ कितना कारगार हो सकता है। और जिन लोगों को सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी तो उनके लिए ‘सामाजिक न्याय’ के झण्डाबरदार क्या करेंगे। कांग्रेस ने ज्यादा बड़ा दांव चलते हुए निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की बात पहले ‘भोपाल घोषणापत्र’ के जरिये और अब अपने ‘रायपुर महाधिवेशन’ के जरिये पुनः रखी थी। और आजकल तो राहुल गांधी बाबा साहेब अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम के नारों-जुमलों को नये अंदाज में दुहरा रहे हैं। 
    ‘सामाजिक न्याय’ की एक बड़ी सीमा यह है कि यह भारतीय समाज में मौजूद जाति व्यवस्था के सम्पूर्ण उन्मूलन को अपने लक्ष्य में नहीं लेता है। इसके उलट यह विभिन्न जातियों, उप-जातियों व अन्य सामाजिक समूहों, जन जाति समूहों को अपने-अपने जातिगत आधार पर एकजुट होने और सामाजिक-राजनैतिक दबाव समूह में बदल देता है। और एक ओर यह जहां जातिगत विभाजन व भेदभाव को नये ढंग से बल प्रदान करता है वहां दूसरी ओर यह ऐसे राजनैतिक नेताओं को तैयार करता है जो अपनी जाति, उप-जाति, जनजाति के ठेकेदार बन जाते हैं। ये ठेकेदार अपने राजनैतिक कैरियर को इस आधार पर परवान चढ़ाते हैं। और इनके इस काम से जाति, उप-जाति का कोई भला होता हो या न होता हो परन्तु ये एक नये रईस या कठोर शब्दों में नये राजनैतिक माफिया बनकर उभर आते हैं। जमे-जमाये राजनैतिक माफियाओं को इनसे भारी दिक्कत होती है और उनके राजनैतिक जातिगत समीकरणों का उलट-पुलट होना जरूरी हो जाता है। जमे-जमाये राजनैतिक माफिया सामाजिक न्याय का खुले-छिपे ढंग से विरोध करने लगते हैं। 
    जो बातें ‘सामाजिक न्याय’ के संदर्भ में लागू होती हैं वहीं बातें कुछ-कुछ बदले हुए संदर्भों में महिला आरक्षण के संदर्भ में भी लागू हो जाती हैं। ‘सामाजिक न्याय’ के विरोधी महिला आरक्षण के भी विरोधी साबित होते हैं और भारतीय संसद में तो यह तमाशा भी खूब हुआ कि जो ‘सामाजिक न्याय’ के पैरोकार हैं वे महिला आरक्षण के मुखर विरोधी बनकर उभरे। 
    ‘सामाजिक न्याय’ के झण्डे के नीचे सारी भाजपा विरोधी पार्टियों को एकजुट करने की कोशिश में लगे हुए राजनैतिक नेताओं का अपना इतिहास विरोधाभासों से भरा रहा है। स्वयं नीतिश कुमार कुछ माह पूर्व भाजपा के साथ थे। मुलायम सिंह, कभी राजग में तो शामिल नहीं हुए परन्तु उनकी भाजपा से खुली-छिपी जुगलबंदी देखने को मिलती रही। विपक्षी पार्टियों के इतर कई भाजपा, फासीवाद विरोधी बुद्धिजीवी और वाम उदारतावादी ‘सामाजिक न्याय’ को भाजपा के हिन्दू साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की काट के रूप में देखते हैं। परन्तु इतिहास ने यह साबित कर दिया है कि कमण्डल को मण्डल के जरिये खास चुनौती नहीं दी जा सकती है। और तब तो और नहीं जब कई मण्डल समर्थक कमण्डल में जाने को तैयार बैठे रहते हों। 
    यहां यह बात भी ध्यान रखनी होगी कि हिन्दू फासीवाद का माई-बाप देशी-विदेशी वित्तीय पूंजी है। एकाधिकारी घराने हैं। अडाणी-अम्बानी-टाटा-बिडला-मित्तल हैं। हिन्दू फासीवादी ताकत को किसी चुनावी मैदान में हरा भर देने से यह अर्थ कभी नहीं निकलता है कि उनका सर्वनाश हो गया है। उनका सर्वनाश तो किसी मजदूर क्रांति के जरिये ही किया जा सकता है। 
    कदाचित यही बात वैज्ञानिक अर्थों में ‘सामाजिक न्याय’ के संदर्भ में भी लागू होती है। सामाजिक न्याय की पहली आधारशिला सामाजिक क्रांति के जरिये ही रखी जा सकती है। ऐसी सामाजिक क्रांति आज के संदर्भों में समाजवादी क्रांति होगी जो कि व्यक्तिगत मालिकाने का खात्मा कर देगी। वहां पूंजी का नहीं श्रम का राज होगा। सामाजिक क्रांति को सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए जाति व्यवस्था को अपने निशाने पर लेना होगा। जाति व्यवस्था का सम्पूर्ण उन्मूलन ही सामाजिक न्याय को संभव बना सकेगा। अर्थव्यवस्था से लेकर संस्कृति, विचार, सोच जहां-जहां भी जाति व्यवस्था का आधार-मूल्य मौजूद है वहां उनका उन्मूलन करना होगा। जब सामाजिक क्रांति हर व्यक्ति को उसकी योग्यतानुसार कार्य सुनिश्चित कर देगी, जब समाज में बराबरी, आजादी, भाईचारा का आधार दृढ़ से दृढ़ होता जायेगा तब वास्तविक अर्थों में सामाजिक न्याय सुनिश्चित होगा। ऐसे सामाजिक न्याय का कोई जातिगत आधार नहीं होगा। इसलिए किसी किस्म के आरक्षण की कोई दरकार न होगी। 

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