शांति का रास्ता क्रांति से होकर जाता है

‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ की वर्षगांठ (7 नवम्बर) फिर करीब है। पूरी दुनिया में मजदूर-मेहनतकश इस क्रांति की याद में जुलूस-प्रदर्शन करेंगे। क्रांति को याद करेंगे और क्रांति का संकल्प लेंगे। इस अवसर पर मजदूर-मेहनतकश याद करेंगे कि कैसे वे दिन थे जब रूस सहित सोवितय संघ में उनका लाल परचम लहराता था और पूरी दुनिया के शोषक-उत्पीड़कों के मन में खौफ पैदा करता था। कैसे उस वक्त औपनिवेशिक गुलामी में जकड़े देशों में आम जनों में मुक्ति की आकांक्षा बलवती होती थी। और कैसे वे मजदूरों की सत्ता से प्रेरणा पाकर अपनी मुक्ति की लड़ाई को तीव्र से तीव्रतर कर रहे थे। 
    
वह भी एक जमाना था जब लगता था कि वह दिन अब दूर नहीं जब पूरी दुनिया से शोषक-उत्पीड़कों का राज खत्म हो जायेगा। हर देश में लाल परचम लहरायेगा। हर देश के असली मालिक मजदूर-मेहनतकश होंगे। न कहीं शोषण रहेगा और न कोई किसी का उत्पीड़न करेगा। 
    
अक्टूबर क्रांति एक ऐसे दौर में हुयी जब पहला विश्व युद्ध चल रहा था। पूंजीवादी राज्य दो खेमों में बंटे थे। उनके हितों की टकराहट से पैदा हुयी इस भयावह जंग में लाखों निर्दोष लोग अपनी जान खो रहे थे। युद्ध की लपटों से पूरी दुनिया झुलस रही थी। बोल्शेविक क्रांतिकारियों के नेतृत्व में रूस के मजदूरों ने घोषण की थी ‘साम्राज्यवादी युद्ध को गृह युद्ध में बदल दो’। और बोल्शेविकों के नेतृत्व में मजदूरों-किसानों-सैनिकों ने अक्टूबर क्रांति के जरिये पूरी दुनिया को वह राह दिखला दी थी जिसके जरिये शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति मिल सकती थी। युद्धों का अंत हो सकता था। 
    
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ की पहल व सबसे महत्वपूर्ण घोषणा शांति की थी। लेनिन के नेतृत्व में बनी क्रांतिकारी सरकार ने रूस को पहले विश्व युद्ध से अलग कर लिया और पूरी दुनिया के मजदूरों-मेहनतकशों को पैगाम दिया कि शांति का रास्ता क्रांति से होकर जाता है। 
    
इस वक्त दुनिया में दो भीषण युद्ध चल रहे हैं। पहले युद्ध को तो चलते हुए महीनों गुजर गये हैं। यह युद्ध रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा है। असल में युद्ध रूसी साम्राज्यवादियों और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच है। अधिकांश साम्राज्यवादी सं.रा.अमेरिका के पीछे हैं। चीनी साम्राज्यवादियों की मिलीभगत रूसी साम्राज्यवादियों से है। इस युद्ध में हजारों-हजार लोग मारे जा चुके हैं और लगभग यूक्रेन की आधी आबादी वहां से पलायन कर चुकी है। 
    
दूसरा भीषण युद्ध इजरायल और फिलीस्तीन के बीच चल रहा है। इस युद्ध में भी यूक्रेन युद्ध की तरह हालात भयावह हैं। कई दिनों से चल रहे युद्ध में हजारों फिलीस्तीनी मारे जा चुके हैं। इस युद्ध में इजरायल के साथ अमेरिकी व अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादी हैं। फिलीस्तीन अपनी मुक्ति की लड़ाई दशकों से लड़ रहा है। 7 अक्टूबर को हमास के लड़ाकों ने इजरायल के ऊपर जो हमला बोला उसके प्रति-उत्तर में इजरायल ने फिलीस्तीन की गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक में कहर बरपा दिया है। चंद दिनों में कई हजार फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं। इजरायल ने पहले तो गाजा पट्टी की नाकाबंदी की, बिजली-पानी-ईंधन की सप्लाई बंद की फिर बम बरसाये। इजरायल के धूर्त-क्रूर शासकों ने अस्पतालों पर भी बम बरसाने में गुरेज नहीं किया। यह युद्ध निर्दोष मजदूरों-मेहनतकशों से बहुत बड़ी कीमत वसूल रहा है। 
    
युद्धों का अंत कैसे होगा? इस विषय पर जब कभी मजदूर-मेहनतकश गहराई से विचार करेंगे तब वे बार-बार महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति को याद करेंगे। शांति का रास्ता क्रांति से होकर ही जाता है। दूसरे शब्दों में अन्यायपूर्ण युद्धों का खात्मा मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश क्रांतिकारी संघर्षों के जरिये ही कर सकते हैं। 
    
पूंजीवाद का इतिहास यही बतलाता है कि युद्ध इस व्यवस्था में अनिवार्य हैं। पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बाद भी दुनिया में युद्धों का अंत नहीं हो सका। एक भी साल ऐसा नहीं बीता जब साम्राज्यवादियों के हमले अथवा उनके उकसावे के कारण कोई न कोई देश युद्ध का शिकार न हुआ है। युद्ध एक देश और दूसरे देश के बीच ही नहीं होता कई-कई देशों में तो शासकों द्वारा अपने ही देश की जनता के किसी एक हिस्से के खिलाफ युद्ध छेड़ा हुआ होता है। इस युद्ध को कभी आतंकवाद के खिलाफ तो कई दफा अलगाववाद के खिलाफ तो कभी शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने वाले विद्रोहियों के खिलाफ छेड़ा जाता है। 
    
दूसरे विश्व युद्ध में अनुमान है कि करीब 5 करोड़ लोग मारे गये थे। दूसरे विश्व युद्ध से अब तक चले विभिन्न किस्म के युद्धों में इतने ही या इससे ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद ने अपनी युद्ध-मशीन को एक भी दिन शांत नहीं छोड़ा है। एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका में अमेरिकी साम्राज्यवादियों की फौज हर साल ही हजारों लोगों को मार डालती है। इसके साथ यह भी सच है कि आये दिन उसकी फौज को हार का मुंह देखना पड़़ता है। ज्यादा समय नहीं बीता है जब उसकी फौज को अपना बोरिया-बिस्तर अफगानिस्तान से समेटना पड़ा था। हालांकि इसके पीछे चीन-रूस सरीखे साम्राज्यवादी भी थे जो तालिबान की खुले-छिपे ढंग से मदद कर रहे थे। 
    
आज के दिन युद्ध से लहूलुहान देशों की संख्या देखी जाये तो वह काफी ज्यादा है। प. एशिया के कई देश युद्ध की आग में बरसों से झुलस रहे हैं। यही हाल अफ्रीका महाद्वीप के कई देशों का है। 
    
युद्ध पूंजीवादी-साम्राज्यवादी दुनिया में कभी खत्म नहीं हो सकते हैं। इनका अनवरत सिलसिला चलता रहता है। शांतिकाल यद्यपि कभी आता भी है तो वह युद्ध की खुली-छिपी तैयारी के रूप में आता है। 
    
दुनिया में युद्धों का खात्मा तभी हो सकता है जब ऐसी दुनिया कायम हो जिसमें मजदूर-मेहनतकशों का राज एक या दो देशों में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हो। जब ऐसी दुनिया कायम होगी तब ही सब देशों में बराबरी व भाईचारे की भावना होगी। किसी देश को दूसरे देश को गुलाम बनाने, उस पर अपना प्रभुत्व कायम करने या अपना आर्थिक उपनिवेश बनाने की कोई आवश्यकता शेष नहीं रहेगी। शांति, जनवाद, समानता ऐसी समाजवादी दुनिया में स्वाभाविक होंगे। हर देश स्वाधीन होगा और हर देश की स्वाधीनता की रक्षा करेगा। 
    
आज की पूंजीवादी-साम्राज्यवादी दुनिया में यह कल्पना करना असम्भव है कि कोई देश अपने पूर्व शासकों द्वारा कब्जाये गये इलाकों को स्वाधीन कर दे। आजाद कर दे। यह काम सिर्फ मजदूरों की सत्ता वाला देश ही कर सकता है। महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति के बाद बनी क्रांतिकारी सरकार ने रूस के जार व पूंजीपतियों द्वारा कब्जाये देश फिनलैण्ड को तुरंत आजाद कर दिया था। 
    
आज स्थिति यह है रूस यूक्रेन के उन इलाकों में जहां रूसी भाषी रहते हैं वहां यह कहकर कब्जा कर रहा है कि वे रूसी हैं। यूक्रेन इन रूसी भाषाईयों का जबरदस्ती यूक्रेनीकरण कर रहा था। वहां के निवासी यूक्रेनी वण्डेरा पंथियों (फासीवादी), अमेरिकी साम्राज्यवादी व रूसी साम्राज्यवादियों के हाथ के खिलौने बने हुए हैं। इसी प्रकार इजरायल हर बीते दिन के साथ फिलिस्तीनियों की जमीन को हड़पता गया है। गाजा पट्टी व वेस्ट बैंक में इजरायल ने क्रूरता और दमन की सभी सीमाओं को लांघ दिया है। 
    
महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति ने शांति, स्वाधीनता, समानता और सबसे बढ़कर समाजवाद की जो मशाल जलायी थी उसकी रोशनी आज भी मजदूरों-मेहनतकशों के दिलों को रोशन कर रही है।  

आलेख

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है

रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले के दो वर्ष से ज्यादा का समय बीत गया है। यह युद्ध लम्बा खिंचता जा रहा है। इस युद्ध के साथ ही दुनिया में और भी युद्ध क्षेत्र बनते जा रहे हैं। इजरायली यहूदी नस्लवादी सत्ता द्वारा गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार जारी है। इस नरसंहार के विरुद्ध फिलिस्तीनियों का प्रतिरोध युद्ध भी तेज से तेजतर होता जा रहा है।

अल सल्वाडोर लातिन अमेरिका का एक छोटा सा देश है। इसके राष्ट्रपति हैं नाइब बुकेली। इनकी खासियत यह है कि ये स्वयं को दुनिया का ‘सबसे अच्छा तानाशाह’ (कूलेस्ट डिक्टेटर) कहते ह

इलेक्टोरल बाण्ड के आंकड़ों से जैसे-जैसे पर्दा हटता जा रहा है वैसे-वैसे पूंजीपति वर्ग और उसकी पाटियों के परस्पर संबंधों का स्वरूप उजागर होता जा रहा है। इसी के साथ विषय के प