उन्माद के बाद

आम चुनाव के ठीक पहले घोर धार्मिक-राजनैतिक उन्मादी माहौल के बीच आधे-अधूरे बने मंदिर में मोदी द्वारा भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा अयोध्या में कर दी गयी। पूरा देश तो नहीं परन्तु उत्तर-पश्चिम भारत इस दौरान धार्मिक उन्माद की अवस्था में पहुंचा दिया गया। प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के नाम पर उफनाया गया धार्मिक उन्माद पूर्णतया भाजपा-राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और स्वयं मोदी सरकार द्वारा प्रायोजित था। कई स्थानों पर साम्प्रदायिक तनाव व हमले की घटनायें भी घटीं, गनीमत यह रही कि ये व्यापक रूप नहीं ले पाईं। 
    
भगवान राम एक पौराणिक पुरुष या अवतार हैं। पौराणिक मान्यता अथवा पौराणिक ग्रंथों के आधार पर निर्मित साक्ष्यों के इतर उनका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। इन अर्थों में भगवान राम पौराणिक पुरुष हैं कोई ऐतिहासिक पुरुष नहीं हैं। यह बात महात्मा बुद्ध, गुरू नानक, मोहम्मद साहब आदि पर लागू नहीं होती है। वे ऐतिहासिक पुरुष होने के साथ-साथ ऐसे पौराणिक पुरुष भी हैं जिनके बारे में कई चमत्कारिक पौराणिक कथाएं लोक-प्रचलित रही हैं। आदि शंकराचार्य, संत कबीर, बाबा गोरखनाथ, चैतन्य महाप्रभु आदि भी ऐतिहासिक पुरुष हैं। 
    
भगवान राम क्योंकि एक पौराणिक पुरुष हैं इसलिए उनका जन्म स्थान एक मिथकीय धारणा है। जितने किस्म की रामकथायें लोकप्रचलित रही हैं उतने ही किस्म के आख्यान भगवान राम के जन्म स्थान से लेकर उनके जीवन के बारे में रहे हैं। हिन्दू धर्म के एक बड़े हिस्से में राम को देवपुरुष तो माना जाता रहा है परन्तु उनकी पूजा व मंदिर बहुत प्रचलित नहीं रहे हैं। बाबरी मस्जिद जहां थी वही स्थान राम का जन्म स्थल रहा है यह संगठित राजनैतिक हिन्दू फासीवादी आंदोलन की प्रचारित धारणा रही है। बाबरी मस्जिद का गिराया जाना जहां इस आंदोलन के पहले लक्ष्य में था तो राम मांदिर का निर्माण इसके साथ जुड़ा हुआ दूसरा लक्ष्य था। भारत के शासक वर्ग द्वारा पालित-पोषित हिन्दू फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने बाबरी मस्जिद के ध्वंस और राम मंदिर के निर्माण के जरिये हिन्दू मतदाताओं को छलते हुए अपने हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य के लिए एक मजबूत आधार पिछले तीन-चार दशकों में आसानी से हासिल कर लिया। 
    
हिन्दू फासीवाद को पालने-पोषने में भारत के शासक वर्ग पूंजीपति वर्ग की जहां महत्वपूर्ण भूमिका रही है वहां इसकी पहली पार्टी कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकार व नेताओं की भी कम भूमिका नहीं रही है। वे भी बाबरी मस्जिद ध्वंस और राम मंदिर निर्माण के कार्यों में अगर पहले यजमान नहीं तो दूसरे व तीसरे यजमान हमेशा रहे हैं। गोविन्द बल्लभ पंत, इंदिर गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव जैसे कांग्रेसी नेताओं के बिना बाबरी मस्जिद का ध्वंस व राम मंदिर का निर्माण कभी सम्भव नहीं होता। इसलिए जब कांग्रेस पार्टी धर्मनिरपेक्षता की बात करती है तो वह शुद्धमशुद्ध पाखण्ड कर रही होती है। 
    
धर्मनिरपेक्षता के मसले पर थोड़ा-बहुत सरोकार जो कुछ है वह सरकारी वामपंथियों व कुछेक द्रविण पार्टियों का होता है बाकी सपा-बसपा, राजद-जद(यू) जैसी पार्टियां अपने अवसरवादी धार्मिक रुख के साथ में धर्म निरपेक्षता का इस्तेमाल राजनैतिक पायदान के रूप में ही करती हैं। इसलिए जब राममंदिर प्राण-प्रतिष्ठा का उन्मादी राजनैतिक समारोह आयोजित किया गया तो भारत की ज्यादातर राजनैतिक पार्टियों के पास कहने या करने को कुछ नहीं था। अधिकांश बस ये चाहती थीं कि किसी तरह यह वक्त गुजर जाये तो वह फिर अपने राजनैतिक कार्यक्रमों को आयोजित करें। ‘भारतीय राजनीति के हिन्दूकरण’ की जो अवधारणा कभी दामोदर सावरकर ने पेश की थी वह आज जाकर पूरी तरह से साकार हो गयी है। 
    
‘भारतीय राजनीति के हिन्दूकरण’ के जिस भंवर में भारत फंस गया है अब उससे उसका बाहर निकलना फिलवक्त संभव नहीं दिखायी देता है। अब इससे एक भयानक सामाजिक-राजनैतिक त्रासदी के जरिये एक समय के बाद ही, कुछ उस तरह भारत बाहर निकल सकता है, जैसे कभी जर्मनी, जापान, इटली, स्पेन आदि पिछली सदी में फासीवादी भंवर में फंसने और युद्ध की विभीषिका में झुलसने अथवा फासीवादियों से मोहभंग के बाद निकले थे। या फिर भारतीय समाज तभी इस भंवर से निकल सकता है जब भारत में मजदूर वर्ग के नेतृत्व में भारत के शोषित-उत्पीड़ित जन क्रांतिकारी पहलकदमी व जुझारूपन के साथ राजनैतिक मंच में कूद जायें। भारतीय समाज में समाजवादी क्रांति हो जाये और फासीवादियों सहित भारत के आज के शासक वर्ग को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया जाए। एक नया समाज बनाया जाए जहां धर्म नितान्त व्यक्तिगत मामला हो। धर्म की समाज, राजनीति, शिक्षा, शासन-प्रशासन में कोई भूमिका न हो। धार्मिक मामलों को धर्म के अनुयाइयों तक सीमित कर दिया जाए। और उन्हें भी कूपमण्डूकता, अंधविश्वास, कट्टरपंथ, सामाजिक कुप्रथाओं को प्रसारित करने का कोई हक न हो। धर्म की भूमिका व्यक्ति के जीवन व आस्था तक सीमित हो। 
    
हिन्दू फासीवादियों के लिए हिन्दू धर्म हमेशा से एक राजनैतिक औजार की तरह रहा है। इनके यहां धर्म को राजनैतिक-सामाजिक गोलबंदी की तरह इस्तेमाल कर घृणित राजनैतिक लक्ष्य हासिल किये जाते हैं। और भारत के सबसे बड़े पूंजीपति वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने व उसके घृणित चरित्र को छुपाने के लिए धर्म का धूर्तता से इस्तेमाल किया जाता है। हिन्दू फासीवादियों का उभार व अम्बानी-अडाणी की दौलत में बेहिसाब इजाफा अपनी कहानी आप कह देता है। 
    
हिन्दू फासीवादी धर्म के साथ जो मनमाने तौर-तरीके अपनाते हैं उसकी प्रतिक्रिया राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के विरोध में हिन्दू धर्म के प्रमुख धर्म गुरूओं खासकर बदिरानाथ पीठ के शंकराचार्य अविमुक्तेशरानन्द के मुखर विरोध में भी दिखायी दी। भारत के चारों शंकराचार्य इस समारोह में नहीं गये। उनका विरोध शुद्ध धार्मिक आधार पर था। इस समारोह को वे हिन्दू धर्मशास्त्र व परम्पराओं के विरुद्ध पाते थे। इस तरह से देखें तो हिन्दू फासीवादी हिन्दू धर्म की मान्यताओं की भी खास परवाह नहीं करते हैं। हिन्दू धर्म की अपनी खास विशेषताओं (एक देव या ईश्वर का न होना, एक केन्द्र या एक प्रमुख धर्म पुस्तक का न होना इत्यादि) को हिन्दू फासीवादी खत्म कर इसे एक खास ढंग में ढालना चाहते हैं। हिन्दू धर्म के विभिन्न मत, सम्प्रदाय, पंथ इनकी हिन्दू फासीवादी परियोजना के आड़े आ जाते हैं। हिन्दू धर्म का बहुलतावाद फासीवादियों की राह में एक खास तरह से बाधा पैदा करता है। राम के नाम पर ये एक ऐसे राम को पेश करते हैं जो युद्धोन्मादी है, आक्रामक है, मर्दवादी है, जातिवादी है। और राम के दुश्मन के रूप में ये धार्मिक अल्पसंख्यकों से लेकर उस हर व्यक्ति को पेश करते हैं जो इनकी हिन्दू फासीवादी परियोजना के खिलाफ है। 
    
मोदी का ‘देव से देश’ और ‘राम से राष्ट्र’ का सूत्रीकरण घातक है। यह अपने उल्टे रूप में राष्ट्र या देश के हितों के संदर्भ में मोदी-भाजपा-संघ से भिन्न मत रखने वालों को दुश्मनाना ढंग से निशाने पर लेने लगता है। नास्तिक, बुद्धिवादी, तार्किक व कम्युनिस्टों की तो हिन्दू फासीवादी उसी तरह से हत्या करवा दें जैसे इन्होंने पिछले दिनों पानसरे, गौरी लंकेश, दाभोलकर आदि की हत्या अपने गुर्गों के जरिये करवायी। 
    
भारत के मजदूरों-मेहनतकशों की स्थिति भविष्य में क्या होगी इसकी एक बानगी 22 जनवरी को भी देखने को मिली। केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा घोषित अवकाश के दिन वे अपनी फैक्टरी व खेतों में वैसे ही खट रहे थे जैसे अन्य दिन खटते हैं। वे चुपचाप अपना शोषण करवाते रहे। उनका चुप रहना, अनुशासित होकर काम करना, फासीवादियों और उनके आकाओं अम्बानी-अडाणी के लिए सबसे जरूरी है। उनके फायदे में तो यही है कि मजदूर वर्ग अपनी जुबान कटा ले। चुप रहे। घर से निकले और काम पर जाये। और फिर काम से अपने घर में चुपचाप लौट जाये। अपने राम, अपने अल्लाह पर कायम रहे और जब चुनाव का वक्त आये तो चुपचाप हिन्दू फासीवादियों को वोट दे। और जब वोट डालने का बंदोबस्त फासीवादी बंद कर दे तो चुपचाप इस फैसले को स्वीकार कर ले।     

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