मोदी बनाम शंकराचार्य

राम मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा सम्पन्न हो चुकी है। इसके इर्द-गिर्द भाजपा ने 2024 के आम चुनाव के लिए अपना प्रमुख एजेण्डा भी स्पष्ट कर दिया है। 2014 के चुनाव के दौरान उछाले गये विकास के नारे-वायदे अब सब बेमानी हो चुके हैं। 2024 का आम चुनाव अब खुलेआम हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिक एजेण्डे पर लड़ा जायेगा। इसमें आगे और क्या-क्या होगा, आने वाले तीन-चार महीने भारत के साथ-साथ पूरा विश्व देखेगा। 
    
राम मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा की योजना के दौरान सबसे रोचक रही- चार पीठों के शंकराचार्यों द्वारा उठाई गयी बहस। वैसे तो संघ और भाजपा के शीर्ष नेताओं, पूंजीवादी प्रचारतंत्र और ‘समझदार’ मोदी-समर्थकों ने शंकराचार्य की बातों का जवाब चुप्पी से ही देना बेहतर समझा। किन्तु कुछ छुटभैय्ये भाजपा नेताओं, साधुओं और सोशल-मीडिया पर सक्रिय संघी-भाजपाई ट्रोल आर्मी की तरफ से प्रतिक्रियायें आती रहीं। 
    
हर मुद्दे की तरह, इस मुद्दे पर भी सबसे दयनीय स्थिति उदारवादियों, वाम-उदारवादियों और कुछ वामपंथियों की रही। बिना बहस के सार को समझे हुए यह लोग शंकराचार्यों के जरिये से मोदी पर निशाना साधने की कोशिश करते रहे। 
    
अब जब प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी है, तो शंकराचार्य और यह बहस पूरी तरह से भुला दी जायेगी। ऐसा होने से पहले जरूरी है कि इस बहस के निहितार्थ और भविष्य के लिए इसमें छिपे कुछ संदेशों को समझने का प्रयास किया जाए। हिन्दू धर्म, हिन्दू फासीवाद और भविष्य के राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य को समझने के लिए कुछ मसाला इस बहस में मिलता है। 
    
सर्वप्रथम यह समझना जरूरी है कि शंकराचार्यों का भाजपा-संघ, मोदी और हिन्दुत्व की राजनीति से कोई विरोध नहीं है। बल्कि वे लोग लंबे समय से हिन्दुत्व के पैरोकार रहे हैं और आज भी उसके समर्थक हैं। मोदी और भाजपा को सत्ताशीर्ष पर पहुंचाने में उनका भी ‘आशीर्वाद’ रहा है। ऐसे में उदारवादियों का यह भ्रम कि ‘हिन्दू धर्म की हानि’ को मुद्दा बनाकर वे शंकराचार्यों के माध्यम से मोदी को निशाना बना सकते हैं, एकदम फिजूल की बात है। 
    
मोदी और शंकराचार्यों के बीच का विवाद सत्ता में भागीदारी के लिए होने वाले संघर्षों की किस्म का ही है। शंकराचार्यों को संभवतः यह भ्रम है कि हिंदुत्व किसी किस्म का मध्ययुगीन धार्मिक तंत्र (थियोक्रेसी) होगा अथवा कम से कम धार्मिक आचार्यों के परामर्श, आशीर्वाद और वरदहस्त के साथ राजनीतिक सत्ता चलेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। 
    
हिन्दुत्ववादी फासीवाद एक आधुनिक विचारधारा है। इसका मध्ययुगीन धार्मिक तंत्रों से कोई लेना-देना नहीं है। वर्तमान में हिंदुत्व को आगे बढ़ाने, सत्ता में पहुंचने और बने रहने के लिए धर्माचार्यों के नहीं बल्कि अंबानी-अडाणी सरीखे एकाधिकारी पूंजीपतियों के ‘आशीर्वाद’ की आवश्यकता है जो उन्हें मिल भी रहा है। धर्माचार्य इस हिंदुत्ववादी शासन तंत्र में एक छोटे सहयोगी की ही भूमिका में हो सकते हैं, जो आम जनता में राजनीतिक सत्ता के प्रचार-प्रसार का काम करेंगे और राजनीतिक सत्ता से मिलने वाली सुविधाओं और संरक्षण का उपभोग करेंगे। बागेश्वर धाम बाबा और रामानंदाचार्य जगद््गुरू जैसे लोग इसी श्रेणी के लोग हैं। 
    
हिन्दुत्ववादी सत्ता में सीधे भागीदारी उन्हीं बाबाओं या धर्माचार्यों की बनेगी, जो सीधे राजनीति में हैं। योगी आदित्यनाथ और ढेरों भाजपाई साधु-साध्वी इस श्रेणी में हैं। वैसे विशिष्ट तौर पर शंकराचार्यों की शिकायत यह थी भी नहीं कि उन्हें सत्ता का भागीदार नहीं बनाया गया। उनको शिकायत थी कि प्राण-प्रतिष्ठा जैसे धार्मिक काम का भी अतिक्रमण मोदी ने कर लिया, जो कि मुख्यतः धर्माचार्यों का कार्य होना चाहिए था। किन्तु ऐसा करके वे अपना धूर्ततापूर्ण भोलापन ही जाहिर कर रहे हैं। हिंदुत्व और राम मंदिर का मुद्दा पूर्णतः राजनीतिक मामला है इसलिए उससे जुड़ी हर गतिविधि राजनीतिक रंग-ढंग की ही होना तय है। शंकराचार्य इस बात को अच्छे से जानते हैं, बस वे अपनी एक सम्मानजनक स्थिति हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। महज ‘ताली बजाने वालों’ की पंक्तियों में बैठना उन्हें स्वीकार नहीं था। 
    
मोदी बनाम शंकाराचार्यों की इस बहस ने हिन्दू धर्म की बनावट के बारे में भी कुछ बातें स्पष्ट कीं। शंकराचार्यों के विरोध में जब यह बात उठी कि राम मंदिर रामानंदी सम्प्रदाय के लोगों का है, इसीलिए शंकराचार्य अपनी बात अपने पास ही रखें, तो यह ऐतिहासिक तथ्य एक बार फिर रेखांकित हुआ कि हिंदू धर्म कोई एक समांग स्वरूप वाला धर्म नहीं रहा है, बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों में बंटा रहा है। 
    
आदि शंकराचार्य अद्वैतवादी दर्शन के प्रवर्तक थे। उनके काल में ही और उनके बाद भी कई और दर्शन जैसे- विशिष्ट अद्वैतवाद, द्वैतवाद आदि दर्शन विकसित हुए, जो परस्पर एक-दूसरे के खंडन-मंडन पर आधारित थे। इन दर्शनों पर आधारित रामानुजाचार्यी, बल्लाभाचार्यी, निंबकाचार्यी, माधवाचार्यी आदि सम्प्रदाय विकसित हुए। वैष्णव, शैव, शाक्त आदि का विभाजन तो पहले से था ही। भक्ति काल में और भी सम्प्रदाय विकसित हुए। यहां तक कि आधुनिक काल में हम आर्य समाजियों का उद्भव देखते हैं। कुल जमा हिन्दू धर्म को एक समांग रूप में प्रस्तुत करना सच्चाई नहीं है, बल्कि हिंदुत्ववादी फासीवाद की योजना का हिस्सा है। 
    
हिंदुत्ववादी फासीवाद के लिए हिंदू होना धर्म से ज्यादा पहचान का मामला है। अपने एजेण्डे के लिए वे हिन्दू को एक व्यापक पहचान के रूप में प्रस्तुत करते हैं। विभिन्न सम्प्रदायों और मान्यताओं में बंटा हिंदू धर्म उनके एजेण्डे के लिए घातक है। ऐसी परिस्थितियों में ही संभव है कि सनातनी-ब्राह्मणवादी मान्यताओं के एकदम उलट खड़े गोरखपंथी (नाथपंथी) सम्प्रदाय का प्रमुख आज ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ बना हुआ है। हिंदू पहचान विशुद्ध राजनीतिक मामला है। यह दूसरी धार्मिक पहचानों के विरुद्ध राजनीतिक गोलबंदी का हथियार भर है। इस पहचान का परम्परागत धार्मिक मान्यताओं से कोई लेना-देना नहीं है। राम मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा का आयोजन इसी हिंदू पहचान के तुष्टीकरण का राजनीतिक आयोजन भर था। इस आयोजन के ‘शास्त्र सम्मत’ होने या न होने से इसके आयोजकों और जश्न मनाने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता।
    
शंकराचार्यों को इस बात से भी पीड़ा थी कि मोदी मूर्ति को स्पर्श करेंगे और वे केवल ताली बजायेंगे। ऐसा बोलकर वे कहीं न कहीं मोदी की जाति पर सवाल उठा रहे थे। वे ब्राह्मणवादी परम्पराओं-मान्यताओं के उल्लंघन से आहत दिखाई दिये। आज के हिंदू फासीवादी व्यापक हिंदू पहचान को मजबूत करने के लिए सभी जातियों को गोलबंद करने के प्रयास में लगे हुए हैं। अस्सी-नब्बे के दशक में पिछड़ी व दलित जातियों के राजनीतिक उभार ने उत्तर भारत में हिंदुत्ववादियों के अभियान को तात्कालिक तौर पर मंद कर दिया था। दक्षिण भारत में यह उभार आज भी उनके लिए अनुल्लंघनीय चुनौती बना हुआ है। इस चुनौती से निपटने के लिए हिन्दुत्ववादी फासीवादी फिलहाल व्यापक हिंदू पहचान की राजनीति कर रहे हैं। चितपावनी ब्राह्मण वाला हिंदू फासीवाद फिलहाल ठंडे बस्ते में है। इसी योजना के क्रियान्वयन के दम पर एक समय में बनिये-ब्राह्मणों की पार्टी समझे जाने वाली भाजपा आज खासकर शहरों-कस्बों में दलित व पिछड़ी जातियों के मोहल्लों में आधार बनाने में कामयाब हुई। भाजपा के फुट शोल्जर्स का बहुतायत आज यहीं से आ रहा है। यहां तक कि मुख्यमंत्रियों के बैठाये जाने में भी भाजपा इस गणित का पूरा ध्यान रख रही है। कहीं न कहीं आज संघ-भाजपा की व्यापक हिन्दू पहचान की राजनीति दलितवादियों-वामपंथियों के उनके ऊपर ब्राह्मणवादी होने के आरोपों का मुकाबला करने में कामयाब हुई है। 
    
फासीवाद आधुनिक पूंजीवादी युग की विचारधारा और आंदोलन है। अपने आधार के प्रसार के लिए ही वह पुरातनपंथी पहचानों, विचारों और मान्यताओं का इस्तेमाल करता है। किंतु उसका मकसद एकाधिकारी पूंजीवाद की सेवा करना ही है। जर्मनी-इटली में यही हुआ और भारत में भी आज यही हो रहा है। फासीवाद का मुख्य निशाना जनवाद, क्रांति और प्रगतिशीलता है। फासीवाद पूंजीवाद विरोधी क्रांति के मुकाबले पूंजीवाद को संजीवनी प्रदान करने का ही काम करता है। भारत में भी हिन्दुत्ववादी धार्मिक पहचान का लबादा ओढ़कर तमाम जनवादी व क्रांतिकारी आंदोलन का दमन-उत्पीड़न कर रहे हैं। उनका मकसद एक खास धार्मिक पहचान के विरुद्ध हिन्दुओं को लामबंद करने का है। ताकि मजदूर-किसान-बेरोजगार-महिला-आदिवासी-दलित के रूप में जीवन में पैदा होने वाले संकटों से आम जनता का ध्यान भटक सके और पूंजीवाद विरोधी गोलबंदी कमजोर पड़ जाये। यह पूंजीवादी घरानों की सत्ता को बनाये रखने का षड्यंत्र है, न कि कोई धार्मिक सत्ता स्थापित करने का आंदोलन। ऐसे में शंकराचार्य कुछ न-नुकुर के साथ इस फासीवादी राजनीति के छोटे हिस्सेदार के रूप में अंततः अपनी भूमिका स्वीकार कर लेंगे। उदारवादियों-वाम उदारवादियों का यह भ्रम कि वे ‘सच्चे हिंदू धर्म’ के नाम पर हिंदुत्ववादी फासीवाद का मुकाबला कर सकेंगे, किसी काम का नहीं है। फासीवाद को शिकस्त मजदूर वर्ग की क्रांति ही दे सकती है। 

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