यमन में शांति की दिशा में एक कदम

यमन में शांति की दिशा में एक कदम

यमन में शांति की दिशा में एक कदम

चीन की मध्यस्थता में हुए साऊदी अरब और ईरान के बीच समझौते से अशांत पश्चिम एशिया में शांति की दिशा में प्रयास शुरू हो गये हैं। इन शांति प्रयासों से इस क्षेत्र में इजरायल काफी हद तक पश्चिम एशिया के शासकों से अलग-थलग पड़ता जा रहा है। इससे भी बढ़कर अमरीकी साम्राज्यवादियों की इस क्षेत्र में प्रभुत्व की स्थिति कमजोर पड़ रही है। अभी तक अमरीका, यू.के. और फ्रांस के साम्राज्यवादी यमन में किसी भी शांति के प्रयास को असफल करते रहे हैं। यह सर्वविदित है कि 2015 से ही साऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और इनके अन्य सहयोगी देशों के हमलों का शिकार यमन रहा है। यमन पश्चिम एशिया के सबसे गरीब देशों में एक है। पिछले आठ वर्षों से यमन पर साऊदी हमलों से लाखों लोग मारे गये हैं। वहां प्रतिबंधों के चलते खाद्यान्न, दवाईयां और अन्य बुनियादी जरूरतों के अभाव में बच्चे और महिलायें मर रहे हैं। दसियों लाख लोग बेघर हो गये हैं। इसके बावजूद अलअंसार के नेतृत्व में यमन के उत्तरी हिस्से पर कब्जा बना हुआ है और वे साऊदी अरब की बमबारी का सामना कर रहे हैं।

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यमन की मौजूदा स्थिति को समझने के लिए हमें इसके निकट अतीत में जाना होगा। जब पश्चिम एशिया के देशों में ‘‘अरब बसंत’’ उठ खड़ा हुआ तो इसका असर यमन में भी पड़ा। यमन में लोग वहां की सत्ता के विरुद्ध उठ खड़े हुए। पहले विरोध प्रदर्शन आर्थिक दुर्दशा और भारी पैमाने की बेरोजगारी के विरुद्ध हुए। वहां का राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह 33 वर्षों से सत्तासीन था। वह अपनी सत्ता को अपने पुत्र के हाथ में सौंपना चाहता था। 2011 के ‘‘अरब बसंत’’ के पहले भी सालेह की सत्ता के दमनकारी कदमों के विरुद्ध सड़कों में व्यापक प्रदर्शन हुए थे।

 

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यमन में लोगों की घनघोर गरीबी और ठीक पड़ोसी देशों में व्यापक प्रचुरता के साथ ही क्षेत्रीय असमानता भी लोगों को टकराहटों की ओर ले जा रही थी। यमन के दक्षिणी हिस्सों में तेल भंडार थे। समुद्री मछलियों का व्यापार था। बंदरगाह थे। इस हिस्से के लोगों का गुस्सा 2007 से ही यमन की केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध उठता रहा था। उनकी शिकायत थी कि उनको इन संसाधनों का फायदा नहीं मिल रहा है। केन्द्र सरकार सारे संसाधनों का फायदा निचोड़कर उत्तरी हिस्से के सत्ताधारियों के हवाले कर रही है। इसी प्रकार, 2004 से ही उत्तरी हिस्से में हौथी (अल अंसार) अपनी स्वायत्तता की मांग कर रहे थे। यह आबादी शिया लोगों की थी। हौथी संगठन का दमन यमन की सरकार कर रही थी। इसके दमन को साऊदी अरब का समर्थन प्राप्त था। इसके अतिरिक्त यमन में कट्टर इस्लामपंथी भी सक्रिय थे। इन इस्लामी कट्टरपंथियों का इस्तेमाल सालेह की हुकूमत और अमरीकी साम्राज्यवादी कर रहे थे।

सालेह की हुकूमत उसके परिवार की सम्पदा और सत्ता को मजबूत करने का साधन बन गयी थी। सालेह के परिवार के सदस्य सेना और सुरक्षा के मुख्य पदों पर काबिज थे। वे महत्वपूर्ण मंत्री थे। कारखानों, तेल, कृषि और व्यापार में वे नियंत्रणकारी स्थिति में थे। दूसरे महत्वपूर्ण कबीलों के मुखिया अपने को अलग-थलग पा रहे थे।

2011 की फरवरी के अंत में, लाखों लोग सालेह की सत्ता के विरुद्ध सड़कों पर उतर गये। लोगों ने गद्दी छोड़ो! गद्दी छोड़ो! का नारा बुलंद किया। यह आंदोलन तमाम दमन और हत्याओं के बाद बढ़ता ही गया। जून में सालेह की हत्या का प्रयास हुआ और वह घायल हो गया। उसे इलाज के लिए साऊदी अरब ले जाया गया। वह सितम्बर में जब लौटा तो उसके विरुद्ध फिर व्यापक प्रदर्शन शुरू हो गये। नवम्बर में उसने अपनी सत्ता उपराष्ट्रपति मंसूर अल हादी को सौंप दी। फरवरी, 2012 में अल हादी चुनाव में विजयी हो गया।

अल हादी का सत्ता में आना दरअसल साऊदी अरब और कतर के शासकों द्वारा कराये गये हस्तक्षेप से संभव हुआ था। हादी के राष्ट्रपति बनने के बाद स्थितियां ज्यों की त्यों बनी रहीं। कुछ ही परिवारों का अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्थाओं पर नियंत्रण बना रहा। सालेह के समय के महत्वपूर्ण सैन्य अधिकारी वैसे ही बने रहे। इसके साथ ही, अमरीकी साम्राज्यवादियों ने हादी की हुकूमत के साथ सैन्य गठबंधन और बढ़ा दिया। हादी के चुनाव के ठीक बाद के महीने में अमरीकी ड्रोन हमले में 110 यमन के नागरिक मारे गये।

सत्ता की निरंतरता और साऊदी अरब व अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ उसका गठबंधन उत्तरी यमन में हौथी विद्रोहियों को दिनों दिन ताकतवर बनाता जा रहा था। जब हौथी विद्रोहियों ने यमन की राजधानी साना पर कब्जा कर लिया तो राष्ट्रपति हादी को देश छोड़कर साऊदी अरब में शरण लेनी पड़ी। साऊदी अरब, खाड़ी सहयोग परिषद, अमरीकी साम्राज्यवादी और संयुक्त राष्ट्र संघ हादी को ही यमन का राष्ट्रपति मानते रहे हैं।

हादी को फिर से सत्तासीन कराने के लिए साऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने अपने कुछ समर्थक देशों के साथ यमन में हौथी विद्रोहियों के विरुद्ध बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान छेड़ दिया। 2015 से शुरू हुए हमले का अमरीकी साम्राज्यवादी समर्थन कर रहे थे। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अरबों डालर के आधुनिक हथियार साऊदी अरब को बेचे। इन हथियारों से साऊदी अरब ने बड़े पैमाने पर नरसंहार किये। इस दौरान हौथी विद्रोही और ज्यादा ताकतवर होते गए। पिछले आठ वर्षों के दौरान हौथी विद्रोही उत्तरी यमन पर अपनी मजबूत पकड़ बनाये हुए हैं। हौथी विद्रोहियों ने साऊदी अरब के तेल भण्डारों पर हमले किये हैं। पिछले आठ वर्षों के दौरान साऊदी अरब के शासक यह समझ गये हैं कि सैन्य तरीकों से हौथी विद्रोहियों को हराया नहीं जा सकता। तब उन्होंने युद्ध विराम का सुझाव दिया। यह युद्ध विराम का समय अक्टूबर, 22 में समाप्त हो गया था। अभी न युद्ध और न शांति की स्थिति बरकरार है। अमरीकी साम्राज्यवादी यही स्थिति बनाये रखना चाहते हैं। साऊदी अरब भी यही स्थिति बनाये रखना चाहता था। लेकिन इस बीच साऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के बीच भी मतभेद उभर कर आये हैं। उधर चीन की मध्यस्थता में साऊदी अरब का ईरान के साथ समझौता हो गया है। ईरान हौथी विद्रोहियों का समर्थन करता रहा है। ऐसी स्थिति में साऊदी अरब और हौथी विद्रोहियों के बीच शांति वार्ता की शुरूवात हुई। यह ओमान के शासकों की मध्यस्थता में हो रही है।
हालांकि अमरीकी साम्राज्यवादियों के समर्थन से साऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने यमन पर आक्रमण किया था, लेकिन युद्ध के दो वर्ष बाद ही संयुक्त अरब अमीरात ने एक अलग रास्ता चुना। उसने यमन के तटवर्ती इलाकों में अपने समुद्री मार्ग को बनाने के लिए दक्षिणी यमन के इलाकों पर कब्जा करने की नीति अपनायी। इसके लिए दक्षिणी यमन में अपने पिट्ठू तैयार किये। ये दक्षिणी आंदोलन के नाम से जाने गये। यह दक्षिणी आंदोलन पुराने अलग रहे देश दक्षिणी यमन को फिर से बनाना चाहता है। दक्षिणी यमन अलग से देश के बतौर 1967 से 1990 तक था। इस दक्षिणी आंदोलन का नाम बदलकर दक्षिणी संक्रमणकालीन परिषद कर दिया गया। 2017 में संयुक्त अरब अमीरात की आकांक्षाओं को पूरा करने के मकसद से ऐसा किया गया। संयुक्त अरब अमीरात इस परिषद के जरिए इस इलाके में कब्जा जमाये हुए है।

इसके अतिरिक्त यमन के क्षेत्र में उसकी मुख्य भूमि से 350 किमी. दूर सोकोत्रा द्वीप समूह आता है। संयुक्त अरब अमीरात ने वहां पर अपनी सेना तैनात करके उस द्वीप समूह पर कब्जा कर लिया है। 2020 से वह उस पर कब्जा जमाये हुए है। इस द्वीप समूह पर उसने अपना झण्डा फहरा दिया है। उसने यमनी दूरसंचार प्रणाली को हटाकर अपनी दूरसंचार प्रणाली स्थापित कर दी है। सोकोत्रा द्वीप समूह पर कब्जा करने के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों की अगुवाई में इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात, बहराइन, मोरक्को व सूडान के बीच अब्राहम समझौता हुआ। इसके बाद संयुक्त अरब अमीरात और इजरायल के बीच कूटनीतिक, सैनिक और आर्थिक सम्बन्ध और गहराते गये।

अब्राहम समझौते में हस्ताक्षर होने के थोड़े ही दिनों बाद इजरायल के सैन्य विशेषज्ञ पर्यटकों के भेष में सोकोत्रा द्वीप में दिखाई पड़ने लगे। हौथी ने यह आरोप लगाया है कि सोकोत्रा में संयुक्त अरब अमीरात इजरायल के साथ मिलकर सैन्य और खुफिया तंत्र स्थापित कर रहा है। संयुक्त अरब अमीरात वहां के निवासियों को खदेड़ कर वहां सैन्य संस्थान व हवाई अड्डे बना रहा है।

संयुक्त अरब अमीरात इस समय यमन के 12 बंदरगाहों पर नियंत्रण किये हुए है। ये बंदरगाह अदन, मारवा, मुकतला, अल डाब्बा, बीर अली, बेल्हाफ, रुदुम, जौबाब, अल ख्वखाह, अल खौबा, बबूएना और अल नशीमा हैं। वह अल माहरा में एक नया बंदरगाह बना रहा है।

इन बंदरगाहों पर नियंत्रण करके और बाब अल-मान्दाब जल डमरू मध्य पर नियंत्रण करके वह (संयुक्त अरब अमीरात) दुनिया के सबसे व्यस्त जहाजों के आवागमन के मार्ग पर प्रभुत्वशाली स्थिति में आ जायेगा।

इजरायल द्वारा सोकोत्रा द्वीप समूह पर नियंत्रण उसे ईरान के विरुद्ध लड़ाई में मददगार होगा। चूंकि ईरान की फारस की खाड़ी से लेकर लाल सागर तक की गतिविधियां इन दोनों देशों के लिए खतरा हैं, इसलिए इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात का हित ईरान के विरुद्ध एक हो जाता है।

संयुक्त अरब अमीरात दक्षिणी संक्रमणकालीन परिषद का गठन करके और सोकोत्रा द्वीप समूह पर कब्जा करके साऊदी अरब के साथ टकराव में आ गया है। संयुक्त अरब अमीरात के इस कब्जाकारी कदम को न सिर्फ इजरायल का सहयोग व समर्थन प्राप्त है बल्कि अमरीकी साम्राज्यवादी और नाटो के देश उसके समर्थन में हैं।

साऊदी अरब के समक्ष यह एक बड़ी बात है। वह इस क्षेत्र की सबसे शक्तिशाली ताकत है, इसके बावजूद न तो वह हौथी विद्रोहियों के विरुद्ध कारगर हो सका और न ही वह संयुक्त अरब अमीरात के यमन के दक्षिणी हिस्से में कब्जे को रोक पा रहा है। उसने सोकोत्रा से संयुक्त अरब अमीरात को सैन्य तौर पर खदेड़ने की भी कोशिश की लेकिन उसमें वह कामयाब नहीं हो सका।

फिलहाल की वार्ता से साऊदी अरब और हौथी विद्रोहियों के बीच युद्ध विराम तो हो जाएगा। इस वार्ता से हौथी विद्रोहियों ने साना के हवाई अड्डे और उनके नियंत्रण में आने वाले एक बंदरगाह से प्रतिबंध हटाने के लिए कहा। इसके अतिरिक्त इस बात पर भी सहमति बनी कि यमनी तेल और गैस की बिक्री से होने वाली आय उनको लौटाई जाये तथा इससे वे अपने सैनिकों के वेतन वगैरह का भुगतान कर सकें। साऊदी द्वारा हमले रोकने और यमन के राष्ट्रीय अधिकारों की बहाली पर चर्चा हुई। इस बात पर भी विचार किया गया कि इस युद्ध विराम को शांति में बदलने के लिए दो वर्ष का समय लिया जाए और इस दौरान राजनीतिक ढांचे के स्वरूप इत्यादि को और अलग-अलग गुटों की भागीदारी को सुनिश्चित करने के बारे में समझौते होंगे।

इस समझौते और आगे की राज्य संरचना व भागीदारी के सम्बन्ध में जो बातें दोनों पक्षों के बीच हुइंर् उसकी जानकारी साऊदी अरब के प्रतिनिधिमण्डल ने अपनी समर्थक हादी की राष्ट्रपतीय नेतृत्वकारी परिषद को दी और उनकी सहमति ली।

इस तरह, यह देखा जा सकता है कि एक ताकत हादी की राष्ट्रपतीय नेतृत्वकारी परिषद है, दूसरी ताकत उत्तरी यमन में अलअंसार (हौथी) हैं और तीसरी ताकत संयुक्त अरब अमीरात के नेतृत्व में दक्षिणी संक्रमणकालीन परिषद है। ये तीन बड़ी ताकतें यमन के भीतर हैं। इनमें दो के बीच युद्ध विराम हो गया है और शांति के लिए आगे की बातचीत के लिए रास्ता खुल गया है। लेकिन इस समूची प्रक्रिया से संयुक्त अरब अमीरात बाहर है और वह यमन की जमीन पर कब्जा जमाये हुए है। उसके बंदरगाहों पर उसका नियंत्रण है। वह इजरायल के साथ मिलकर सोकोत्रा द्वीप समूह को अपनी सैन्य व खुफिया गतिविधियों का केन्द्र बना रहा है। उसके इस काम को अमरीकी साम्राज्यवादियों और नाटो देशों का समर्थन है।

अलअंसार के नेतृत्व ने बातचीत के दौरान साऊदी अरब के शासकों को यह स्पष्ट तौर पर बता दिया कि यमन के भीतर विदेशी सेनाओं की मौजूदगी को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। हर हालत में विदेशी सेनाओं को यमन से जाना होगा। चूंकि अभी संयुक्त अरब अमीरात वहां से हटने को तैयार नहीं है, इसलिए यह भी हो सकता है कि हौथी विद्रोहियों और संयुक्त अरब अमीरात के बीच एक और युद्ध हो जाये। यदि यह होता है तो साऊदी अरब इस युद्ध में यमन के अपने समर्थकों को हौथी का साथ देने के लिए कहे। वैसे इस मामले में ईरान भी नजर गड़ाए हुए है। ईरान के संयुक्त अरब अमीरात के साथ अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध हैं। ईरान और साऊदी अरब मिलकर संयुक्त अरब अमीरात पर भी इस शांति प्रक्रिया में शामिल होने का दबाव डाल सकते हैं।

वैसे यमन की आठ वर्ष की तबाही-बर्बादी के बाद यह युद्धविराम और शांति की प्रक्रिया एक आगे की ओर कदम है। लेकिन स्थायी शांति अभी भी काफी दूर है।

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