जाति जनगणना : कौन हंसे, कौन रोवें

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ठीक जिस वक्त भारत और पाकिस्तान युद्ध के मुहाने पर पहुंच रहे थे ठीक उसी वक्त मोदी सरकार ने जाति जनगणना की घोषणा की। इस घोषणा के समय (टाइमिंग) ने मोदी के समर्थकों से लेकर विरोधियों तक को सशंकित कर डाला। सभी ने माना कि मोदी सरकार पहलगाम के आतंकी हमले और उसके बाद बने माहौल व पाकिस्तान से न उलझने आदि से ध्यान हटाने के लिए जाति जनगणना का इस्तेमाल कर रही है। किसी ने इसे एक चतुर चाल के रूप में लिया कि ठीक युद्ध जैसे माहौल के बीच में जाति जनगणना की घोषणा कर मोदी ने एक ओर विपक्ष खासकर राहुल गांधी के हाथ से उसका मुख्य एजेण्डा छीन लिया और दूसरी ओर राहुल गांधी या अन्य जातिगणना सरकार से करवा ले जाने का ‘क्रेडिट’ लेते, प्रचार करते और अपना जश्न मनाते, यह सब कुछ युद्ध के माहौल के बीच में संभव नहीं होता। वाह! मोदी जी, वाह! अब राहुल गांधी और अन्य क्या करें। हंसे कि रोवें। 
    
जाति जनगणना की घोषणा के बाद देश के जाने-माने बुद्धिजीवियों में अच्छी-खासी हलचल मच गयी। कोई इसकी ऐसे समुद्र मंथन से तुलना करने लगा जिससे कोई अमृत नहीं निकलना है। जो निकलना है, वह विष ही विष है। कोई मोदी को याद दिलाने की कोशिश कर रहा है कि कभी तो आपने ही कहा था कि जाति जनगणना करने की मांग करने वाले ‘‘अर्बन नक्सल’’ हैं। कि जाति जनगणना की मांग घोर ‘पाप’ है। कि आप यानी मोदी जी ने भारत में जाति व्यवस्था को नकारते हुए ‘‘चार जातियों’’ (गरीब, युवा, महिला और किसान) का सिद्धान्त दिया था। फिर किसी ने तो मोदी का ऐसा पोस्टर (लुक) जारी कर दिया जिसमें वे बकायदा लाल सितारा टोपी पहने अर्बन नक्सल लग रहे थे। मोदी के चेले तो और परेशान हैं कि उनके गुरू को क्या हो गया है। हिन्दू हृदय सम्राट ही क्यों हिन्दुओं के बीच जाति जनगणना करवा कर उनकी जाति से परे जाकर मुसलमानों के खिलाफ बनी एकता को खण्डित कर रहा है। मोदी जी के कईयों पूर्व समर्थकों ने तो गाली-गलौच तक कर डाली। ‘‘मोदी ब्राण्ड’’ के दिन ढलने और पिटने की बात होने लगी। 
    
जाति जनगणना अगर कायदे से और सुविचारित वैज्ञानिक ढंग से आयोजित की जाती है ते जातिगत भेदभाव, जाति संरचना, जातिगत आरक्षण (श्रेणी-उप श्रेणी विभाजन या आरक्षण के भीतर आरक्षण) आदि मामलों में प्रकाश डाल सकती है। निःसंदेह इससे एक सामाजिक हलचल पैदा होनी है। और ऐसी मांगों, सामाजिक दबाव समूहों, राजनैतिक गोलबंदी और नेताओं को पैदा कर सकती है जो एक हद तक आज भी है परन्तु वे ठोस आधार पर नहीं खड़े हैं। ऊपरी जातियों का सामाजिक-राजनैतिक वर्चस्व और अधिक टूटेगा और उन पिछड़ी जातियों को भी कुछ सामाजिक झटका लगेगा जो अभी पिछड़ी जातियों के स्वयं-भू ठेकेदार बनकर अपनी जाति-विशेष के कुछ लोगों को तो कुछ लाभ पहुंचाते हैं परन्तु अन्य को बेहद महीन-जहीन ढंग से ठगते हैं।
    
भाजपा-संघ जाति जनगणना का ठीक वैसे ही शातिर ढंग से इस्तेमाल करेगी जिस ढंग से उसने उत्तर भारत में पिछड़ों और दलितों के बीच में वर्चस्वशाली जातियों के इतर अन्य पिछड़ी व दलित-आदिवासी जातियों, जनजातियों का इस्तेमाल कर समाजवादी पार्टी, बसपा आदि की ‘राजनैतिक जमा पूंजी’ में सेंधमारी की थी। भाजपा-संघ अपने मुस्लिम विरोधी हिन्दू फासीवादी परियोजना के भीतर जाति जनगणना को प्राप्त होने वाले निष्कर्षों का इस तरह संलयन (फ्यूजन) करेगी कि विपक्षी ‘अंगूर खट्टे हैं’ कहकर मन मसोस कर रह जायें। वैसे जाति जनगणना की तुलना सागर मंथन से निकलने वाले जहर से करने वाले मोदी प्रशंसक बहुत चिंतित हैं कि यह भाजपा-संघ के लिए सारी चतुराई के बावजूद विष साबित हो सकता है। सयानों को जब होश आयेगा तब तक उनके कान कट चुके होंगे। 
    
जहां तक भारत के मजदूरों-मेहनतकशों, शोषित-उत्पीड़ित-वंचित जनों का प्रश्न है, उनके लिए जाति जनगणना एक ऐसे सामाजिक-वैज्ञानिक तथ्य के रूप में सामने आयेगी जिससे इंकार नहीं किया जाना चाहिए। खुलेमन से स्वीकार कर एक ऐसी सामाजिक क्रांति के हिस्से के तौर पर जाति जनगणना से निकलने वाले आर्थिक-व्यावहारिक मांगों पर संघर्षों को शामिल करना होगा जिसका लक्ष्य भारतीय समाज में वर्ग-जाति का पूर्ण उन्मूलन हो। 
    
जाति व्यवस्था का सम्पूर्ण नाश भारतीय समाज के क्रांतिकारी रूपान्तरण का हमेशा से महत्वपूर्ण पहलू रहा है। हमारे देश के महान क्रांतिकारियों जिसमें भगतसिंह अग्रणीय हैं, ने एक ऐसे भारतीय समाज का स्वप्न देखा था जहां जाति व्यवस्था का पूर्ण नाश हो जाये। भारत में भविष्य में मजदूर वर्ग के नेतृत्व में होने वाली समाजवादी क्रांति ही जाति व्यवस्था के सम्पूर्ण उन्मूलन का कार्य वास्तव में कर सकती है। पूंजीवादी व्यवस्था में जाति व्यवस्था को किसी न किसी रूप में बनाये रखने में धूर्त राजनेताओं से लेकर धार्मिक पोंगापंथियों के अपने घृणित हित और उद्देश्य हैं। सिर्फ और सिर्फ भारत के मजदूर, मेहनतकश ही वह क्षमता रखते हैं जो एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकते हैं जहां जाति का कोई नामोनिशान न हो। 

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भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

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युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

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हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

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अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।