
क्या संसार के सारे पुरुष एक जैसे होते हैं? 14 साल की सरिता को पुरुष समुदाय से जो अब तक मिला था उसमें ज्यादा बड़ा हिस्सा घुटन भरा था। पिता की उम्र के लोगों का घृणित स्पर्श हो या घर में आने वाले पुरुषों का, उसे अभी से पुरुषों के मनोभावों की अनुभूति हो चुकी थी। हालांकि पिता ने खाने-पीने से लेकर बाहर के लड़कों के साथ मारपीट में हमेशा साथ दिया था फिर भी वो उस पृष्ठभूमि से थे जहां लड़की को कभी कंधे पर बैठाकर घुमाया नहीं जाता था। लड़कों और लड़कियों में शिक्षा के बीच के फर्क की अनुभूति उसे भाइयों के बड़ा होने के साथ ही हो गई थी।
जीवन में ऐसा कुछ नहीं था जो बाकी लड़कियों से अलग हो। लड़की होने का अपराधबोध, तिरस्कार, घुटन, आंसू सब कुछ। बात उन दिनों की है जब पिता की फैक्टरी में हड़ताल हो गई थी। जब सारे मजदूरों का परिवार सड़क जाम करके बैठा हुआ था। वो पहला दिन था जब प्रफुल्ल दा को भाषण देते हुए सुना था। दुबला-पतला शरीर, हंसमुख चेहरा लेकिन शब्दों में अचूकपन जो सीधे हृदय में उतर जाता है। प्रफुल्ल दा बंगाल से थे। कभी स्वर लहरी शांत पानी सी बहती तो कभी मानो ऊंची लहरें यकायक तेज होकर साहिल से टकरातीं, तो कभी हास्य। चारों तरफ से वर्दीधारियों के बीच में घिरे निर्भीकता और साहस से भरी स्वर लहरी जिसने सभी को मानो अपने आगोश में ले लिया हो। सभा खत्म हुई। सभी बच्चे घर पहुंचे और आपस में प्रफुल्ल दा के बारे में चर्चा करने लगे। और वैसी ही चर्चा घर के बड़ों के बीच भी सुनी। उस दिन के बाद से प्रफुल्ल दा का चेहरा इस नई जगह का एक आम और खास चेहरा बनने वाला था।
आज ट्यूशन से लौटने में देर हो गई है। अंधेरा हो चुका है। अभी साइकिल खड़ी ही की थी कि दिल में एक धक सी हुई और एक परिचित स्वर कानों में पड़ा जो कमरे के भीतर चलने वाली मीटिंग से बाहर तक आ रहा था। रसोईघर में मां आज ज्यादा खुश मन से खाना बना रही है। क्या आज कोई खाना खाने आ रहा है? सरिता ने प्रश्न किया? हां, आज प्रफुल्ल यही रहेंगे। मां ने उत्तर दिया। एक बाल हृदय आज ज्यादा प्रसन्न है। ज्यादा खुशियों से भरा लग रहा है।
आज पहली बार प्रफुल्ल से हाथ मिलाया है जिसमें कुछ-कुछ लज्जा का भाव भी छिपा है। अब तक जिस बाल हृदय पुरुष के किसी भी अनैतिक मनोभाव को भांप लेने में अभ्यस्त हो चुका था उसे पहली दफा एहसास हुआ कि संसार में सभी मनुष्य एक समान नहीं होते। कि पुरुषों के भीतर ऐसी बहुत सी संवेदनाएं होती हैं जिनसे वह अभी तक अनजान थी।
प्रफुल्ल दा कब इस घर में एक सदस्य बन गए पता भी न चला। अब इस घर में एक ऐसा भी शख्स था जो ज्यादा फिक्रमंद था। दो कान सदैव ही सचेत रहते और चैनल पर पड़ने वाली हल्की सी आहट पर चौकन्ने हो जाते। चैनल खोलते-खोलते शिकायत भरे लहजे में कहते कि थोड़ा और देर से आते और जवाब में एक बाल सुलभ मुस्कान दुबले चेहरे पर खिल उठती। आंदोलन के चलते दिन भर का भूखा पेट अपनी यंत्रणा को छिपाने की कोशिश करता जिसे दो पारखी और चिंतातुर नजरें तुरंत पहचान लेतीं। धीमी आवाज में मां को जगाया जाता। ‘‘मां प्रफुल्ल दा आ गए हैं खाना खाएंगे’’। और फिर रात की नीरवता में बर्तनों के गैस पर चढ़ने की आवाज होती।
यदि मनुष्यता को परिभाषित किया जा सकता है तो कहा जा सकता है कि एक आदर्श मनुष्य होने की कसौटी है उसका दायित्वबोध जो सदैव मनुष्यता के हित में खड़ा हो। जहां मनुष्य की निजी महत्वाकांक्षाएं, व्यक्तिगत रुचि, उसकी निजी भावनाएं, प्रेम, व्यापक मेहनतकश समुदाय के साथ एकरूपता ग्रहण कर लें। जब मनुष्य खुद के साथ पल प्रतिपल इस संघर्ष में जूझता रहे कि उसका निजी व्यवहार, उसका मंथन समाज के विकास में क्या भूमिका निभाता है और मनुष्य सदैव इसी दिशा में अग्रसर होता है। मनुष्य जाति के प्रति जो सचेत प्रतिज्ञा उसने ली है उस सचेतनता के प्रति जो प्रतिबद्धता उसने ली है उसे लोहे की तरह ही मजबूत होना होता है। मृत्युपर्यंत इस दृढ़ता को निभाने की फौलादी जद्दोजहद में जो इंसान खरा उतरता है वही तूफानी पित्रेल कहलाने का सच्चा हकदार होता है।
अंततः वह दिन भी आया जब उन्हें अपने इस नए परिवार से विदा लेनी थी। इस घर के सभी लोगों के साथ पड़ोस के लोगों के दिल भी भारी हैं। इतने कम समय में हर परिचित के जीवन में जितना प्रकाश भरा जा सकता था, अचानक से यूं लगा मानो जीवन की इस ज्योति को जिस तरलता से ऊर्जा मिल रही है वो धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। सभी दुःखी हैं। भारी दिल और नम आंखों से रास्ते के आखिरी छोर तक विदा देने आते हैं। प्रफुल्ल के लिए पलटकर देख पाना असंभव है। इस फौलादी और दृढ़ संकल्प कामरेड के भीतर जो कोमल भावनाएं हैं कहीं वो पारदर्शी जल बनकर आंखों में न उतर आएं जो सफर को और बोझिल बना दें इसलिए बिना पलटे हुए तूफानी पित्रेल अगली मंजिल की तरफ उड़ान भर देता है।
तूफानी पित्रेल नन्हे परिंदों को उड़ान भरना सिखाता है। तूफानों से लड़ना और जीतना सिखाता है और एक दिन अचानक से चला जाता है। लेकिन एक साया बनकर एक पिता, एक भाई, एक दोस्त बनकर परिंदों की निगरानी करता है, उनकी हिफाजत करता है। परिंदे जब ऊंची उड़ान भरना सीख लेते हैं, तब इस संरक्षित दायित्वबोध को अपनी अगली पीढ़ी के लिए संरक्षित करने की जद्दोजहद में जुट जाते हैं।
जीवन का एक अध्याय खत्म होता है और नया अध्याय शुरू होता है। सरिता जो इस विदाई के अंतिम लम्हे में शामिल नहीं थी अब 25 वर्ष की हो चुकी है। और चारों तरफ पुलिस के घेरे के बीच सभा को संबोधित कर रही है तभी उसे एक पुराना और परिचित चेहरा दिखाई देता है। वही हैं क्या? हां वहीं हैं। विदाई का लम्हा सजीव हो जाता है, पुरानी याद ताजा हो गई है कि किस तरह से रात भर की बेचैनी और उद्विग्नता के बाद सुबह उठते ही प्रफुल्ल द्वारा छोड़ा गया कागज का पुर्जा खोला गया था जिसके लिए प्रफुल्ल ने वादा मांगा था कि सुबह होने से पहले इसे नहीं खोलेगी। दिल की बढ़ी हुई धड़कनों और कांपते हुए हाथों से कागज का पुर्जा खोला गया जिस पर अंत में एक पंक्ति लिखी थी ‘‘ये आंखें हैं तुम्हारी या तकलीफ का उमड़ता हुआ समुंदर, इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए।’’ अपने हृदय की समस्त भावनाओं-संवेदनाओं को समेटते हुए मन ही मन एक शब्द निकलता है। ‘‘शुक्रिया कामरेड’’।
-पथिक