हिन्दू फासीवादी सरकार और आंकड़े

मार्क ट्वेन के हवाले से एक कहावत है- ‘झूठ, महाझूठ और आंकड़े’। इसका आशय यह है कि आंकड़ों के जरिये कुछ भी साबित किया जा सकता है। इसीलिए आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। 
    
पर ऐसा लगता है कि भारत के हिन्दू फासीवादी इस कहावत पर ज्यादा विश्वास नहीं करते। इन्हें लगता है कि आंकड़े खतरनाक होते हैं और वे सच्चाई को बयान करते हैं। बल्कि वे इसीलिए खतरनाक होते हैं कि वे सच्चाई को बयान करते हैं। इसीलिए देश की हिन्दू फासीवादियों की सरकार आंकड़ों में हेरा-फेरी का हर संभव प्रयास कर रही है। 
    
जब 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हिन्दू फासीवादी सत्ता में आये तो उन्होंने दावा किया कि उसके पहले के काल में देश में कुछ नहीं हुआ था। अब वे सब कुछ ठीक कर देंगे। मोदी ने तो खुलेआम कहा कि उन्हें पहले के साठ साल के मुकाबले बस साठ महीने दिये जायें, सब कुछ ठीक करने के लिए। (यह दावा करते हुए मोदी भूल गये थे कि इन साठ सालों में करीब दस साल ऐसे भी थे जिसमें भाजपाई प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर सत्ता में थे)।        

इन दावों के साथ जब हिन्दू फासीवादी सत्ता में आये तो यह स्वभाविक ही था कि अपने शासन काल को अच्छी से अच्छी रोशनी में पेश करते। और इसके लिए आंकड़ों में हेरा-फेरी करना उनकी अनिवार्यता हो गई। यह उन्होंने आंकड़ों को छिपाकर, दबाकर और बदलकर हर तरीके से किया। कुछ आंकड़े तो उन्होंने इकट्ठा करना ही बंद कर दिया। कुछ उदाहरण देखें। 
    
सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर पूंजीवादी व्यवस्था में किसी देश की अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का एक सामान्य सूचक मानी जाती है। यदि यह वृद्धि दर तेज है तो अर्थव्यवस्था की सेहत अच्छी है। यदि यह कम या शून्य से नीचे है तो सेहत खराब मानी जाती है। हालांकि यह सवाल बना रहता है कि अर्थव्यवस्था की अच्छी सेहत का फायदा किसे हो रहा है क्योंकि ऐसा हो सकता है कि सारा फायदा पूंजीपति उठा रहे हों जैसा कि आज सारी दुनिया और खासकर भारत में हो रहा है। 
    
देश की अर्थव्यवस्था मोदी के शासन में बेहतर नहीं हो रही है, इसके लिए मोदी सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद के आकलन की नयी श्रृंखला का इस्तेमाल किया। जब 2018 में इस श्रृंखला के आंकड़े जारी किये गये तो पता चला कि मोदी काल में वृद्धि दर उसके पहले के मनमोहन काल के मुकाबले कम है। यानी अर्थव्यवस्था की सेहत खराब हो रही है। इन आंकड़ों को तुरंत दबा दिया गया। कहा गया कि नयी श्रृंखला की पद्धति में कुछ गड़बड़ी है। इस ‘गड़बड़ी’ को ठीककर कुछ महीनों बाद नीति आयोग ने नये आंकड़े जारी किये। गौरतलब बात है कि इस बार आंकड़े सांख्यिकी मंत्रालय ने नहीं बल्कि नीति आयोग ने जारी किये। इन आंकड़ों ने दिखाया कि मोदी सरकार के काल में वृद्धि दर मनमोहन काल के अंतिम सालों में वृद्धि दर से ज्यादा थी। 
    
यह आंकड़ों में शुद्ध हेराफेरी थी। जब विशेषज्ञों ने इन आंकड़ों के पीछे की पद्धति तथा डाटाबेस को जारी करने की मांग की तो इससे मना कर दिया गया। इससे संदेह गहरा गया कि सरकार सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर के आंकड़ों में हेरा-फेरी कर रही है। इसे तब और मजबूत आधार मिला जब स्वयं मोदी सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमणियम ने एक अकादमिक लेख लिखकर दावा किया कि वृद्धि दर के आंकड़ों में ढाई प्रतिशत का झोल है यानी मोदी काल में वृद्धि दर उतनी नहीं है जितनी दिखाई जा रही है। असल में वह ढाई प्रतिशत कम है। उनके द्वारा उठाये गये सवालों का सरकार की ओर से कोई माकूल जवाब नहीं आया। आ भी नहीं सकता था क्योंकि सुब्रमणियम ने दिखाया था कि स्वयं सरकार द्वारा जारी सत्रह सूचकांक सकल घरेलू उत्पाद में ऊंची वृद्धि दर से मेल नहीं खाते। 
    
सरकार आंकड़ों में जान-बूझकर हेरा-फेरी कर रही है, यह संदेह दो घटनाओं से और पुख्ता हो गया। 2019 में लोक सभा चुनावों से ठीक पहले यह खबर आई कि देश में बेरोजगारी की दर दस सालों में सबसे ज्यादा हो गई है। चुनावों के मद्देनजर यह बहुत चोटीली खबर थी। सरकार ने तुरंत इस रिपोर्ट को दबा दिया। केवल चुनाव जीत जाने के बाद ही इस रिपोर्ट को बाहर आने दिया गया। यह एक असुविधाजनक रिपोर्ट को तात्कालिक तौर पर दबा देने का मामला था। 
    
लेकिन इसके कुछ समय बाद एक अन्य असुविधाजनक रिपोर्ट को हमेशा के लिए दबा देने का मामला आया। और यह ज्यादा गंभीर था क्योंकि इस रिपोर्ट का संबंध सरकार के नीति-निर्धारण से था। 
    
सरकार हर पांच साल पर एक बड़ा सर्वेक्षण करती है- उपभोक्ता आर्थिक सर्वेक्षण। यह दिखाता है कि उपभोग के आधार पर लोगों की क्या हालत है। भुखमरी इत्यादि की स्थिति का भी इसी से पता चलता है। 
    
जब 2017-18 के इस सर्वेक्षण का शुरूआती परिणाम आया तो पता चला कि देहातों में 2012-13 के मुकाबले लोगों की आय और उपभोग घट गया है। सरकार के लिए यह बहुत ही घातक खबर थी। तत्काल ही इस परिणाम को सरकार द्वारा नकार दिया गया और फिर पूरे सर्वेक्षण को ही यह कह कर निरस्त कर दिया गया कि इसके आंकड़े ठीक से इकट्ठे नहीं किये गये हैं। इस रिपोर्ट को पूरी तरह दबा दिया गया और इस तरह विशेषज्ञों को यह मौका नहीं दिया गया कि वे सरकारी दावे के सही या गलत होने की पड़ताल कर सकें। 
    
भारत के सांख्यिकी इतिहास में यह बड़ी घटना थी जब इस तरह की पूरी रिपोर्ट को ही निरस्त कर दबा दिया गया। इसमें भी कोढ़ में खाज यह कि अब जब 2022-23 का सर्वेक्षण हो रहा है तो इसकी पद्धति और सवाल दोनों बदल दिये गये हैं। यानी 2022-23 के सर्वेक्षण के परिणामों की तुलना 2012-13 या उसके पहले के सर्वेक्षणों से नहीं की जा सकती। लोगों का संदेह यही है कि यह मोदी शासन काल को अच्छी रोशनी में पेश करने के लिए किया जा रहा है। लेकिन यह देश में आय और उपभोग के आंकड़ों की पूरी श्रृंखला को भ्रष्ट कर देगा। 
    
ये तीन उदाहरण यह दिखाते हैं कि मोदी सरकार का आंकड़ों के प्रति क्या रुख है। वह आंकड़ों के साथ क्या कर रही है। 
    
मोदी सरकार द्वारा आंकड़ों की इन हेरा-फेरी के चलते अब स्वयं पूंजीपति वर्ग भी आंकड़ों के लिए निजी संस्थाओं पर निर्भर हो रहा है। सीएमआईई यानी सेन्टर फार मानिटरिंग इंडियन इकानमी एक ऐसी ही निजी संस्था है। पर यह सरकार ऐसी है कि अपनी छवि को धूमिल होने से बचाने के लिए इस तरह की संस्थाओं पर भी दबाव बना रही है। 2016 में सीएमआईई के निजी क्षेत्र में निवेश के आंकड़े सरकार के दावे से मेल नहीं खाते थे। तब सरकार द्वारा उस पर यह दबाव बनाया गया कि वह आंकड़े बदले। केवल इस मामले के सार्वजनिक होने पर ही सरकार पीछे हटी। 
    
यहां यह रेखांकित करना जरूरी है कि कोई भी निजी संस्था आंकड़ों के मामले में सरकार का स्थान नहीं ले सकती। उसके पास उतने संसाधन नहीं हो सकते जितने सरकार के पास हो सकते हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि किसी निजी संस्था के पास सरकार की तरह अधिकार नहीं होते। वह आंकड़ों के लिए किसी को आदेश नहीं दे सकती और न मजबूर कर सकती है। 
    
जब देश आजाद हुआ तो अन्य क्षेत्रों की तरह आंकड़ों के मामलों में भी देश की हालात अच्छी नहीं थी। अंग्रेजी सरकार ने देश को लूटने की अपनी जरूरत के अनुरूप कुछ क्षेत्रों में आंकड़े इकट्ठा करने और जारी करने की व्यवस्था कायम की थी पर बाकी क्षेत्रों को नजरअंदाज कर दिया था। 
    
आजादी के बाद भारत के पूंजीपति वर्ग ने किसी हद तक नियोजित अर्थव्यवस्था का रास्ता चुना था। इसके लिए एक योजना आयोग भी बनाया गया जिसका अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री को होना था। पर बिना देशव्यापी आंकड़ों के किसी तरह की योजना की बात नहीं सोची जा सकती थी। इसीलिए भांति-भांति के आंकड़े इकट््ठा करने तथा उनसे निष्कर्ष निकालने की व्यवस्था विकसित करना जरूरी हो गया। यह बेहद चुनौतीपूर्ण काम था क्योंकि भारत बेहद विविधता वाला एक विशाल देश था। ऊपर से इसका ज्यादातर हिस्सा तब बेहद पिछड़ा था। 
    
देश के लिए आंकड़ों की इस व्यवस्था को विकसित करने की जिम्मेदारी योजना आयोग के उपाध्यक्ष पी सी महालोनबीस को सौंपी गई जो जाने-माने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के सांख्यिकीविद् थे। उनकी देख-रेख में अगले दो दशक में देश में आंकड़ों की एक व्यवस्था विकसित हुई जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली। इस मामले में पिछड़े देशों के लिए भारत एक माडल बन गया। 
    
आंकड़ों की इस व्यवस्था में काफी खामियां थीं तो भी यह देश की पूंजीवादी व्यवस्था की सेवा करती रही। इसमें झटका उदारीकरण के दौर में लगा। उदारीकरण का मतलब ही था अर्थव्यवस्था में सरकार का हस्तक्षेप घटना तथा बाजार का हस्तक्षेप बढ़ना। आंकड़ों के लिए इसका मतलब यह था कि आंकड़ों की पुरानी व्यवस्था अब कारगर नहीं हो सकती थी। ऐसे में व्यवस्था के दायरे में भी मांग उठने लगी कि इस क्षेत्र में सुधार किये जायें। सुझाव के लिए समितियां भी बनीं। पर इनके द्वारा प्रस्तुत ज्यादातर सुझाव कागजों में दर्ज होकर रहे गये। 
    
इस तरह मोदी के सत्तानशीन होने तक देश में आंकड़ों के क्षेत्र में स्थिति वैसे भी कोई अच्छी नहीं थी। पर मोदी के सत्तारूढ़ होने के बाद तो चीजें बद से बदतर होने लगीं। मोदी ने पहले ही अप्रासंगिक हो चुके योजना आयोग को भंग कर एक फर्जी नीति आयोग गठित कर दिया जिसका एकमात्र काम है सरकार का ढिंढोरा पीटना। योजना आयोग के खात्मे से सरकार के सारे विभागों के आंकड़ों को समायोजित और सहयोजित करने वाला केन्द्र गायब हो गया। इसके बाद मोदी सरकार ने वह करना शुरू कर दिया जिसका पहले वर्णन किया गया है यानी आंकड़ों को बदलना, छिपाना या दबाना। 
    
इस सबका यह परिणाम निकला है कि देश के हालात के किसी भी क्षेत्र का एक वस्तुगत आकलन करना मुश्किल हो गया है। उदाहरण के लिए भुखमरी को लें। आय और उपभोग का पांच वर्षीय सर्वेक्षण इसके लिए आधारभूत आंकड़े उपलब्ध कराता था। भारत में हमेशा से भुखमरी के आकलन को लेकर विवाद होते रहे हैं। विभिन्न लोगों द्वारा इस संबंध में विभिन्न आंकड़े प्रस्तावित किये जाते रहे हैं। पर ये सारे आकलन पंचवर्षीय सर्वेक्षण के आंकड़ों को अपना आधार बनाते थे। आधारभूत आंकड़े एक ही होते पर उनकी व्याख्या अलग-थलग तरह से की जाती थी। संप्रग सरकार द्वारा गठित असंगठित क्षेत्र आयोग ने अपने आंकड़ों के लिए 2004-05 के सर्वेक्षण को आधार बनाया था। 
    
इस समय मोदी सरकार भुखमरी कम करने को लेकर बड़े-बड़े दावे कर रही है। पर 2017-18 के सर्वेक्षण को निरस्त करने के बाद उसके दावे की जांच करना मुश्किल हो जाता है। पिछला पंचवर्षीय सर्वेक्षण 2012-13 का था। ऐसे में मोदी काल के आकलन के लिए वह आधार वर्ष का काम करता है। पर 2017-18 के सर्वेक्षण के निरस्त हो जाने के बाद कोई तुलना नहीं की जा सकती। अब जो 2022-23 का सर्वेक्षण हो रहा है उसमें पद्धति और प्रश्नावली बदल दिये जाने के कारण इसकी भी 2012-13 से तुलना नहीं की जा सकती। इस तरह मोदी सरकार ने अपने दावों की जांच को असंभवप्राय बना दिया है। 
    
चूंकि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं भी आंकड़ों के लिए सरकार पर ही निर्भर होती हैं, ऐसे में उनके निष्कर्षों का भी कोई मतलब नहीं रह जाता। ऐसे में जब खबर आती है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की एक संस्था ने 2005 से 2021 के बीच भारत में 41 करोड़ लोगों के गरीबी की रेखा से ऊपर उठने की बात की है तो इसका कोई मतलब नहीं होता। उल्टे यह देखते हुए कि मोदी सरकार स्वयं देश के अस्सी करोड़ लोगों को राहत का राशन देने की डींग हांक रही है, यह खबर बेमानी लगती है। यदि देश में केवल पच्चीस-तीस करोड़ लोग ही भुखमरी की रेखा के नीचे हैं तो अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त का या राहत का राशन देने की जरूरत क्यों पड़ रही है? 
    
आंकड़ों के मामले में मोदी सरकार का यह छल-कपट उसके फायदे के लिए है। इसके जरिये वह अपनी छवि को खराब होने से बचा रही है। इसमें वह किसी हद तक सफल भी हो रही है। लोग अपने निजी अनुभव से देश के हालात के खराब होते जाने को जो महसूस कर रहे हैं उसकी देशव्यापी आंकड़ों से पुष्टि नहीं हो रही है। ऐसे में लोगों को लगता है कि हालत केवल उनकी खराब हो रही है। बाकी लोग तो मजे में हैं। ऐसे में सरकार के बदले स्वयं को जिम्मेदार मानने की प्रवृत्ति बढ़ती है। यह सरकार चाहती भी यही है। वह चाहती है कि लोग बद से बदतर होते जाते हालात के लिए सरकार को नहीं बल्कि स्वयं को कोसें। यह इस सरकार के हित में है। 
    
पर पूंजीवादी व्यवस्था के दूरगामी हित में यह कतई नहीं है कि सरकार और समूची व्यवस्था के कर्ता-धर्ताओं को यह पता न हो कि देश के वस्तुगत हालात क्या हैं। सटीक आंकड़ों के अभाव में यह आकलन नहीं किया जा सकता। यह आज के पूंजीपति वर्ग की पतित स्थिति को ही दर्शाता है कि वे स्वयं अपने दूरगामी हितों की चिंता करने के बदले अपने तात्कालिक फायदे को प्राथमिकता दे रहे हैं। वे सरकार को आंकड़ों में हेरा-फेरी करने दे रहे हैं। 

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