एक ठग और उसके ठगे हुए सगे

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‘‘ऐसा कोई सगा नहीं जिसे मैंने ठगा नहीं’’ यह संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का आप्त वाक्य है। या आप ये भी कह सकते हैं कि किसी भी धूर्त चालाक व्यापारी की तरह डोनाल्ड ट्रम्प का जीवन सूत्र है। 
    
डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने सबसे बड़े सगे को भी ठग लिया है। ऐसा उसका अपने आपको सबसे सगा मानने वालों को भी लगता है। हुआ यूं कि ट्रम्प प्रशासन ने हूतियों से इजरायल को अंधेरे में रखते हुए समझौता कर लिया। समझौता ये हुआ कि वे एक-दूसरे पर हमले नहीं करेंगे। इस समझौते से इजरायल बाहर है और उसे इसकी कानों-कान खबर भी नहीं हुयी। इससे इजरायल के शासक व रणनीतिकार अपने को ठगा महसूस कर रहे हैं। 
    
ठीक ऐसा ही इजरायल ने ईरान और अमेरिका के बीच नाभिकीय हथियारों व ऊर्जा के मामले को लेकर चल रही वार्ता के बारे में भी महसूस किया। क्योंकि वह चाहता था कि अमेरिका उसके साथ मिलकर ईरान पर हमला कर दे। और इसके उलट अमेरिका ने ईरान के साथ वार्ता और सौदेबाजी शुरू कर दी साथ ही हूतियों से चुपचाप समझौता कर लिया। डोनाल्ड ट्रम्प ने इजरायल को संदेश दे दिया कि तुम हमारे लठैत हो और लठैत ही रहो। 
    
इजरायल के शासक ठगे जाने की भावना से अभी ठीक से उभरे ही नहीं थे कि खबर आयी कि डोनाल्ड ट्रम्प अरब देशों (सऊदी अरब, कतर व संयुक्त अरब अमीरात) की अपनी प्रस्तावित यात्रा के बीच में इजरायल नहीं जायेंगे। ऐसी कुछ परिपाटी रही थी। ट्रम्प का इस यात्रा का एक मकसद जहां अमेरिका में इन देशों से भारी निवेश करवाना है तो दूसरा मकसद, अमेरिका के भीतर अपनी गिरती साख को बचाना भी है। अमेरिका के भीतर डोनाल्ड ट्रम्प की रेटिंग गिर रही है और उसका विरोध दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। उसे ऐसी किसी चीज की तलाश है जिससे उसकी साख बनी रहे। अपनी साख को बचाने के लिए वह कभी रूस-यूक्रेन युद्ध को खत्म करने या करवाने, पश्चिम एशिया में शांति कायम करवाने, आदि, आदि मसलों को एक साधन के रूप में देखता है। और ऐसे में उसे यदि किसी चीज की परवाह है तो अपनी साख और निजी हितों की है और ऐसे में उसे कुछ झटके इजरायल को देने पड़े तो वह देने से गुरेज नहीं करेगा। पर वह भी जानता है कि इजरायल है तो उसका ही लठैत। लठैत को लठैत की औकात में रखना एक बात है और लठैत के बगैर नहीं रहा जा सकता है, यह हर लठैत रखने वाला जानता है। यह दूसरी बात है।  

आलेख

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भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

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युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

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हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

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अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।