
22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम में आतंकवादी हमले की घटना के बाद से ही मोदी की अगुवाई वाली एन डी ए सरकार, मोदी-शाह और भाजपाइयों ने देश की जनता को युद्ध के उन्माद की ओर धकेल दिया। युद्ध के उन्माद और अंधराष्ट्रवाद को चरण दर चरण बढ़ाया गया। पहलगाम में कथित आतंकवादी हमले में 28 नागरिक मारे गये, जिनमें अधिकतर हिंदू पर्यटक थे। इस खबर को हिंदू बनाम मुस्लिम के रूप में प्रस्तुत करके और मुसलमानों को आतंकवादियों के रूप में और हिंदुओं को इनके हमले के निशाने पर होने के, रूप में प्रचारित किया गया। हिंदुओं में मुसलमानों के खिलाफ बदला लेने की नफरती भावना का संचार किया गया। इस आतंकवाद के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराकर वहां के कथित आतंकी लान्चिंग पैड को ध्वस्त करने की बात की गई।
हिंदू फासीवादियों ने माहौल में व्यापक उत्तेजना, आक्रोश और नफरत को ऊंचाई पर ले जाने की हर संभव घृणित कोशिश की। इस उद्देश्य के लिए प्रमुख टीवी चैनलों, समाचार एजेंसियों एवं सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स और संघी संगठनों का भरपूर इस्तेमाल किया गया। सेना के तीनों अंगों और इसके साथ पल-पल की बैठकों और फिर बाद में कई दर्जन जिलों में माक ड्रिल की घोषणा से देश में उत्तेजना, सनसनी, असुरक्षा, उग्रता की मानसिकता तैयार की गई। देखने लायक यह भी था कि माक ड्रिल में पश्चिम बंगाल के 32 जिले शामिल थे जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं।
इस बीच 7 मई की रात के अंधेरे में आपरेशन सिंदूर नाम से अभियान के जरिए कथित आतंकी ठिकानों पर हमले का दावा किया गया। भारत सरकार ने आधिकारिक और औपचारिक तौर पर इन हमलों को ‘‘केंद्रित, नपी-तुली और गैर उकसावे वाली’’ कार्रवाई बताया। सरकार ने दावा किया कि मिसाइल हमलों में आतंकवादी समूहों जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा के पाकिस्तान में बुनियादी ढांचे को निशाना बनाया गया; और किसी भी पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान को निशाना नहीं बनाया गया तथा तकरीबन ऐसे 9 ठिकानों को निशाना बनाया गया और दर्जनों आतंकवादियों को मार दिया गया।
इस आधिकारिक बयान के उलट मुख्य धारा का मीडिया, भाजपाई नेता और मंत्री इस हमले को पाकिस्तान पर हमले की ही तरह लगातार प्रचारित कर रहे थे और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर कब्जा कर लेने की बात करने लगे। ये यहीं नहीं रुके, बाद में पाकिस्तान के कई शहरों और परमाणु केंद्र को भारतीय सेना द्वारा कब्जा कर लेने के दावे और खबरें प्रसारित करने लगे। इनका यह बेशर्म, गैर जिम्मेदार रुख तथा अफवाह भरी फर्जी खबरें तत्काल ही बेनकाब हो गईं।
पाकिस्तान के धूर्त हुक्मरानों ने पाकिस्तान की सरजमीं पर कथित आतंकी अड्डे पर भारतीय सेना द्वारा किए गए हमले के जवाब में आपरेशन बुनयान अल-मर्सुस नामक एक अभियान शुरू किया। पाकिस्तानी सरकार ने दावा किया कि भारत की सेना का हमला आम नागरिकों पर था जिसमें एक दर्जन से ज्यादा नागरिक मारे गए और कुछ घायल हुए।
अब सीमा पर तोपखाने की गोलाबारी और छोटे हथियारों की गोलीबारी होने लगी जिसमें भारतीय प्रशासित कश्मीर में स्थित कुपवाड़ा, पुंछ बारामुल्ला, उरी और अखनूर के क्षेत्र शामिल हैं। इसमें भारत के सीमावर्ती इलाकों में 15 नागरिक मारे गए और 40 से ज्यादा घायल हो गए। इसके बाद तत्काल ही यह एक-दूसरे के सैन्य ठिकानों पर हमले की ओर बढ़ गया। ड्रोन, मिसाइल, फाइटर जेट, वायु रक्षा प्रणाली आदि का इस्तेमाल सैन्य हमलों और बचाव में होने लगा। ड्रोन और मिसाइल हमलों की मारक क्षमता कई सौ किमी. तक होने के चलते भौगोलिक दायरे का विस्तार हो गया। सीमाओं पर भी सैनिकों का भारी मात्रा में जमावड़ा होने लगा।
यदि भारत की बात की जाए तो, अलग-अलग विदेशी मीडिया संस्थाओं ने पाकिस्तान के इस दावे की पुष्टि की जिसमें 2 राफेल, 3 युद्धक विमान और एसयू-30 को नष्ट कर देने का दावा किया गया था। भारत ने इजरायल, रूस और फ्रांस से खरीदे गए हथियारों का इस्तेमाल किया तो पाकिस्तान ने तुर्की और चीन व अमेरिका से खरीदे गए हथियारों का। इस तरह देखा जाये तो यह हमला और बचाव कुछ नए आधुनिक हथियारों के लिए परीक्षण स्थल भी बन गया। इससे सफल हथियारों की खरीद और दाम दोनों बढ़ जाएंगे।
इस बीच इस बढ़ते तनाव में मोदी सरकार ने दो बार सर्वदलीय बैठक बुलाई मगर प्रधानमंत्री दोनों बार बैठक से गायब रहे। कथित आतंकवादी हमले की आड़ में मोदी और एन डी ए सरकार ने अंधराष्ट्रवादी युद्धोन्माद खड़ा करने के साथ ही यह स्थापित करने की घृणित कोशिश की थी कि मोदी की अगुवाई में भारत भी, अमेरिकी और इजरायली शासकों की ही तरह, अपने कथित दुश्मनों को दूर बैठ कर ही आधुनिक हथियारों के दम पर हमले से नेस्तनाबूद कर सकता है। मगर, इजरायली और अमेरिकी साम्राज्यवादियों की नकल उसे भारी पड़ गई। पाकिस्तानी शासकों ने इस हमले को अपनी संप्रभुता पर हमला बताया जो कि स्वाभाविक था और फिर उस तरह जवाब और टक्कर दी कि जिस तरह मोदी और मोदी सरकार ने सोचा नहीं था।
दरअसल, पाकिस्तान में एक तरफ शासक वर्ग के भीतर तीखे अंतर्विरोध हैं। सत्ताधारी पार्टी ने शासक वर्ग की ही दूसरी पार्टी इमरान खान और इसकी अगुवाई वाली पार्टी के संघर्ष का दमन किया। सेना और सरकार के बीच भी टकराव यहां आम है। दूसरी तरफ पिछले समय में बलूचिस्तान का राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष तेजी से आगे बढ़ा है। बलूच मुक्ति सेना ने पाकिस्तानी शासकों के सामने एक चुनौती पेश की है। इसके अलावा पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति भी काफी खस्ताहाल हुई है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज लेने का सिलसिला जारी है।
ऐसे में मोदी सरकार और इनके रणनीतिकारों का आंकलन शायद यह हो कि राफेल और अन्य उन्नत हथियारों के चलते इस संकटग्रस्त स्थिति में पाकिस्तानी शासक कथित आतंकी लान्चिंग स्थानों पर हुए हमलों पर, सैन्य प्रतिक्रिया नहीं देंगे तथा मोदी व भाजपाई ऐतिहासिक कारनामा कर डालने वाले साबित होंगे। मगर दांव उल्टा पड़ गया।
पाकिस्तान में जो स्थिति बनी, जाहिर है पाकिस्तानी शासकों के लिए मोदी सरकार की ‘आतंक’ पर यह कथित स्ट्राइक तात्कालिक रूप में संजीवनी बूटी साबित हुई। पाकिस्तानी प्रधामनंत्री शहनवाज और इनकी सरकार अपने देश के भीतर भारत के खिलाफ अंधराष्ट्रवाद-युद्ध उन्माद खड़ा करके विपक्ष समेत जनता के अधिकांश हिस्से को अपने साथ लामबंद करने में तत्कालिक तौर पर सफल हुई। आर्थिक संकट से पिसती जनता को अपने साथ समेटने में फिलहाल कामयाब रही। यही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा 2.3 अरब डालर का कर्ज भी भारत सरकार के विरोध के बावजूद हासिल हो गया।
यही काम, मोदी और मोदी सरकार ने भी किया। वह, इस आतंकी हमले की आड़ में अंधराष्ट्रवादी उन्माद खड़ा करके समूचे विपक्ष को अपने पीछे-पीछे चलने को मजबूर कर देने में कामयाब रही। क्या तो कांग्रेस, क्या तो तथाकथित वाम सभी मोदी की अगुवाई वाले एन डी ए सरकार की अंधराष्ट्रवाद की धुन में नाच रहे थे। जनता के ठीक-ठाक हिस्से को भी इस जाल में फंसाने में भाजपाई कामयाब रहे।
पहलगाम में हुए आतंकी हमले के जवाब में 7 मई की रात से 10 मई की शाम तक आते-आते, जब अधिकांश लोग यह मान कर चल रहे थे कि अब युद्ध की संभावना है या छद्म युद्ध की; तभी यकायक अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने ट्वीट के जरिए अमेरिकी मध्यस्थता में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धविराम होने की बात कही। इसके बाद ही भारत के प्रतिनिधि ने शाम 5 बजे से पूर्ण युद्ध विराम के रूप में समझौते के लागू होने और फिर 12 मई को इस संबंध में पुनः वार्ता होने की बात कही।
युद्ध विराम के रूप में समझौते की बात को अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा बताया जाना, एक ‘स्वघोषित विश्व गुरू और खुद को दुनिया के ताकतवर देशों में से एक’ कहने वाले के लिए शर्मनाक तो था ही, इस पर हड़कंप मचना स्वाभाविक था, जो मचा भी। शासक वर्ग जिस बात को छुपाकर करना चाहता था वह उजागर हो गई। विश्व गुरू के लिए स्थिति ना निगलते बन रही थी ना ही उगलते।
इस तरह भारत और पाकिस्तान के शासकों के संबंध में अमेरिकी साम्राज्यवादियों का हस्तक्षेप स्पष्ट रूप से उजागर हो गया। विपक्षी पार्टियों ने इसे संप्रभुता का मुद्दा बनाकर, इस पर संसद का विशेष सत्र बुलाने का आह्वान किया और सरकार से इस मुद्दे पर और समझौते के बिंदुओं को स्पष्ट करने की मांग की।
युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।
जहां तक आम जनता या आम नागरिकों का सवाल है। वह दोनों ही देशों में अपने-अपने मुल्कों के शासकों के अंधराष्ट्रवाद, दमन, लूट-खसोट और सांप्रदायिक उन्माद से त्रस्त है। बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और जीवन की भारी असुरक्षा न इस ओर कम है न उस ओर। इस सैन्य अभियान में, भारत और पाकिस्तान की सीमाओं पर रह रही लाखों की आबादी के लिए जो भयावह असुरक्षा की स्थिति बनी और कई लोगों के घरों को नुकसान हुआ तथा कुछ मारे गए और घायल हुए। हजारों लोग यहां से डर-दहशत में पलायन को मजबूर हुए। इन सभी के दुख-दर्द और परेशानियों को अंधराष्ट्रवाद के शोर के नीचे दफ्न करने की कोशिश दोनों ओर जारी है।
वैसे भी यह युद्ध या युद्धोन्माद दोनों देशों की आम जनता के हितों के विपरीत था। युद्ध या हमलों में मारे जाने व घायल होने वाले आम जनता-आम सैनिक तो हैं ही, साथ ही युद्ध के बोझ को भी आम जनता को ही बढ़ती महंगाई व अन्य दुश्वारियों के जरिये उठाना पड़ता। ऐसे में जनता के हित शासकों के उलट इस युद्ध तनाव-उन्माद का खात्मा कर स्थायी शांति में हैं।
जहां तक विपक्ष विशेषकर कांग्रेस का सवाल है वह इस युद्धविराम को अपमान और संप्रभुता पर हमले का तर्क देकर, इंदिरा गांधी के दौर में 1971 के पाकिस्तान के दो हिस्सों में बंटने को मजबूत सरकार और इंदिरा गांधी को लौह महिला के रूप में प्रचारित कर रही है। जबकि ये, नेहरू के जमाने में 1962 में चीन के साथ किए गए टकराव और युद्ध पर कोई बात नहीं करते। पाकिस्तान के बंटवारे के अपने आंतरिक कारण मूल में थे और साथ ही इसमें रूसी साम्राज्यवादियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इंदिरा गांधी सरकार की भूमिका भी रूसी साम्राज्यवादियों के सहयोग से ही बनी थी।
हकीकत यही है कि आजादी के बाद से भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के शासक वर्ग ने अलग-अलग ढंग से और अपने-अपने तरीकों से अपनी जनता की मेहनत की लूट-खसोट के दम पर शासक पूंजीपति वर्ग को मजबूत किया है और इसका विकास किया है। यदि भारत में जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड अपने आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए संघर्ष करते रहे और दमन-हिंसा के शिकार हुए तो यही स्थिति पाकिस्तान में बलूचिस्तान, गिलगित, बालिस्तान, सिंध, आजाद कश्मीर आदि की बनी।
दोनों ही कम या ज्यादा रूप में विदेशी तकनीक और पूंजी पर निर्भर रहे हैं। यही स्थिति आज भी है। दोनों के ही पास परमाणु बम से लेकर अन्य आधुनिक हथियार साम्राज्यवादी तकनीक से या आयात से ही हासिल हुये हैं। तकनीक के मामले में आज भी यही स्थिति है। दोनों ही देशों की कम या ज्यादा हद तक अमेरिकी, रूसी साम्राज्यवादियों पर और अब चीनी साम्राज्यवाद पर भी निर्भरता बनी रही है। स्थिति अब और ज्यादा जटिल है। तुर्की अपने आर्थिक-सामरिक हितों से पाकिस्तान के साथ है जो क्षेत्रीय ताकत बनती है। भारतीय शासकों ने लंबे समय से दक्षिण एशिया में अपने प्रभुत्व को कायम करने के हिसाब से काम किया है। पाकिस्तानी शासक इसे हमेशा चुनौती देते आए हैं। मोदी सरकार के आने के बाद इस प्रभुत्व की आकांक्षा ने और जोर पकड़ा। नतीजा यह रहा है भारतीय शासकों के बांग्लादेश और नेपाल से भी सम्बन्ध खराब हुए। इन क्षेत्रों में चीनी साम्राज्यवाद का दखल बढ़ गया। यही समीकरण भारत और पाकिस्तानी शासकों की टकराहट को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने देते या इन्हें इसके हिसाब से ढलने को बाध्य कर देते हैं। यही वजह है वर्तमान में अमेरिकी साम्राज्यवादी खुलेआम भारत की संप्रभुता और साथ ही मोदी की साख पर बट्टा लगाने का काम कर रहे हैं मगर मोदी सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती सिवाय झूठ, फर्जी दुष्प्रचार और लफ्फाजी के।
जहां तक युद्धों का सवाल है या छद्म युद्ध का। यह पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की संकटग्रस्तता का ही लक्षण है। इसी के परिणाम दमन, उत्पीड़न, कमजोर राष्ट्रों को कुचलना, राष्ट्रीयता के आंदोलनों का दमन, पूंजीवादी जनवाद का संकुचन और फासीवाद की प्रवृत्तियां, जन आकांक्षाओं का दमन के रूप में दिखते हैं। इसी में शासकों द्वारा प्रायोजित तरीके से आतंकवाद पैदा किया जाता है या प्रतिक्रिया में भी आतंकवाद पैदा हो जाता है। इसलिए इससे मुक्ति का एकमात्र रास्ता यही है कि पूंजीवाद साम्राज्यवाद की व्यवस्था से मुक्ति हो और समाजवादी व्यवस्था कायम की जाय।