हिन्दू फासीवादी और देशी अभिजात

हिन्दू फासीवादी ‘‘लुटियन गैंग’’ की काफी बात करते हैं। इसे वे हिकारत से देखते हैं और देश की सारी समस्याओं का कारण बताते हैं। वे कहते हैं कि ‘‘लुटियन गैंग’’ के लोग यानी दिल्ली की गद्दी पर काबिज पुराने अभिजात नरेन्द्र मोदी जैसे एक बाहरी ‘देशी संतान’ को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। इसीलिए वे मोदी से नफरत करते हैं और उनका विरोध करते हैं। 
    

हिन्दू फासीवादियों के समर्थक बुद्धिजीवी, खासकर वे लोग जो चाहते हैं कि हिन्दू फासीवादी अपना साम्प्रदायिक मुद्दा छोड़कर एक सामान्य दक्षिणपंथी पार्टी में तब्दील हो जायें, हिन्दू फासीवादियों की उपरोक्त बातों को समाजशास्त्रीय रूप देते हैं। वे कहते हैं कि आजादी के बाद से देश के सत्तातंत्र पर एक अंग्रेजी जानने-समझने वाला और अपनी जड़ों से कटा हुआ तबका काबिज रहा है। वह पश्चिमी मूल्य-मान्यताओं में पगा हुआ था तथा देश को पश्चिम की नजर से देखता था। भारतीय इतिहास, संस्कृति और धार्मिक परंपरा भी इसी नजर से देखे जाते थे। अब 2014 से समाज का एक ऐसा तबका सत्तातंत्र में आया है जो अपनी मिट्टी की पैदायश है। वह अपने देश, इतिहास, संस्कृति और धर्म को दूसरी नजर से देखता है। इसीलिए वह देश को दूसरी दिशा में ले जाना चाहता है। यह बात पुराने अभिजातों को पसंद नहीं आ रही है। 
    

मजे की बात यह है कि हिन्दू फासीवादियों का यह समाज शास्त्रीय विश्लेषण करने वाले लोग स्वयं उसी ‘‘लुटियन गैंग’’ का हिस्सा रहे हैं। बस वे अपने को उस ‘‘गैंग’’ से अलग कर स्वयं को हिन्दू फासीवादियों की सेवा में लगा रहे हैं। 
    

देश में हिन्दू फासीवादियों के उभार में क्या वास्तव में कोई सामाजिक परिघटना है? और यदि है तो वह क्या है? क्या आज सत्ता पर काबिज हिन्दू फासीवादी वास्तव में सत्तातंत्र के लिए बाहरी लोग हैं या वे उसी का हिस्सा हैं? ‘पुराने’ और ‘नये’ अभिजातों में क्या संबंध है? 
    

इस संबंध में सबसे पहली बात तो यही कि हिन्दू फासीवादियों द्वारा स्वयं को सत्तातंत्र से बाहर का घोषित करना कोई नायाब चीज नहीं है। हिटलर और मुसोलिनी ने भी स्वयं को उसी तरह मौजूदा सत्तातंत्र से बाहर का व्यक्ति घोषित किया था जैसे नरेन्द्र मोदी करते हैं। आज भी पूरी दुनिया में फासीवादी मनोवृत्ति के सारे नेता यही कर रहे हैं चाहे वह डोनाल्ड ट्रंप हों या एर्दोगन। आम जनमानस में मौजूदा सत्तातंत्र के प्रति नफरत को भुनाने का इससे अच्छा कोई तरीका नहीं हो सकता कि उस सत्तातंत्र का हिस्सा होते हुए भी कोई खुद को उससे अलग और बाहरी घोषित कर दे। दिल्ली की गद्दी पर काबिज होने के पहले मोदी लगातार बारह साल मुख्यमंत्री रह चुके थे और उनके मंत्रिमण्डल के ज्यादातर लोग दशकों से दिल्ली के सत्तातंत्र के गलियारों में घूम रहे थे। फिर भी हिन्दू फासीवादियों ने स्वयं को ‘‘लुटियन गैंग’ से अलग और बाहर का घोषित कर दिया। उन्होंने इस तथ्य को आसानी से भुला दिया कि इसके पहले वे 1998 से 2004 तक दिल्ली की गद्दी पर काबिज रह चुके थे। यही नहीं, वे बहुत पहले ही 1977-79 के काल में जनता पार्टी सरकार का हिस्सा रह चुके थे (जिसमें वाजपेयी और आडवाणी दोनों मंत्री थे) तथा 1989-90 में जनता दल सरकार का समर्थन कर चुके थे। 
    

इस तरह देखा जाये तो हिन्दू फासीवादियों द्वारा स्वयं को सत्तातंत्र के बाहर का बताना उसी तरह का झूठ है जैसा वे अक्सर बोलते रहते हैं। सच्चाई और हिन्दू फासीवाद का बहुत दूर का नाता है। 
    

तो क्या हिन्दू फासीवादियों के वर्तमान उभार की तह में कोई सामाजिक परिघटना नहीं है? क्या यह आधारहीन है और महज तात्कालिक है? नहीं। ऐसा नहीं है। इसके पीछे एक व्यापक सामाजिक परिघटना है। और इसे पूंजीवादी दायरों में एक नाम भी मिला- मण्डल बनाम कमण्डल। 
    

उत्तर भारत में हिन्दू फासीवादियों का बड़े पैमाने पर उभार 1980 व 90 के दशक की परिघटना है (कर्नाटक को छोड़कर बाकी दक्षिण भारत इससे अभी तक अप्रभावित रहा है)। और ठीक यही काल इस क्षेत्र में दलित-पिछड़ा उभार का भी काल है। इन दोनों में संबंध है। बल्कि कहा जाये तो ये दोनों ही एक ही सामाजिक परिघटना के दो पहलू हैं। ये दोनों पहलू कभी एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े हो जाते हैं तो कभी एक-दूसरे के साथ आ जाते हैं। 
    

आजादी के बाद भारत का जो पूंजीवादी विकास हुआ उससे उत्तर भारत की दलित-पिछड़ी जातियों में एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ जो आर्थिक तौर पर हासिल अपनी हैसियत को सामाजिक और राजनीतिक तौर पर भी पुख्ता करने की कोशिश करने लगा। पिछड़ों की दबंग जातियों ने इसमें पहलकदमी ली। और दलितां की दबंग जातियों तथा अंत में सभी दलित-पिछड़ी जातियों में यह आम परिघटना हो गई। जातिगत गोलबंदी कर समाज में और खासकर राजनीति में अपनी पहचान और हैसियत बनाने की होड़ मच गई। उत्तर प्रदेश और बिहार में यह खास तौर पर देखने में आया। मध्य प्रदेश और राजस्थान के साथ मिलकर एक तरह से ये देश की राजनीति तय कर देते हैं। 
    

दलित-पिछड़ी जातियों की इस गोलबंदी में इन जातियों में उभरे नये अभिजातों की निर्णायक भूमिका थी। बल्कि कहें तो यह उनके नेतृत्व में और इनके फायदे के लिए ही थी। इन जातियों में आम लोग तो इनके लिए महज इस्तेमाल की चीज थे। इस गोलबंदी से सामाजिक और राजनीतिक तौर पर जो भी हैसियत हासिल हो रही थी वह इन नये अभिजातों को ही हासिल हो रही थी। 
    

तब भी यह कहना होगा कि इस गोलबंदी के द्वारा पूंजीवादी दायरे में समाज का जनतांत्रीकरण हो रहा था। सत्तातंत्र का छोटे से अभिजात दायरे से बड़े अभिजात दायरे तक फैलाव हो रहा था। इसमें पुराने अभिजातों के साथ अब नये अभिजात भी शामिल हो रहे थे। जातिगत तौर पर देखा जाये तो पहले का सवर्ण वर्चस्व टूट रहा था तथा गांव-गांव तक सत्तातंत्र में दलित-पिछड़े अभिजात भी शामिल हो रहे थे। इसे ही मण्डल की राजनीति का नाम दिया गया। 
    

एक दूसरे मुहावरे को बदल कर कहें तो जब मण्डल आया तो कमण्डल क्या पीछे रह सकता था? नहीं और यह दो विपरीत दिशाओं से हुआ। 
    

दलित-पिछड़ा उभार से सवर्ण जातियों के अभिजातों का जो सामाजिक-राजनीतिक वर्चस्व टूटा उससे उनमें तीखी प्रतिक्रिया हुई। उनके अंदर एक ऐसी खुन्नस पैदा हुई जिसने उन्हें हिन्दू फासीवादियों की ओर धकेला। अभी तक ये अभिजात कांग्रेस पार्टी के साथ थे। अब वे भाजपा की ओर जाने लगे। इसकी सीधी सी वजह यह थी कि भाजपा और समूचा संघ परिवार जिस सोच के हामी थे वह सवर्ण वर्चस्व वाली थी। यह अचरज की बात नहीं है कि संघ परिवार आज भी वर्ण व्यवस्था को आदर्श समाज व्यवस्था मानता है। समाज में अपना वर्चस्व खो रहे सवर्ण अभिजातों का इस संघ परिवार की ओर जाना स्वाभाविक था। 
    

दूसरा कारण आर्थिक था। भारत के पूंजीवादी विकास के खास चरित्र के कारण 1980 के दशक तक न केवल छोटी-मझोली खेती तथा छोटे-मोटे उद्योग-धंधे संकट में पड़ गये बल्कि यहां तबाह हो रहे लोगों को कहीं और रोजगार मिलने की संभावना भी अत्यंत धूमिल हो गई। इस कारण स्थाई और अच्छे रोजगार के तौर पर सरकारी नौकरियों का आकर्षण और बढ़ गया तथा इसके लिए भयंकर मारा-मारी होने लगी। यह याद रखना होगा कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण को लेकर बवाल 1980 के दशक में ही शुरू हो गया। 
    

रोजी-रोटी के इस संकट ने एक ओर सवर्णों को दलितों-पिछड़ों से नफरत की ओर धकेला तो दूसरी ओर हिन्दू फासीवादियों ने इसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ मोड़ने का प्रयास किया। यह दोनों एक साथ चलता रहा। आज भी इसे देखा जा सकता है जब सवर्ण एक ही समय दलितों-पिछड़ों से अपनी नफरत का इजहार करते हैं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ भी। वे एक सांस में आरक्षण का विरोध करते हैं तो दूसरी सांस में मुसलमानों को देश का दुश्मन घोषित करते हैं। 
    

लेकिन सवर्णों की इस गति के साथ एक दूसरी चीज भी हुई। उत्तर भारत की कुछ दबंग पिछड़ी जातियों में हिन्दू फासीवादियों ने अपनी पैठ बनाई। इन पिछड़ी जातियों के अभिजातों को सामाजिक-राजनीतिक तौर पर ज्यादा आसानी से हैसियत मिल गई थी और वे हिन्दू फासीवादियों द्वारा समाहित किये जाने के लिए तैयार थे। दलितों से उनकी दूरी और उनके प्रति हिकारत की भी इसमें भूमिका थी। 
    

इस परिघटना को थोड़ा बारीकी से देखने पर यह साफ हो जायेगा कि हिन्दू फासीवादियों के पीछे गोलबंद होने वाले सवर्णों का अभिजात हिस्सा सामाजिक तौर पर चले आ रहे अभिजातों का ही वंशज है। बस वह पहले की सामंती सोच से थोड़ा हटकर पूंजीवादी सोच वाला हो गया है। जातीय गौरव का इसका भाव जहां सामंती है वहीं वह पैसे के पीछे भागने वाला भी है। इनके मुकाबले दलित और पिछड़ों के अभिजात अपेक्षाकृत नये हैं लेकिन इनमें से हिन्दू फासीवादियों के साथ अपेक्षाकृत कम हैं। 
    

लेकिन तब भी एक बात है। पहले दिल्ली के सत्तातंत्र तक क्रमशः पहुंचने वाले अभिजात सत्ता के निचले पायदानों से क्रमशः ऊपर चढ़ते हुए अपना गंवारापन पीछे छोड़ आते थे। दिल्ली दरबार तक पहुंचते-पहुंचते वे भद्र और शिष्ट हो जाते थे। उनके अंदर नजाकत-नफासत आ जाती थी। भारतीय जनसंघ बनियों की पार्टी मानी जाती थी पर दिल्ली में उनके प्रतिनिधि वाजपेयी और आडवाणी कांग्रेसियों की तरह ही सभ्य थे।  
    

1980 के दशक से उत्तर भारत में जो सामाजिक परिघटना मुखर हुई उसने उन अभिजातों को तेजी से आगे बढ़ाया जिन्हें नजाकत-नफासत सीखने का समय नहीं मिला था। प्रदेश की राजधानियों से लेकर दिल्ली तक सब जगह वे पहुंचने लगे। लालू और मायावती इनके प्रतीक कहे जा सकते हैं। दिल्ली के पुराने नफीस अभिजातों ने इन्हें हिकारत से देखा और आम सवर्णों ने भी अपनी जातिगत घृणा के चलते उनके प्रति यही रुख अपनाया। 
    

लेकिन मोदी-शाह के साथ स्वयं हिन्दू फासीवादियों में भी यही भदेस अभिजात अपने पूरे भदेसपन के साथ दिल्ली दरबार में जा पहुंचे। यह गंवई और कस्बाई अभिजातों की दिल्ली में दस्तक थी। नवाबों के शहर में महंत योगी तथा बादशाहों के शहर में मोदी-शाह वाकई नमूना थे। कहा जाये तो दिल्ली का गुजरातीकरण हो गया तथा लखनऊ का गोरखपुरीकरण। दोनों जगह कस्बाई भदेसपन को साफ महसूस किया जा सकता है। आज हिन्दू फासीवादियों की समूची राजनीतिक भाषा और      संस्कृति में भी इसे देखा जा सकता है। इसे योगी के भगवा में तथा मोदी की लगातार बदलने वाली पोशाकों में भी देखा जा सकता है। 
    

पर तब भी इसके प्रभाव और महत्व को जरूरत से ज्यादा आंकना गलत होगा। हिटलर और मुसोलिनी के जमाने से ही यह साफ रहा है कि ये ‘‘नये’’ अभिजात बहुत आसानी से सत्तातंत्र द्वारा आत्मसात कर लिये जाते रहे हैं। सत्तातंत्र इन्हें इतनी छूट देता है कि वे मनोवैज्ञानिक तौर पर स्वयं को वर्चस्वशाली मानकर संतुष्ट महसूस कर सकें। पर असल में सत्तातंत्र पुराने तरीके से ही चलता रहता है और बड़े पूंजीपति वर्ग की सेवा में लगा रहता है। 
    

नरेन्द्र मोदी को दिल्ली की गद्दी पर सत्तातंत्र के वास्तविक मालिकों यानी बड़े पूंजीपतियों ने ही बैठाया था। आज भी उन्हीं की कृपा से ही मोदी उस गद्दी पर काबिज हैं। जैसा कि पहले कहा गया है सत्तातंत्र के ज्यादातर कारिन्दे वही पुराने हैं। स्वयं मोदी भी लम्बे समय से इस सत्तातंत्र का हिस्सा हैं। बस उन्होंने अपना भदेसपन नहीं छोड़ा है। उन्होंने अपना भदेसपन उसी तरह बनाये रखा है जैसे लालू ने बनाये रखा था। पूंजीवादी व्यवस्था की आम गति में इसका यानी भदेसपन अथवा नजाकत-नफासत का गौण महत्व ही है। 
    

जो भी लोग इस गौण बात को प्रधान बना कर हिन्दू फासीवादियों के वर्तमान शासन को अतिरिक्त वैधानिकता प्रदान करने की कोशिश करते हैं वो धूर्तता कर रहे हैं और ऐसा करने वाले लोग यदि ‘‘लुटियन गैंग’’ का हिस्सा रह चुके हों तो उनकी कुटिल मंशा को आसानी से समझा जा सकता है। 

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