भारत एक निगरानी राज्य और आधार की भूमिका

आज जब देश की जनता अपने जीवन के हर मोड़ पर सरकार के द्वारा जांची-परखी, दर्ज और पंजीकृत की जा रही है तो भारत पूरी तरह से एक निगरानी राज्य में तब्दील हो चुका है। चेहरे की पहचान करने वाली तकनीक का धड़ल्ले से सार्वजनिक स्थानों और विश्वविद्यालयों में उपयोग किया जा रहा है। राजनीतिक और संस्थागत विपक्ष को एनएसओ के पेगासस स्पाइवेयर के जरिए कमजोर किया जा रहा है (इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट भी सरकार से स्पष्ट जवाब नहीं हासिल कर सकी)। आधार प्रोजेक्ट तेजी से पैर पसार रहा है और आधार कानून 2016 से ताकत पाकर थोपा जा रहा है जिससे बचना लगभग नामुमकिन हो चुका है। 
    
भारतीय जनता ज्यादा से ज्यादा इंटरनेट से जुड़ रही है। इंटरनेट और स्मार्टफोन तकनीक एक विशाल और सामाजिक तौर पर जटिल देश में जमीनी स्तर तक पैठ बनाती जा रही है। इसके साथ-साथ निगरानी अवरचना का तेजी से विकास हुआ है। ‘डिजीटलाइजेशन’ को प्रगति, आधुनिकता और ‘विकास’ के प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत कर न्यायोचित ठहराया जा रहा है। 
    
कानून के जरिए या कम औपचारिक तरीके जैसे सड़क पर पुलिस के जरिए अपनी निजी जानकारियों को राज्य को मुहैय्या कराकर भारतीय लोग ज्यादा से ज्यादा असुरक्षित बनते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में लागू की जा रही चेहरे के पहचान के सिस्टम या तेलंगाना पुलिस के सीसीटीवी के जाल और मुस्लिम बस्तियों के निवासियों की घेराबंदी और आधार और अन्य दस्तावेज इकट्ठा करने की रिपोर्टों को लें। दिल्ली पुलिस का एक खास हिस्सा स्पेशल यूनिट फॉर नार्थ ईस्ट रीजन जिसको जिम्मेदारी दी गई है कि उत्तर पूर्व, लद्दाख और दार्जिलिंग की पहाड़ियों के निवासियों के आंकड़े इकट्ठा करें। यह ‘सुरक्षा’ के नाम पर इन क्षेत्रों के निवासियों की प्रबल नस्लीय निगरानी है। यह एक उदाहरण है कि निगरानी कैसे सत्ता की गैर बराबरी को कायम करने और किसी समूह की अन्य के बरक्स सामाजिक हैसियत बनाने का तरीका बन जाती है। 
    
.......यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि मुस्लिम, ईसाई और सिखों जैसे अल्पसंख्यक समूहों और ऐतिहासिक तौर पर अधीनता वाली स्थिति में रह रहे महिलाओं, दलितों और आदिवासियों के साथ यही हो रहा होगा। ‘गर्भ से कब्र’ तक की निगरानी अवरचना जो कि आम तौर पर ‘आधार’ के नाम से जानी जाती है, देश के हर व्यक्ति का एक नंबर के जरिए हिसाब रखती है। यह और भी आसान बना देता है कि लोगों को इस आधार पर छांटा जाए, वर्गीकृत किया जाए और अलग-अलग किया जाए कि वे कौन हैं, वे क्या बोलते हैं और वे किस समूह का हिस्सा हैं। 
    
......वास्तविकता में आधार नंबर का न होना लोगों के लिए अस्पताल में भर्ती न हो पाने, खाद्य सहायता न हासिल कर पाने, स्कूल में नाम न लिखा पाने और यहां तक कि बच्चों को स्कूल के पिकनिक में न जा पाने का कारण बन जाता है। ‘सशक्तिकरण’ के बहुप्रचारित माध्यम बनने के बजाय आधार अशक्तिकरण, बहिष्करण और अपमानित किए जाने का माध्यम बन गया है। 
    
......आधार के कल्याण वितरण पहलू ने एक आवरण का काम किया है जो इसके व्यवसायिक उद्देश्यों को ढंकता है। सरकार प्रायः अर्द्ध सत्यों का उपयोग करती है कि कैसे यह प्रोजेक्ट कल्याण वितरण में लीकेज को रोकता है। 2016 में सरकार की ‘एल पी जी सब्सिडी’ में बचत की पोल खुल गयी थी और इनको सफाई देनी पड़ गयी थी। 
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आधार जनता की जनतांत्रिक तरीके से व्यक्त किए गये या नीचे से लड़ी गई किसी भी मांग को संबोधित नहीं करता। यह सरकार के और कारपोरेट के आपस में गुंथे हुए हितों को लाभ पहुंचाने के मकसद से थोपा गया एक तकनीकी औजार है। 
(काउंटरकरेन्ट के एक लेख के अंश का अनुवाद) 

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