गैबन में सैनिक तख्तापलट और फ्रांसीसी साम्राज्यवाद

बुरकीना फासो, माली और नाइजर के बाद गैबन में सैनिक तख्तापलट हो गया है। ये सभी देश फ्रांस के उपनिवेश रह चुके हैं। आज भी इन देशों में फ्रांसीसी साम्राज्यवादी प्रभुत्व की स्थिति में हैं। गैबन का तख्तापलट 30 अगस्त को उस समय हुआ जब राष्ट्रपति के चुनाव में अली बोंगो ओनडिम्बा को फिर से राष्ट्रपति चुनने की घोषणा हुई। इस चुनाव में बड़े पैमाने की चुनावी धोखाधड़ी और अनियमितता के आरोप लगाये गये। बोंगो परिवार 1967 से सत्ता में रहा है। 1967 से 2009 में मरने तक अली बोंगो के पिता सत्ता में थे। इसके बाद से अली बोंगो गैबन के राष्ट्रपति रहे हैं। 
    
गैबन को 1960 में फ्रांस से आजादी मिली थी। मौजूदा तख्तापलट के पहले भी 2019 में तख्तापलट के असफल प्रयास हुए थे। अली बोंगो और इसके पहले उनके पिता उमर बोंगो के शासन काल में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। अली बोंगो सत्ता में बने रहने के लिए कई बार संविधान और चुनाव कानूनों में परिवर्तन करते रहे हैं। इसके अतिरिक्त चुनावों में धांधली के आरोप उन पर लगते रहे हैं। 
    
चुनाव परिणामों की घोषणा के थोड़े ही समय बाद सेना के अधिकारियों और रिपब्लिकन गार्ड के सदस्यों ने तख्तापलट कर दिया (रिपब्लिकन गार्ड उच्च सरकारी अधिकारियों और इमारतों की रक्षा के लिए बनाई गयी शक्तिशाली सैन्य इकाई है)। इन्होंने संक्रमण और संस्थाओं की पुनर्स्थापना के लिए कमेटी का गठन किया। राष्ट्रपति, उनके बेटे और राष्ट्रीय असेम्बली के अध्यक्ष को गिरफ्तार कर लिया। रिपब्लिकन गार्ड के ब्रिगेडियर जनरल ब्राइस ओलिग्यू को अंतरिम राष्ट्रपति के तौर पर बैठा दिया गया। 7 सितम्बर को एक समय के प्रधानमंत्री रहे रेमण्ड न्डोंग सिमा की प्रधानमंत्री के बतौर नियुक्ति की गयी। इसके साथ ही चुनाव कराने का वायदा किया गया। 
    
तख्तापलट के बाद जहां राजधानी लिब्रेविले सहित देश के अन्य शहरों में तख्तापलट के समर्थन में प्रदर्शन हुए वहीं अफ्रीकी संघ, इकोवास और नाइजीरिया ने तख्तापलट की भर्त्सना की। इकोवास ने 5 सितम्बर को गैबन की सदस्यता निलम्बित कर दी। फ्रांसीसी सरकार ने तख्तापलट की भर्त्सना की और चुने हुए राष्ट्रपति की बहाली की मांग की। 
    
गैबन तेल निर्यातक देशों के संगठन का सदस्य है। यह उप-सहारा अफ्रीका के सबसे बड़े तेल उत्पादक देशों में आठवां स्थान रखता है। उमर बोंगो और अली बोंगो ने अपने परिवार के इर्द गिर्द शासक गुट के लिए बड़े पैमाने पर सम्पत्ति इकट्ठी की है। यह सम्पत्ति तेल के साधन स्रोतों को विदेशी विशेष तौर पर फ्रांसीसी कम्पनियों के हवाले करके उसके एक हिस्से के बतौर हासिल की है। दशकों से गैबन के तेल उद्योग पर फ्रांसीसी तेल कम्पनी ईएलएफ का कब्जा रहा था। इस समय इस तेल कम्पनी का टोटल एनर्जी में विलय हो गया है। फ्रांस इस देश में अपने व्यापक आर्थिक हितों की हिफाजत के लिए 400 की तादाद में अपनी फौज तैनात किए हुए है। 
    
गैबन की 90 प्रतिशत सम्पदा पर सिर्फ ऊपरी 20 प्रतिशत आबादी का कब्जा है। 2022 में यहां की बेरोजगारी दर 21.47 प्रतिशत रही है। इस देश की आधी से ज्यादा आबादी दो शहरों लिब्रेविले और पोर्ट-जेण्टिल में रहती है। लिब्रेविले की भीड़भाड़ वाली झुग्गी-झोंपडियों में लोग भयावह गरीबी में रहते हैं। गैबन के शहरी इलाकों में रहने वाले हजारों लोग भोजन, पानी या स्वच्छता की उचित पहुंच के जरूरी स्रोतों से वंचित हैं।
    
अन्य अफ्रीकी देशों में हाल में हुए सैनिक तख्तापलट के सैन्य अधिकारियों का साम्राज्यवादी सेनाओं- अमरीकी और नाटो की- विशेष तौर पर फ्रांसीसी सेनाओं से घनिष्ठ रिश्ता रहा है। लेकिन मौजूदा समय में फ्रांसीसी प्रभुत्व के विरुद्ध बढ़ते जनाक्रोश को देखकर सैन्य अधिकारी भी फ्रांस के प्रभुत्व के विरुद्ध हो रहे हैं। बुरकीना फासो, माली और नाइजर ने फ्रांसीसी सेना को बाहर का रास्ता दिखाने का निर्णय लिया है। अभी तक, गैबन ने फ्रांसीसी सेना को बाहर करने का निर्णय नहीं लिया है। हो सकता है कि जन-दबाव में इसको भी यह निर्णय लेना पड़े। 
    
वैसे फ्रांस का अफ्रीकी उपनिवेशों में उपनिवेश समाप्त हो जाने के बाद भी भयंकर उत्पीड़नकारी चरित्र रहा है। गैबन में फ्रांस की लगभग 85 कम्पनियां मौजूद हैं। वे तेल, यूरेनियम, मैंगनीज और अन्य क्षेत्रों में लगी हुई हैं। फ्रांस के साम्राज्यवादी गैबन में बहुत कुछ दांव पर लगाये हुए हैं। अन्य फ्रांसीसी पूर्व उपनिवेशों की तरह यहां भी वे अपना प्रभुत्व खोने से घबराये हुए हैं। 
    
पैन-अफ्रीकन न्यूज वायर के बाबी क्युवाको ने 8 सितम्बर को लिखा है। यहां उक्त लेख का एक अंश प्रस्तुत हैः 
    
‘‘फ्रांस शैतान है और फ्रांस के कारण तमाम बेचैनी है। क्यों?
    
अफ्रीकी देश अभी भी फ्रांस को औपनिवेशिक टैक्स के बतौर हर साल 500 अरब डालर से ज्यादा भुगतान करते हैं। 
    
जब गिनी के राष्ट्रपति सेकोऊ टोरे ने फ्रांस से आजादी की जंग जीती तब फ्रांसीसी सरकार ने 3000 फ्रांसीसियों को उस देश से वापस बुला लिया। 
    
उनसे फ्रांस की सरकार ने कहा कि उनके पास जो कुछ है, जो फ्रांसीसी नियंत्रण में है, वह सभी ले आयें और जो कुछ नहीं ला सकते उसे नष्ट कर दें। 
    
उस समय समूचे देश में जो चीजें नष्ट की गयीं वे स्कूल, नर्सरियां, सार्वजनिक प्रशासन की इमारतें, महत्वपूर्ण राष्ट्रीय अभिलेख और योजनायें, कारें, किताबें और दवायें थीं। 
    
इस व्यापक विनाश में अनुसंधान संस्थानों के औजार, कृषि में इस्तेमाल होने वाले ट्रैक्टर, सड़कें शामिल थीं और खेतों में घोड़ें और गायें मार दी गयीं। खाद्यान्नों को जला दिया गया या उनमें जहर डाल दिया गया। 
    
गिनी की अवाम के विरुद्ध इस भयावह कार्रवाई के विरुद्ध सरोकार दिखाते हुए और उनके साथ एकजुटता प्रदर्शित करके उस समय घाना के राष्ट्रपति डा. क्वामे न्क्रूमाह ने 1 करोड़ पाउण्ड की मदद की जिससे कि इस त्रासदी से गिनी बच सके।
    
इस दुष्कृत्य का मकसद दूसरे सभी उपनिवेशों को यह संदेश देना था कि फ्रांस से मुक्ति के परिणाम भयावह होंगे।
    
यह एक तथ्य है कि इससे क्रमशः अफ्रीकी देशों के अभिजात तबकों में भय व्याप्त हो गया और इन घटनाओं के बाद कोई दूसरा देश गिनी के सेकोऊ टोरे के उदाहरण की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया। सेकोऊ टोरे का नारा था ‘‘हम गुलामी की समृद्धि की तुलना में आजाद रहकर गरीबी को प्राथमिकता देंगे।’’ 
    
इसके बाद किसी भी नये आजाद देश के लिए फ्रांस के साथ समझौता करना आवश्यक हो गया। 
    
पश्चिमी अफ्रीका के एक छोटे से देश टोगो गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति सिल्वानस ओलम्पियो ने फ्रांस के साथ सुलह में समाधान देखा। 
    
फ्रांस के प्रभुत्व को जारी रखने को न चाहते हुए उन्होंने द गाल द्वारा प्रस्तावित औपनिवेशिक समझौते पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया, लेकिन इसके एवज में फ्रांसीसी औपनिवेशीकरण के दौरान प्राप्त तथाकथित फायदों के लिए फ्रांस को सालाना कर्ज का भुगतान करने पर वे सहमत हो गये। 
    
फ्रांस द्वारा यह लादी गई एकमात्र शर्त थी, जिससे कि देश को तबाह होने से बचाया जा सके। हालांकि फ्रांस द्वारा अनुमानित रकम इतनी ज्यादा थी कि इस तथाकथित ‘‘औपनिवेशिक कर्ज’’ को चुकाने में 1963 के उस देश के बजट का तकरीबन 40 प्रतिशत चला जाना था। 
    
परिणामस्वरूप, अभी हाल में स्वाधीन टोगो की वित्तीय परिस्थिति बहुत अस्थिर हो गयी। इस परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए, ओलिम्पियो ने औपनिवेशिक फ्रांस द्वारा स्थापित मौद्रिक व्यवस्था एफ.सी.एफ.ए. (अफ्रीका की फ्रांसीसी उपनिवेशों के लिए फ्रांक) को छोड़ने का फैसला किया और देश की अपनी मुद्रा स्थापित की। 
    
13 जनवरी, 1963 को, नये नोट छापने की शुरूवात करने के तीन दिन बाद सैनिकों के एक दस्ते ने (फ्रांसीसियों के समर्थन के साथ) स्वाधीन अफ्रीका के निर्वाचित प्रथम राष्ट्रपति को बंधक बनाया और उनकी हत्या कर दी। ओलिम्पियो की हत्या एक पूर्व फ्रांसीसी फौजी ने की थी जिसे स्थानीय फ्रांसीसी दूतावास ने मिशन की सफलता पर 612 डालर का बोनस दिया था। 
    
ओलम्पियो का सपना एक स्वाधीन और स्वायत्त देश का था। लेकिन उनका यह विचार फ्रांसीसियों की चाहत से मेल नहीं खाता था। 
    
30 जून, 1962 को माली गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति मोडिबो कीटा ने भी सी.एफ.ए.एफ. मौद्रिक प्रणाली (12 नये स्वाधीन अफ्रीकी देशों पर थोपी गयी) से अलग होने का फैसला किया।....
    
19 नवम्बर, 1968 को कीटा को भी ओलिम्पिया की तरह ही तख्तापलट का शिकार होना पड़ा। इस तख्तापलट को भी पूर्व फ्रांसीसी फौजी ने अंजाम दिया था।.....
    
3 जनवरी, 1966 को अपर वोल्टा गणराज्य (वर्तमान में बुरकीना फासो) के प्रथम राष्ट्रपति मॉरिस यामेयेगो को एक पूर्व फ्रांसीसी फौजी के नेतृत्व में तख्तापलट का शिकार बनाया गया।....
    
26 अक्टूबर, 1972 को बेनिन गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति हुबर्ट मागा के विरुद्ध फ्रांसीसियों ने तख्तापलट कराया। 
    
वास्तव में विगत 50 वर्षों में अफ्रीका के 26 देशों में कुल 67 तख्तापलट हुए। इनमें 16 वे देश थे जो फ्रांसीसी उपनिवेश थे। इसका मतलब यह है कि अफ्रीका के 61 प्रतिशत तख्तापलट उन देशों में हुए जो फ्रांसीसी उपनिवेश थे। 
    
मार्च, 2008 में पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति जैक शिराक ने कहा थाः 
    
‘‘अफ्रीका के बगैर, फ्रांस दुनिया की गिरकर 23वें नम्बर की शक्ति हो जायेगी। जैक शिराक के पूर्ववर्ती फ्रांसिस मितरां ने 1957 में ही भवितव्य बताया था कि ‘‘अफ्रीका के बगैर, 21 वीं सदी में फ्रांस का कोई इतिहास नहीं होगा।’’
    
मौजूदा समय में 14 अफ्रीकी देश फ्रांस के साथ औपनिवेशिक समझौते में बंधे हुए हैं, जिसके तहत उन्हें फ्रांस के वित्त मंत्रालय के नियंत्रण के अंतर्गत फ्रांस के केन्द्रीय बैंक में अपने रिजर्व का 85 प्रतिशत रखना होता है। 2014 तक टोगो और लगभग 13 अन्य अफ्रीकी देशों को फ्रांस को औपनिवेशिक कर्ज देना पड़ता रहा है। वे अफ्रीकी नेता जो यह कर्ज देने से इंकार करते हैं या तो मार दिये जाते हैं या उनका तख्तापलट हो जाता है। जो फ्रांस के आदेश को मानते हैं उन्हें फ्रांसीसी समर्थन मिलता है और फ्रांस द्वारा शानोशौकत वाली जिंदगी मुहैय्या करायी जाती है, जब कि व्यापक आबादी तकलीफों और हताशा में जीवन बसर करती है। 
    
यहां तक कि यूरोपीय संघ ने इस बुरी प्रणाली की निंदा की है लेकिन फ्रांस इस औपनिवेशिक प्रणाली के बिना रहने को तैयार नहीं है। यह औपनिवेशिक प्रणाली फ्रांस को प्रत्येक वर्ष लगातार अफ्रीका से 500 अरब डालर नगद मुहैय्या कराती है। अक्सर ही अफ्रीकी नेताओं की भ्रष्टाचार और पश्चिमी देशों के स्वार्थों के लिए काम करने वालों के बतौर निंदा की जाती है। लेकिन यह उनके ऐसे व्यवहार की स्पष्ट व्याख्या कर देता है। वे ऐसा व्यवहार इसलिए करते हैं क्योंकि वे मारे जाने या तख्तापलट हो जाने से डरते हैं। वे खुद को शक्तिशाली देशों के साथ गठबंधन बनाने की ओर ले जाते हैं जिससे कि आक्रमण के समय या परेशानी में अपनी रक्षा कर सकें।’’
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पैन अफ्रीकन न्यूजवायर के इस लेख में अफ्रीकी शासक वर्ग के सिर्फ डर की चर्चा की गयी है। इसमें इस बात का विश्लेषण नहीं किया गया है कि अफ्रीकी देशों के शासक अपने यहां की मजदूर-मेहनतकश आबादी के संगठित प्रतिरोध से डरते हैं क्योंकि ये खुद ही उनके हितों के विरुद्ध काम करते हैं। इसलिए अफ्रीकी देशों के पूंजीपति और अन्य शोषक साम्राज्यवादियों के साथ समझौते करते हैं और उनके सामने घुटने टेकते हैं।
    
लेकिन आज जब विश्व परिस्थिति बदल रही है तो अफ्रीकी देशों के शासकों का एक हिस्सा, फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों के चंगुल से देश को बाहर ले जाने के लिए जन आक्रोश का इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन ये सैनिक तख्तापलट के सूत्रधार खुद अपने यहां मजदूर-मेहनतकश आबादी के विरुद्ध है और शोषक वर्गों के प्रतिनिधि के बतौर अपनी विश्वसनीयता पेश करना चाहते हैं। इसलिए ये जनआक्रोश का इस्तेमाल अपनी सत्ता को सुदृढ़ करने तथा शोषकों की सेवा में व्यवस्था को संचालित करने में लगे हैं। 
    
गैबन का मौजूदा तख्तापलट इसी दिशा में शासक वर्गों के एक हिस्से की ओर से एक कदम है। इससे यह तो हो सकता है कि फ्रांसीसी साम्राज्यवादी इन देशों से पीछे हटने के लिए मजबूर हो जायें। लेकिन उनका स्थान कोई अन्य साम्राज्यवादी ताकत लेने के लिए आगे आ सकती है। इस दिशा में एकतरफ अमरीकी साम्राज्यवादी और दूसरी तरफ रूसी-चीनी साम्राज्यवादी सक्रिय हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी अफ्रीका में अपने संश्रयकारी अन्यत्र की तरह तलाश रहे हैं जिससे कि अपने गिरते प्रभाव को बचा सकें। चीनी व रूसी साम्राज्यवादी भी अपने प्रभाव विस्तार में लगे हुए हैं। 
    
लेकिन इतना निश्चित है कि फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों का अफ्रीकी देशों में वर्चस्व टूटने की ओर जा रहा है। 

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

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