‘समान नागरिक संहिता’: एक हिन्दू फासीवादी कुचक्र

पिछले समय में हिन्दू फासीवादियों की ओर से समान नागरिक संहिता की बातें एक बार फिर बहुत जोर-शोर से होने लगी हैं। कई भाजपा शासित प्रदेशों में इस संबंध में विधेयक लाने की बात हो रही है। गुजरात के हाल के चुनाव में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा इस आशय की बात की गई। राज्य सभा में एक सदस्य ने इस संबंध में अपना एक निजी विधेयक पेश किया।

समान नागरिक संहिता हिन्दू फासीवादियों के उन तीन प्रमुख मुद्दों में से एक रहा है जिस पर उन्होंने पिछले तीन-चार दशकों में गोलबंदी की है। अयोध्या में राम मंदिर और जम्मू-कश्मीर से संबंधित संविधान की धारा 370 को निरस्त करना अन्य दो मुद्दे थे जिसे उन्होंने लागू कर दिया है।

समान नागरिक संहिता के मामले में हिन्दू फासीवादियों का तर्क यह रहा है कि देश की एकता-अखण्डता के लिए यह जरूरी है। देश के अलग-अलग नागरिकों के लिए अलग-अलग नागरिक संहिताएं विभाजन को जन्म देती हैं। इसी वजह से वे देश के विकास के लिए भी बाधा हैं।

समान नागरिक संहिता की बातें हिन्दू फासीवादी इस दावे के साथ करते रहे हैं कि धर्म की राजनीति और सार्वजनिक जीवन में भूमिका होनी चाहिए। बिना धार्मिक निर्देशन के वे सही दिशा में नहीं चल सकते। साथ ही वे यह भी कहते रहे हैं कि हिन्दू धर्म कोई पंथ नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति है। इन सब बातों का कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकलता है कि भारत के सारे नागरिकों को हिन्दुओं के धार्मिक-सामाजिक विश्वासों के हिसाब से चलना चाहिए इसलिए हिन्दू फासीवादियों की समान नागरिक संहिता सभी नागरिकों को अपने धार्मिक विश्वासों से इतर एक धर्म निरपेक्ष नागरिक संहिता का पालन करने की ओर नहीं ले जाती। इसके उलट वह सभी पर हिन्दू रीति-रिवाज थोपने की ओर ले जाती है।

उदाहरण के लिए जीवन की एक परिघटना को लें। शादी-ब्याह और तलाक जीवन की सामान्य परिघटना हैं। सभी समाजों में यह सामंती जमाने में धार्मिक जीवन से जुड़ी हुई चीज थी। शादी-ब्याह और तलाक के बारे में धारणा तथा इनके बारे में रीति-नीति सब धर्म से जुड़े हुए थे। इसीलिए वे सारे समाजों में धर्म के हिसाब से अलग-अलग थे। पूंजीवादी समाजों में जब धर्म निरपेक्षता की धारणा के तहत नागरिक संहिताएं बनीं तो शादी-ब्याह और तलाक को धर्म से अलग कर दिया गया। इस संबंध में धार्मिक अनुष्ठान व्यक्ति के निजी विश्वास का मामला बन गये। उन्हें वह सम्पन्न करता है या नहीं, वह उसका निजी मामला बन गया। पर संवैधानिक-कानूनी प्रक्रियाओं का निर्वाह अनिवार्य हो गया जो सभी नागरिकों के लिए समान थे। मसलन सभी को शादी-ब्याह का पंजीकरण कराना अनिवार्य हो गया। इसी तरह तलाक भी कानूनी कार्रवाई के जरिए ही मिल सकता था। ऐसे में निजी तौर पर व्यक्ति किन्हीं रीति-रिवाज का पालन करता रह सकता था पर कानूनी तौर पर उनका कोई मतलब नहीं था।

भारत में इसने एक अजीब सा रूप धारण किया। भारत में धर्म निरपेक्षता को धर्मों से ऊपर या धर्मों से परे लेने के बदले इसे ‘सर्व धर्म समभाव’ तक सीमित कर दिया गया। यानी नागरिक जीवन को धर्मों से परे मानने के बदले इसमें सभी धर्मों को बराबर मानने की घोषणा कर दी गयी।

शादी-ब्याह और तलाक के मामले में इसका व्यवहारिक तौर पर मतलब था कि सभी धर्मों के लोग इन मामलों में अपने-अपने धार्मिक विश्वासों और रीति-रिवाजों के हिसाब से चलते रह सकते थे और कानूनन सबको मान्यता प्राप्त थी। यदि कोई इन्हें नहीं मानना चाहता था तो उसके लिए ‘विशेष विवाह-कानून’ था। संविधान बनने से लेकर अभी तक ऐसे ही चलता रहा है और हिन्दू फासीवादी भी इसी के हिसाब से चलते रहे हैं। उनका निजी जीवन भी इसी के हिसाब से चलता रहा है। जब 1950 के दशक में हिन्दुओं के लिए कानून बनाए गये तब भी हिन्दू धर्म की मान्यताओं का पूरा ध्यान रखा गया और आज भी अदालतों में उनका हवाला दिया जाता है।

भारत में धर्म निरपेक्षता की यह विकृत धारणा हिन्दू फासीवादियों को स्वीकार थी। बस वे उसे आगे बढ़ाकर वहां ले जाना चाहते थे जहां बाकी धर्मों के अनुयाई भी हिन्दू मान्यताओं के हिसाब से चलें। मुसलमानों पर अपना निशाना साधने के लिए उन्होंने उनमें धार्मिक तौर पर मान्यता प्राप्त पुरुषों के लिए चार शादियों की छूट तथा पुरुषों द्वारा ‘तीन तलाक’ को अपना मुद्दा बनाया। आज भी ज्यादातर हिन्दू फासीवादियों के लिए ‘समान नागरिक संहिता’ का यही मतलब है।

‘समान नागरिक संहिता’ का वास्तविक मतलब नागरिक और इसीलिए सार्वजनिक जीवन का धर्म से पूर्ण अलगाव तथा धर्म को व्यक्ति के निजी जीवन तक सीमित कर दिया जाता है। हिन्दू फासीवादियों के लिए ‘समान नागरिक संहिता’ का चाहे और कोई भी अर्थ हो, पर यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता। वे धर्म को निजी जीवन तक सीमित रखने के पूर्ण विरोधी हैं। उनकी सारी राजनीति धर्म को सार्वजनिक मुद्दा बनाने पर आधारित है, चाहे वह राम मंदिर के नाम पर गोलबंदी हो या फिर आम घोषणा कि राजनीति को धर्म से निर्देशित होना चाहिए।

हिन्दू फासीवादी चतुराई दिखाते हुए कहते हैं कि जब वे धर्म की बात करते हैं तो उसका आशय पूजा-पाठ की पद्धति नहीं बल्कि जीवन पद्धति है। उनके हिसाब से ‘हिन्दू धर्म’ पूजा-पाठ की कोई पद्धति नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति है और इसके हिसाब से भारत के सारे लोग हिन्दू हैं चाहे उनकी पूजा-पाठ की पद्धति जो भी हो। संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत अक्सर यह पाठ पढ़ाते रहते हैं।

इस बारे में सबसे पहली बात तो यही है कि दुनिया के सारे ही धर्मों के बारे में यह सच है कि वे पूजा-पाठ की पद्धति के साथ जीवन पद्धति भी हैं। किसी भी अन्य धर्म के मुकाबले इस्लाम के बारे में यह बात ज्यादा सच है क्योंकि इसकी धार्मिक पुस्तक कुरान में जितनी बातें पूजा-पाठ के बारे में हैं उससे कहीं ज्यादा इहलौकिक जीवन के बारे में। निजी और सार्वजनिक जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसके बारे में कुरान में निर्देश न हों।

पूंजीवाद के पहले निजी जीवन और सार्वजनिक जीवन के बीच वह अलगाव नहीं था जो पूंजीवाद में क्रमशः पैदा हुआ। उन समाजों में निजी और सार्वजनिक घुले-मिले थे। इसीलिए शादी-ब्याह जितना निजी मामले थे उतना ही पारिवारिक और सामाजिक भी। ऐसे समाजों में धर्म एक ऐसी व्यापक और सर्वव्यापाी चीज था जिससे जीवन का कोई भी पहलू अछूता नहीं रह सकता था। धर्म एक ही साथ विश्व दृष्टि था और जीवन का नियामक भी। यह प्रकृति, समाज, व्यक्ति सभी को देखने-समझने की दृष्टि देता था तथा साथ ही निजी-सार्वजनिक जीवन को नियमित करने के लिए नियम-कानून भी। वह पारलौकिक दुनिया के लिए प्रावधान करता था तो इहलौकिक दुनिया के लिए भी। सामंती समाजों में यह सारा कुछ सबसे ज्यादा व्यवस्थित हो गया, उन समाजों में भी जहां रोमन कैथोलिक चर्च जैसा ऊपर से नीचे तक सुगठित ढांचा नहीं था।

इन समाजों में जीवन पद्धति को पूजा-पाठ की पद्धति से अलग नहीं किया जा सकता था। उदाहरण के लिए सामंती काल के हिन्दू समाज में शादी-ब्याह के अनुष्ठान पूजा-पाठ की पद्धति का हिस्सा थे जबकि वर्ण व्यवस्था जीवन पद्धति का। पर शादी-ब्याह के अनुष्ठान अलग-अलग वर्णों के लिए अलग-अलग थे। इसी तरह पारलौकिक जीवन के अन्य अनुष्ठान भी अलग-अलग वर्णों के लिए अलग-अलग थे। आज भी पूरे देश में अलग-अलग जातियों में प्रचलित जन्म-मृत्यु तथा शादी-ब्याह के अनुष्ठानों में इसे देखा जा सकता है। अभी हाल तक आम जन इन्हीं के आधार पर विभिन्न धर्मों में भेद करते थे न कि ईश्वर, मोक्ष या स्वर्ग-नरक की धारणा के आधार पर। इनकी बारीकियों ही नहीं बल्कि मोटी-मोटी बातों के बारे में भी आम लोगों को पता नहीं होता था। आम हिन्दू को नहीं पता था कि इस्लाम की कयामत की धारणा का क्या मतलब है और अक्सर वह हिन्दू पुराण कथाओं की प्रलय की घटना से इसे जोड़ लेता था।

यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि मनुस्मृति में शुरू में विस्तार से बताया गया है कि इस दुनिया का पारलौकिक दुनिया से क्या संबंध है। इसके बाद ही इहलौकिक दुनिया से संबंधित नियम-कानून प्रस्तावित किये गये हैं। यही बात ‘जीवन पद्धति’ से संबंधित सभी ग्रंथों में है। यह ‘जीवन पद्धति’ जिस वर्ण व्यवस्था पर आधारित है उसे ऋगवेद के पुरुष सुक्त में प्रक्षेपित कर दिया गया और स्वयं गीता में कृष्ण के मुंह से कहलवा दिया गया कि ‘चारों वर्णों का निर्माण मैंने किया है’।

कुल मिलाकर यह कि पूंजीवाद के पहले तक इहलोक और परलोक उस तरह अलग-अलग नहीं थे जैसे वे आज माने जाते हैं। तब जीवन पद्धति और पूजा-पाठ की पद्धति एक-दूसरे से घुले-मिले थे। इसीलिए रोमन साम्राज्य और अशोक-अकबर जैसे राजाओं ने ‘सर्व धर्म समभाव’ वाली नीति अपनाई जिससे वे अपने साम्राज्य को धार्मिक झगड़ों से बचा सके।

पर जब पूंजीवाद का विकास हुआ तो पाया गया इसमें ‘सर्व धर्म समभाव’ बहुत दूर तक नहीं चल सकता। एक तो पूंजीवाद जिस उत्तरोत्तर विकसित तकनीक की मांग करता था वह ऐसे विज्ञान पर आधारित था जो पुरानी धार्मिक दृष्टि को किनारे लगाये बिना आगे नहीं बढ़ सकता और कुछ शताब्दियों में वह किनारे लगा दी गई। दूसरे माल और मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था यह मांग करती थी व्यक्ति के बाकी सारे रिश्ते इसके अधीन हो जायें। यह ऐसे व्यक्तिवाद के विकास से ही हो सकता था जिसमें वे बहुत सारी चीजें महज निजी हो जायें जो पहले इस कदर सामाजिक थीं। इहलोक का परलोक से संबंध भी इसी में से एक था। इसके उलट कुछ ऐसे रिश्तों को सार्वजनिक बना दिया गया जो पहले निजी थे, मसलन गुरू-शिष्य संबंध।

इन सबने अंततः उस चीज में अभिव्यक्ति पाई जिसे धर्म निरपेक्षता कहा जाता है। इसका आशय है व्यक्ति के धार्मिक विश्वासों का निजी मामला बन जाना। इसके उलट सारे सार्वजनिक मामले राज्य और व्यक्ति (नागरिक) के रिश्ते के अधीन हो गये। एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति से रिश्ते व्यक्ति और राज्य के रिश्तों के अधीन हो गये। यहां तक कि एक निश्चित अर्थ में व्यक्ति का निजी जीवन भी राज्य के अधीन हो गया- व्यक्ति स्वयं अपनी जान नहीं ले सकता था यानी आत्महत्या नहीं कर सकता था।

धर्म निरपेक्षता की इस धारणा ने पूंजीवादी समाज के विकास में भारी योगदान किया। अन्य चीजों के अलावा आज विकसित पूंजीवादी देशों के विकास में इसका भी योगदान है। हालांकि उन समाजों में इस स्थिति को आसानी से हासिल नहीं किया जा सका और आज के संकटग्रस्त पूंजीवाद में कई विकसित देशों में भी सार्वजनिक जीवन में धर्म की वापसी हो रही है, खासकर इस्लाम के खिलाफ पनपते वैमनस्य के मामले में जिसका सीधा निशाना अप्रवासी मुसलमान होते हैं।

भारत में अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशी शासन को औपचारिक तौर पर धर्मों से ऊपर रखते हुए वास्तव में धर्मों का भरपूर इस्तेमाल किया। यह उनकी ‘बांटो और राज करो’ की नीति का अनिवार्य तत्व था। आजादी के बाद भारत के पूंजीपति वर्ग ने जिस सुधारवादी रास्ते पर कदम रखा वह इसकी इजाजत नहीं देता था कि यहां सही मायने में धर्म निरपेक्षता अपनाई जाये। इसीलिए यहां ‘सर्व धर्म समभाव’ का रास्ता अपनाया गया और उसे न केवल भांति-भांति से जायज ठहराया गया बल्कि वास्तविक धर्म निरपेक्षता से श्रेष्ठ भी घोषित किया गया। कहा गया कि धर्म निरपेक्षता अधार्मिक पश्चिम समाजों की धारणा है जो भारत जैसे धर्मपरायण देश के लिए उपयुक्त नहीं है। यह आसानी से झुठला दिया गया कि पश्चिमी समाज हमेशा से अधार्मिक नहीं थे, कि कभी यहां पुराने धार्मिक चर्चों का बोलबाला था, कि धर्म-सुधार आंदोलन से होकर बीसवीं सदी तक भीषण संघर्षों ने ही अधार्मिकता की इस स्थिति तक उन्हें पहुंचाया था, कि किन्हीं मामलों में यह संघर्ष अभी भी जारी था।

वास्तविक धर्म-निरपेक्षता न अपना कर ‘सर्व धर्म समभाव’ की जिस नीति को अपनाया गया उसका सहज परिणाम न केवल समाज में धार्मिक कूपमण्डूकता, जाहिली और गैर-वैज्ञानिक दृष्टिकोण का जड़ जमाये रहना था बल्कि राजनीति से लेकर अन्य सार्वजनिक जीवन में धर्म का भरपूर दखल भी। समय के साथ किन्हीं मामलों में यह दखल घटने के साथ बढ़ता गया तथा उसका भरपूर फायदा हिन्दू फासीवादियों ने उठाया। आज उन्होंने भारत की समूची राजनीति को हिन्दुओं की धार्मिक लामबंदी के इर्द-गिर्द इस तरह खड़ा कर दिया है कि बाकियों को भी उन्हीं की धुन पर नाचना पड़ रहा है। आज एक खास अर्थ में हिन्दू फासीवादी वही फसल काट रहे हैं जो आजादी के बाद कांग्रेसियों ने बोई थी। नेहरू को दिन-रात कोसने वाले मोदी उन्हीं की अर्द्ध-जारज संतान हैं।

समान नागरिक संहिता सच्चे अर्थों में एक धर्म निरपेक्ष समाज की मांग करती है। यह उन्हीं समाजों में संभव है जहां सख्ती से धर्म को निजी मामला बनाया जाये तथा सार्वजनिक जीवन को धर्म से अलग कर दिया जाये। इन्हीं अर्थों में यह प्रगतिशील कदम होगा। इसके उलट हिन्दू फासीवादी जिस ‘समान नागरिक संहिता’ की मांग कर रहे हैं वह बाकी अन्य धर्मों के अनुयाईयों को हिन्दू धर्म की मान्यताओं के हिसाब से चलने की एक फासीवादी मांग है जिसका उसकी हर अभिव्यक्ति में विरोध किया जाना चाहिए।

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है