न्यायालय का बस्तियां उजाड़ने का आदेश: जनता संघर्षरत

हल्द्वानी/ उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने 20 दिसम्बर 2022 को रवि शंकर जोशी की याचिका पर फैसला सुना दिया। यह फैसला हल्द्वानी, जिला नैनीताल की गरीबों-मेहनतकशों की बस्तियों गफूर बस्ती, ढोलक बस्ती, इन्दिरानगर, चिराग अली शाह, आदि को उजाड़ने का है। फैसला आने के बाद से शासन-प्रशासन लोगों को उजाड़ने के लिए पोकलैंड, जेसीबी मशीनों से लेकर पुलिस, अर्द्धसैनिक बल, आदि के इंतजाम में लग गया है। राज्य की भाजपा सरकार, केन्द्र सरकार इन इंतजामों में पुरजोर तेजी से मदद कर रही है। इस संदर्भ में हजारों परिवारों के पुनर्वास की व्यवस्था वाली याचिका पर उच्च न्यायालय ने सुनवाई टाल दी है, शासन-प्रशासन मौन है।
    

इन बस्तियों में अधिकांश मुस्लिम अल्पसंख्यक रहते हैं। कुछ नेपाली मूल के मजदूर परिवार और सैकड़ों गरीब हिन्दू परिवार भी यहां रहते हैं। ये गरीब बस्तियां गौला नदी के पश्चिम में रेलवे पटरियों के समानान्तर रेलवे स्टेशन के पास तक हैं। इनके बाद के मौहल्लों में सरकारी कर्मचारियों से लेकर विभिन्न किस्म के काम करने वाली मिली-जुली आबादी रहती है। हल्द्वानी शहर में मकान, सड़क, परिवहन, व्यापार आदि-आदि कोई भी काम यहां के मेहनतकशों की भागीदारी के बिना नहीं होते हैं।
    

अदालती कार्यवाही पर बात करें तो सबसे पहले साल 2007 में केवल ढोलक बस्ती, गफूर बस्ती को उजाड़े जाने का आदेश उच्च न्यायालय से हुआ था। इस दौरान लोगों को जिलाधिकारी द्वारा गौला नदी के पूरब में सरकारी वनभूमि में जाने का आदेश दे दिया गया। रेलवे ने अपनी सीमा पर दीवार बना दी। पर वनाधिकारी द्वारा सरकारी भूमि पर कब्जा करने का आरोप लगा वहां से लोगों को भगा दिया गया। ऐसे में लोग पुनः रेलवे की दीवार के बाहर अपनी झुग्गी-झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। साल 2011 से तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के समय से इन बस्तियों को पुनर्वासित करने की प्रक्रिया को लेकर चर्चा होती रही। कभी राजीव आवास योजना तो कभी पात्र लोगों का चिह्नीकरण करने तक प्रक्रिया की जाती पर बिना किसी नतीजे के रुक जाती। इस दौरान प्रदेश में क्रमशः भाजपा-कांग्रेस की सरकारें आती-जाती रहीं।
    

साल 2013 में रवि शंकर जोशी ने उच्च न्यायालय में गौला नदी पर बने पुल के बार-बार टूटकर गिरने के कारण और उसके दोषियों पर कार्यवाही करने की अपील दाखिल की। यह पुल हल्द्वानी शहर को गौलापार से जोड़ता है जिससे सितारगंज, खटीमा आदि का रास्ता नजदीक पड़ता है। पुल टूटने के मामले में गौला नदी के प्रवाह के प्रभाव, खराब इंजीनियरिंग और भ्रष्टाचार आदि की जांच होनी चाहिए थी। लेकिन जांच की जगह उच्च न्यायालय के आदेश पर एक जांच टीम बनी जिसने कहा कि कुछ लोग अपनी घोड़ा गाड़ी से नदी में अवैध खनन करते हैं जिससे पुल कमजोर होकर बार-बार टूटा। ये अवैध खनन करने वाले लोग रेलवे के किनारे इन बस्तियों में अतिक्रमण करके रहते हैं। न्याय का प्रहसन यह हुआ कि न्यायालय इस आधार पर बस्तियों की भूमि का मालिकाना ढूंढने निकल पड़ता है और पुल टूटने के कारणों की जांच, अपराधी और अपराधियों को उचित सजा सब फैसले से गायब हो जाते हैं। मामला बस्ती के वैध या अतिक्रमण कर बने होने की तरफ चल पड़ा। 
    

2016 में रेलवे ने शपथ पत्र देकर उच्च न्यायालय में दावा किया कि उसकी 29 एकड़ भूमि पर अतिक्रमण हुआ है। अपने दावे को पक्का करने के लिए रेलवे ने 1959 का रेलवे का नक्शा पेश किया। यह नक्शा 1959 में रेलवे का भूमि प्लान था। रेलवे के पास भूमि अर्जन/अधिग्रहण का कोई सरकारी राजपत्र नहीं था। जो कि भूमि पर उसके मालिकाने का उचित कानूनी दस्तावेज होता। लेकिन इन नक्शों और राजस्व विभाग से मिली कुछ खतौनियांे के आधार पर रेलवे का स्वामित्व मान लिया गया। जबकि राजस्व विभाग की खतौनियों में भूमि का प्रकार खेवट (स्थानान्तरण प्रक्रिया के अधीन) चिन्हित है। यानी जमीन रेलवे को स्थानान्तरित हुयी नहीं थी, प्रक्रिया में ही है, जो अभी तक पूरी नहीं हुयी।
    

अब उच्च न्यायालय ने आदेश दे दिया कि 29 एकड़ भूमि से अतिक्रमण को हटाया जाए। तत्कालीन उत्तराखण्ड की कांग्रेस सरकार ने उच्च न्यायालय में भूमि के नजूल में होने और इस नजूल भूमि के राज्य सरकार की सम्पत्ति होने की बात की जिस पर उच्च न्यायालय में सुनवाई नहीं हुयी। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय में इसे चुनौती दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 में उच्च न्यायालय को दूसरे पक्ष (बस्तीवासी) को भी सुनने को निर्देशित किया। उच्च न्यायालय ने मामले को खुद सुनने के बजाय रेलवे ट्रिब्यूनल, इज्जतनगर को मामले में बस्तीवासियों के पक्ष को सुनने को कहा।
    

रेलवे ट्रिब्यूनल में लोग उपस्थित हुए, हाजिरी लगाई, कागज जमा किये पर कभी कोई सुनवाई नहीं हुयी। फिर अखबारों के माध्यम से लोगों को पता चला कि रेलवे ने उनके दावे खारिज कर दिये हैं। लोगों को रेलवे के नोटिस प्राप्त होने लगे। इनमें 31.87 हेक्टेयर जमीन यानी लगभग 78 एकड़ जमीन रेलवे की होने का दावा किया गया। जबकि पहले रेलवे 29 एकड़ भूमि पर ही अपना दावा करता था। रेलवे ट्रिब्यूनल के फैसले के खिलाफ लोग जिला अदालत गये। जहां ये वाद जारी है।
    

उधर उच्च न्यायालय में रवि शंकर जोशी ने मार्च 2022 में पुनः याचिका लगायी। इस याचिका में रेलवे भूमि से अतिक्रमण हटाने की बात की गयी। उच्च न्यायालय ने इस याचिका को स्वीकार कर लिया। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर हो रही जिला न्यायालय की प्रक्रिया को नजरअंदाज कर दिया। इस दौरान बस्तीवासियों से उच्च न्यायालय में वाद दाखिल करने का कहा गया। इस प्रकार उच्च न्यायालय ने अब खुद दूसरे पक्ष को सुनना शुरू कर दिया। इस दौरान लोगों ने 1937, 1940 के समय के पट्टे (लीज) के कागज दिखाये, केन्द्र सरकार द्वारा नीलामी में जमीन खरीदने के कागज दिखाये, जमीन रेलवे की नहीं बल्कि नजूल की होने के तर्क व तथ्य पेश किये। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले मंे इन सभी दस्तावेजों को खारिज कर दिया। पट्टे की समयावधि खत्म होने, नीलामी में खरीद के कागजों को पूर्ण भुगतान का दस्तावेज न होने और नजूल भूमि पर सरकार की केवल संरक्षक भूमिका आदि के तर्क फैसले में दिये गये। रेलवे से भूमि मालिकाने के दस्तावेज मांगे बिना जमीन रेलवे की सम्पत्ति घोषित कर दी गयी। हजारों परिवारों को उजाड़ने का फैसला दे दिया। फैसले में रेलवे के 29 एकड़, 78 एकड़ का जिक्र भी नहीं किया गया है। जिससे रेलवे या अन्य किसी सरकारी योजना के लिए आगे भी असीमित जमीन लेने का रास्ता खोल दिया गया। प्रदेश भर की नजूल भूमि पर बसने वालों को यह फैसला प्रभावित करता है। 
    

फैसले का राजनीतिक-आर्थिक पहलू महत्वपूर्ण है। हल्द्वानी कुमाऊं का प्रवेश द्वार कहा जाता है। यहां गौलापार में एक अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम है, उच्च न्यायालय उत्तराखण्ड को नैनीताल से हल्द्वानी शिफ्ट करने का फैसला हुआ है। हल्द्वानी कुमाऊं भर का शिक्षा, स्वास्थ्य के मामले में केन्द्र (हब) है। हल्द्वानी सहित गौलापार में भी जमीनें लगातार महंगी हो रही हैं। ऐसे में हल्द्वानी रेलवे स्टेशन के आस-पास 29 एकड़ या 78 एकड़ भूमि का व्यवसायिक महत्व बहुत अधिक है। रेलवे अपनी कोई परियोजना न होने की बात करता है। स्पष्ट है कि यह जमीन पूंजीपतियों को कई-कई तरह से निवेश करने को लालायित करती है। इसको गरीबों-मेहनतकशों की कीमत पर करने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है। 
    

राज्य की भाजपा सरकार देश के आम हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के मुद्दों के तौर पर इसे ले रही है। सरकार ने 2016 में मलिन बस्ती पुनर्वास नीति बनाई जिसमें राज्य भर की 582 मलिन बस्तियां चिन्हित हैं। रेलवे के पास की पांच मलिन बस्तियां भी इसमें थी जिन्हें सरकार ने मलिन बस्तियों की श्रेणी से हटा दिया है। राज्य सरकार 2018 में रिस्पना नदी पर बसी मलिन बस्तियों को उच्च न्यायालय के आदेश से बचाने के लिए अध्यादेश लेकर आयी। यह अध्यादेश 2021 में समाप्त हो रहा था तो सरकार ने इसे पुनः 2024 तक बढ़ा दिया है। उच्च न्यायालय में राज्य सरकार ने नजूल भूमि पर अपना दावा करते हुए कोई पैरवी नहीं की। गफूर बस्ती, ढोलक बस्ती के पुनर्वास को लेकर 2011 से लटकी प्रक्रिया पर कोई कार्यवाही नहीं की। ऐसे तमाम तथ्य हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि बस्ती तोड़ने का यह फैसला ‘‘एक राजनीतिक फैसला है, जिसे न्यायालय ने सुनाया है’’। यह राजनीति हिन्दू फासीवाद की राजनीति है। जहां न्याय, मानव अधिकार तो दूर की बात मानवीय भावना, दया, करुणा जैसे विचार बेमानी हैं। यहां क्रोध, घृणा, दंभ, अहंकार की भावनायें प्रधान हैं। यहां मनुष्यों के बीच न्याय के सम्बन्ध नहीं बल्कि ‘‘मत्स्य न्याय’’ के सिद्धान्त हैं। बड़ी मछली छोटी को खाती है। हम अधिक हैं, हम कम लोगों को दबायेंगे, यही फासीवादी न्याय सिद्धान्त है। जो सारे पर्दों के पीछे वास्तव में बड़ी पूंजी की, अम्बानी-अडाणी जैसों की सेवा करता है।

जनता की भूमिका- 20 दिसम्बर के आदेश से पहले जनता न्यायिक प्रक्रिया में ही लगी रही जिसमें स्थानीय नेता आदि सक्रिय रहे। स्थानीय विधायक इसमें कानूनी सहयोग करते रहे। जनता इस उम्मीद में थी कि न्यायालय में न्याय होगा। 20 दिसम्बर के आदेश के बाद तुरंत लोग सर्वोच्च न्यायालय गये हैं। उच्च न्यायालय ने सात दिन में मुनादी कर अगले सात दिन में लगभग 50 हजार आबादी को हटाने का आदेश दिया है। इतने कम समय में सर्वोच्च न्यायालय से राहत न मिलने का भी लोगों में खौफ है। अतः लगातार बस्ती में स्थानीय लोगों, मौलवियों-इमामों के साथ स्थानीय नेताओं की बैठकें हुयीं। क्षेत्र के जनपक्षधर संगठन क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र, परिवर्तनकामी छात्र संगठन भी बस्ती बचाओ संघर्ष समिति के जरिये इस संघर्ष में आंदोलन और न्यायिक प्रक्रिया दोनों में लगे रहे। 26 दिसम्बर की रात में मौलवियों-इमामों, बस्ती वासियों, स्थानीय नेताओं, विधायक की मौजूदगी में एक बैठक में 28 दिसम्बर को मानव श्रृंखला बनाकर प्रशासन के सीमांकन करने के फैसले का विरोध करने का फैसला लिया गया। अल-नमरा बैंक्वेट हॉल में आयोजित इस बैठक पर प्रशासन ने मुकदमा दर्ज कर जुर्माना लगा दिया।
    

27 दिसम्बर को ‘बनभूलपुरा बस्ती को उजाड़े जाने के विरोध में उत्तराखण्ड के विभिन्न सामाजिक संगठनों की आपातकालीन बैठक’ बुलायी गयी। बस्ती बचाओ संघर्ष समिति की पहल पर यह बैठक हुयी। इस बैठक में क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र, समाजवादी लोक मंच, परिवर्तनकामी छात्र संगठन, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी, इंकलाबी मजदूर केन्द्र, भाकपा (माले), समाजवादी पार्टी, देवभूमि उत्तराखण्ड सफाई कर्मचारी संघ, फुटकर व्यापारी जन कल्याण समिति, प्रगतिशील युवा संगठन, सर्व श्रमिक निर्माण कर्मकार संगठन, जन सेवा एकता कमेटी, क्रांतिकार किसान मंच, भीम आर्मी के अलावा वकील, स्वतंत्र पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता व बनभूलपुरा वासी शामिल रहे। बैठक में निम्न फैसले लिये गये:- 

1. सभी संगठन बनभूलपुरा बस्तीवासियों के समर्थन में अपनी-अपनी जगह पर बैठक और प्रदर्शन, अपीलें करेंगे।
2. 28 दिसम्बर को मानव श्रृंखला बनाने व बाजार बंद के कार्यक्रम में भागीदारी की जाएगी। 
3. सोशल मीडिया में इसको लेकर प्रचार किया जाए। व्हाट्सएप ग्रुप बनाया जाएगा। 
4. बस्तीवासियों के साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए बड़ा कार्यक्रम, सभा की जाए जिसमें देश-प्रदेश के सामाजिक संगठनों को शामिल किया जाएगा।
5. 28 दिसम्बर को जिलाधिकारी नैनीताल के यहां घरों को तोड़ने से पहले पुनर्वास करने के लिए ज्ञापन दिया जाएगा।
6. कुमाऊं कमिश्नर के पास अपनी मांगों को लेकर ज्ञापन दिया जाएगा। 
7. छात्रों-बच्चों के शिक्षा के अधिकार की मांग उठाते हुए शहर में जुलूस निकाला जायेगा। 
8. संगठनों का एक प्रतिनिधि मण्डल जनप्रतिनिधियों (सांसद, विधायक, मुख्यमंत्री, आदि) से मिलेगा।
9. मुख्य न्यायाधीश के नाम बच्चों के द्वारा शिक्षा के अधिकार के सवाल पर खुला पत्र भेजा जायेगा।
    

ये सभी निर्णय बस्तीवासियों के साथ बैठक कर सर्वसहमति से ही लागू किये जायेंगे।
    

28 दिसम्बर को सुबह से ही लोग घरों से सड़कों पर निकल आये। प्रशासन सीमांकन करने नहीं पहुंचा तो सड़क पर ही धरना लगाकर लोग बैठ गये। खबर लिखे जाने तक जहां जनता अभी कानूनी व सड़कों के संघर्ष की तैयारी कर रही है वहीं प्रशासन ने 5 जनवरी से बस्ती उजाड़ने की घोषणा कर दी है। 
         -हल्द्वानी संवाददाता

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