पढ़े-लिखे लोगों का जनतंत्र

फासीवादी सोच के कई रंग-रूप हैं। एक से सारे लोग बखूबी वाकिफ हैं यानी हिन्दू फासीवाद से। लेकिन इसके दूसरे रूपों से वाकिफ होना भी जरूरी है, खासकर आज के संकटपूर्ण समय में। ‘पढ़े-लिखे लोगों का जनतंत्र’ इनमें से एक है। यह आम आदमी पार्टी की विशेषता है या कहा जा सकता है कि उसकी चारित्रिक विशेषता है।

आजकल आम आदमी पार्टी ने मोदी पर हमला बोलते हुए यह अभियान छेड़ रखा है कि देश का प्रधानमंत्री पढ़ा-लिखा होना चाहिए (अरविन्द केजरीवाल जैसा)। मोदी की डिग्री पर संदेह होने के चलते यह अभियान एक तीर से दो निशाने साधता है। यह मोदी को अनपढ़ और इसीलिए देश का प्रधानमंत्री होने के अयोग्य घोषित करता है तो केजरीवाल को योग्य।

यह अभियान पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग के अहं को तुष्ट करता है और देश की कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ जनता को हिकारत से देखता है। इसी में इसका खास फासीवादी चरित्र निहित है।

यह ध्यान रखना होगा कि मोदी के खिलाफ आम आदमी पार्टी का वर्तमान अभियान भले ही अवसरवादी हो पर इसकी जड़ें अतीत में हैं। आम आदमी पार्टी अपने जन्म से या उसके पहले से ही इस सोच की रही है।

जब आम आदमी पार्टी के वर्तमान नेताओं ने अपना भ्रष्टाचार विरोधी ‘अन्ना आंदोलन’ छेड़ा था तभी उन्होंने देश की कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ आम जनता को निशाना बनाया था। उनका उस समय मूल तर्क यह था कि देश की ‘अनपढ़-जाहिल’ जनता चंद रुपयों या सुविधाओं की खातिर अपना वोट शातिर और भ्रष्ट नेताओं को बेच देती है। ये धूर्त और भ्रष्ट नेता देश के विकास पर ध्यान देने के बदले अपनी तिजोरियां भरने में लगे होते हैं। इसीलिए देश का बुरा हाल है। ऐसे में इन भ्रष्ट नेताओं पर लगाम लगाने के लिए इनके ऊपर पढ़े-लिखे ईमानदार लोकपाल बैठाये जाने चाहिए।

इस तर्क पद्धति के पीछे निहित सोच फासीवादी है। यह आम जनता को जनतंत्र में मिले अधिकार के खिलाफ है। साथ ही यह आम जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के ऊपर किसी गैर-चुने हुए व्यक्ति को बैठाने की सोच है। इस तरह यह जनतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है जिसमें जनता सर्वोच्च होती है और उसके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि अनुल्लंघनीय। केवल संवैधानिक प्रावधान ही इनकी सीमा बनते हैं।

ऐसा नहीं है कि यह सोच आज की भारत की आम जनता की कम पढ़ी-लिखी स्थिति से पैदा होती है। पूंजीवाद में हमेशा ही ऐसा होगा कि आम जनता मध्यम वर्ग के मुकाबले कम पढ़ी-लिखी होगी। आज विकसित पूंजीवादी देशों के मामले में इसे देखा जा सकता है जहां अस्सी प्रतिशत से ज्यादा लोगों के पास स्नातक की डिग्री नहीं है।

यहां यह याद रखना होगा कि इतिहास में एक लम्बे समय तक जनतंत्र में आम जन के प्रवेश के खिलाफ (आम जनता को चुनने और चुने जाने के अधिकार यानी सार्विक मताधिकार के खिलाफ) उसके अनपढ़-जाहिल होने का तर्क ही दिया जाता रहा था। कहा जाता था कि अनपढ़-जाहिल जनता राजनीतिक मुद्दों को समझ नहीं पायेगी और उसे बहकाने वाले गलत लोगों को चुन देगी। यह भी याद रखना होगा कि पढ़ने-लिखने का हमेशा ही संबंध व्यक्ति की आर्थिक-सामाजिक हैसियत (वर्ग) से रहा है। ऐसे में पढ़ने-लिखने का मापदंड स्वतः ही विशाल मजदूर-मेहनतकश आबादी को जनतंत्र से बाहर कर देता है। एक लम्बे समय तक यही होता भी रहा और काफी संघर्षों के बाद ही धीमे-धीमे आम जन जनतंत्र में शामिल हो सके।

पर जनतंत्र में आम जन के प्रवेश को पूंजीपति वर्ग ने मजबूरी में ही स्वीकार किया। चूंकि पूंजीवादी जनतंत्र भी पूंजीपति वर्ग का ही शासन होता है, ऐसे में इसे सुनिश्चित करने के लिए पूंजीपति वर्ग ने जनतंत्र में आम जन के प्रवेश के बाद इसे महज औपचारिक बना दिया और भ्रष्ट कर दिया। अब शासन के वास्तविक फैसले पर्दे के पीछे होने लगे और पूंजीवादी नेता आम जन का वोट हासिल करने और पूंजीपति वर्ग की सेवा करने के लिए झूठ-फरेब पर उतर आये। पूंजीवादी जनतंत्र में आज भयंकर स्तर पर व्याप्त व्यक्तिगत और राजनीतिक भ्रष्टाचार के पीछे यही मूल चीज है। पूंजीवादी जनतंत्र को झूठ-फरेब वाला भ्रष्ट तंत्र होना ही है।

मध्यम वर्ग इसे नहीं समझता। वह पूंजीवादी जनतंत्र के वास्तविक चरित्र को नहीं समझता। वह पूंजीपति वर्ग द्वारा फैलाये गये इस झूठ के प्रभाव में आ जाता है कि जनतंत्र जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन होता है। जब वह देखता है कि वास्तव में तो जनतंत्र ऐसा नहीं है, तब वह इसके लिए भ्रष्ट नेताओं और उनको चुनने वाली कम पढ़ी-लिखी आम जनता को जिम्मेदार मान लेता है। ऐसा इसलिए कि वह अपने पढ़े-लिखे होने पर बहुत गुमान करता है। नौकरी-पेशा मध्यम वर्ग का तो अस्तित्व ही उसकी पढ़ाई-लिखाई पर निर्भर करता है। ऐसे में पढ़े-लिखे होना उसके लिए काबिलियत का सबसे बड़ा पैमाना बन जाता है। और जब वह देखता है कि उससे कम पढ़े-लिखे नेता उस पर शासन कर रहे हैं और अनपढ़-जाहिल जनता उनको शासन में बैठा रही है तो उसके गुस्से का ठिकाना नहीं रहता। फासीवादी उसके इस गुस्से का इस्तेमाल करते हैं और उसे जनतंत्र के खिलाफ खड़ा कर देते हैं। उसे किसी फासीवादी तानाशाह के पीछे गोलबंद कर देते हैं।

आम आदमी पार्टी वाले आज यही कर रहे हैं। वैसे ये आज इसमें अकेले नहीं हैं। पिछले सालों में हरियाणा और राजस्थान में पंचायत स्तर पर उम्मीदवारी के लिए जो शैक्षिक योग्यता का प्रावधान किया गया वह इसी सोच के तहत है। यह गौरतलब है कि इस जनतंत्र विरोधी कदम को सर्वोच्च न्यायालय ने सही ठहराया।

हिन्दू फासीवादियों में भी यह सोच नहीं हैं, यह नहीं कहा जा सकता। मोदी को यदि डिग्रीधारी होने का दावा करना पड़ा है तो यूं ही नहीं है। नौकरी पेशा वाले मध्यम वर्ग संघी इसी सोच के हैं। बस उनकी बिडंबना यह है कि उन्हें ऐसे व्यक्ति की भक्ति करनी पड़ रही है जिसके डिग्रीधारी होने पर आज भारी संदेह है। भयानक विसंगतियों से भरे भारतीय समाज में हिन्दू फासीवादियों को इसका शिकार होना ही पड़ेगा।

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