जनतंत्र की जननी

अंग्रेजी में एक कहावत है- ‘आइरनी डाइड ए थाउजैण्ड डेथ’। हिन्दी में शाब्दिक अनुवाद होगा- बिडंबना हजार बार मर गई यानी बात बिडंबना की सारी हदों को पार कर गई। स्वयं बिडंबना शब्द विचित्र या व्यंग्यपूर्ण स्थितियों के लिए इस्तेमाल होता है। कोविड महामारी से बचकर यदि कोई जुकाम से मर जाये तो इसे बिडंबना कहेंगे। इसी तरह यदि कोई खाना बनाने की विधियों पर भारी-भरकम भाषण देने के बाद खिचड़ी भी न पका पाये तो यह भी बिडंबना होगी।

भारत के हिन्दू फासीवादी इस समय अपने संघी प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारत को ‘जनतंत्र की जननी’ (मदर आव डेमोक्रेसी) साबित करने में लगे हुए हैं। अभी इसके पहले तक भारत के शासक अपने जनतंत्र को ‘दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र’ कहते थे। संघी फासीवादी भी यही करते थे। लेकिन जैसे-जैसे हिन्दू फासीवादी हिन्दू राष्ट्र की फासीवादी परियोजना की सफलता की ओर बढ़ रहे हैं उन्हें ‘दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र’ का लबादा अपनी फासीवादी करतूतों को छिपाने के लिए छोटा लग रहा है। अब उन्होंने और बड़ा तथा रंगीन लबादा- ‘जनतंत्र की जननी’ सिलने का फैसला कर लिया है। इसमें वे जोर-शोर से लग गये हैं। सारे सरकारी विद्वान और संघी कलमघसीट इस पर टनों कागज और स्याही खर्च कर रहे हैं।

यह घोर बिडंबना ही है कि फासीवादी इस कदर आज अपने को जनतंत्र का झंडाबरदार साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। इनके पूर्वजों यानी हिटलर और मुसोलिनी ने इसकी जरा भी चिंता नहीं की थी। उन्होंने हमेशा ही जनतंत्र को हिकारत से देखा था और नकारा था। यह दुनिया भर में बढ़ी हुई जनतांत्रिक चेतना का परिणाम ही है कि फासीवादी भी जनतंत्र की कसम खा रहे हैं और वह भी जनतंत्र पर हर तरह का हमला करते हुए। स्थिति इतनी विकट है कि सहमा-दुबका सर्वोच्च न्यायालय भी, सरकार को दबी जुबान से इस हमले की याद दिला रहा है।

जब हिन्दू फासीवादी यह कहते हैं कि भारत जनतंत्र की जननी है तो इसका आशय यह है कि भारत में प्राचीन यूनान और रोम से पहले भी जनतंत्र था। कभी प्राचीन यूनान और रोम में जनतंत्र था इस पर विवाद नहीं है। यह अलग बात है कि यह आज के पूंजीवादी जनतंत्र की तरह का नहीं था और साथ ही यह गुलामी व्यवस्था पर आधारित था। लेकिन संघ के हिन्दू फासीवादी चाहते हैं अब सारी दुनिया माने कि भारत में इसके पहले से ही जनतंत्र था।

अब यह बात जगजाहिर है कि भारत में गौतम बुद्ध के पहले से ही वर्ण व्यवस्था कायम रही है। उस समय के धर्मशास्त्रों का धर्म इसी वर्ण व्यवस्था पर आधारित था। वास्तव में धर्म का मतलब ही था हर वर्ण के लिए तय नियम के हिसाब से जीवन जीना। ईश्वर की प्रार्थना या पूजा-पाठ ‘मोक्ष’ का हिस्सा थे, ‘धर्म’ का नहीं।

इन धर्मशास्त्रों में और बाद में स्मृतियों में विभिन्न वर्णों के लिए जो नियम-कानून थे और इन पर जो राज व्यवस्था आधारित थी। (राजा का घोषित काम ही था वर्ण आधारित ‘धर्म’ की रक्षा) उसे देखते हुए कोई नहीं कह सकता कि इनमें कुछ भी जनतंत्र किस्म का था। जनतंत्र का मूलमंत्र ही है हर इंसान को बराबर और स्वतंत्र मानना। वर्ण व्यवस्था इसके ठीक विपरीत विभिन्न वर्णों के इंसानों को गैर-बराबर मानती है। इसी तरह वह शूद्रों (और अन्त्यजों यानी अछूतों) को बाकी तीन वर्णों के अधीन मानती है। जन्मजात और गैर-बराबर लोगों को लेकर कोई जनतंत्र नहीं हो सकता। ऐसे में कोई जनतंत्र किसी एक वर्ण (क्षत्रिय) या तीन वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) का तो हो सकता था पर सबका नहीं। गौतम बुद्ध के जमाने के गण (वज्जी, मल्ल, इत्यादि) क्षत्रियों के अभिजात जनतंत्र थे।

ऐसे में हिन्दू फासीवादियों के लिए जरूरी हो जाता है कि वे जनतंत्र की कोई नई परिभाषा गढ़ें। और संघी प्रधानमंत्री ने अपने भाषणों में इसका प्रयास भी किया है। लेकिन जनतंत्र की कोई भी परिभाषा यदि सभी लोगों की बराबरी और आजादी को स्वीकार नहीं करती तो उसे जनतंत्र नहीं कहा जा सकता। लोगों के बुनियादी नागरिक अधिकार छीनकर उन्हें ‘रेवडी बांटना’ जनतंत्र नहीं कहा जा सकता।

संघी फासीवादी भारत के ‘जनतंत्र की जननी’ होने के प्रमाण के तौर पर वैदिक काल की सभा-समिति का हवाला देते हैं। यह हवाला ठीक है। पर यह केवल इसी बात का द्योतक है कि वैदिक कालीन लोग कबीलाई थे और दुनिया के सारे ही हिस्सों में कबीलाई लोग सहज जनतांत्रिक व्यवस्था में जीते थे। कबीलाई समाजों में न तो राजा थे, न प्रजा। न शोषक वर्ग थे, न शासित। ज्यादा से ज्यादा सरदार होते थे जो चुने जाते थे। कबीले के लिए सारे महत्वपूर्ण फैसले सारे वयस्क लोग मिलकर लेते थे। इसीलिए कबीलाई समाजों को ‘आदिम साम्यवाद’ भी कहा जाता है।

आदिम साम्यवाद केवल भारत की या वैदिक काल की विशेषता नहीं थी। इसीलिए इस आधार पर भारत को ‘जनतंत्र की जननी’ नहीं कहा जा सकता। ऐसा कहने के लिए यदि हिन्दू फासीवादी फर्जी इतिहास गढ़ रहे हैं तो यह उनके काम चरित्र का हिस्सा है।

जैसा कि पहले कहा गया है कि यह घोर बिडंबना ही है कि संघ के हिन्दू फासीवादी स्वयं को इस तरह जनतंत्र का झंडाबरदार दिखाएं। यह आज समाज में मौजूद जनतांत्रिक भावना की मजबूती को दिखाता है जिसे संघी हर तरह से खत्म करने में लगे हुए हैं। भारत को ‘जनतंत्र की जननी’ घोषित करना भी इसी हमले का हिस्सा है। यदि जनतंत्र और गैर-जनतंत्र (वर्ण व्यवस्था) में कोई फर्क न रह जाये तो फासीवादियों के लिए इससे अच्छी बात क्या होगी!

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है