सैनिक तख्तापलट के बाद नाइजर - साम्राज्यवादियों के बीच टकराव का एक क्षेत्र

26 जुलाई के सैनिक तख्तापटल के बाद नाइजर में कई तरह ही ताकतें सक्रिय हो गयी हैं। एक तरफ, अमरीकी साम्राज्यवादी, फ्रांस और यूरोपीय संघ है। ये साम्राज्यवादी ताकतें इकोवास (पश्चिमी अफ्रीकी देशों के आर्थिक संघ- Economic Community of West African States) के जरिये पुरानी सत्ता की बहाली चाहती हैं। दूसरी तरफ रूसी साम्राज्यवादी हैं जो किसी भी तरह के सैनिक समाधान के विरुद्ध हैं। रूसी साम्राज्यवादियों का किसी न किसी रूप में सैनिक सत्ता को समर्थन प्राप्त है और माली व बुरकीना फासो की सैनिक सत्तायें नाइजर के सैनिक शासन का समर्थन कर रही हैं। बुरकीना फासो और माली के सैनिक शासकों ने यह घोषणा कर दी है कि नाइजर पर किसी भी सैनिक हमले को वे अपने ऊपर हमला समझेंगे। इकोवास ने सैनिक शासकों को सत्ता छोड़ने और पुराने शासक को सत्ता सौंपने के लिए 6 अगस्त तक का समय दिया था और यह घोषणा की थी कि 6 अगस्त की समय सीमा समाप्त हो जाने के बाद वे सैन्य हमला कर सकते हैं। 6 अगस्त की समय सीमा समाप्त हो जाने के बाद इकोवास ने 10 अगस्त को यह घोषणा की कि वे सेनाओं को हमला करने के लिए तैयार रहने का आदेश दे चुके हैं। इसके अलावा अफ्रीकी संघ ने भी पुराने शासक की बहाली करने के लिए 15 दिन की समय सीमा नाइजर के सैनिक शासकों को दी थी। 
    
इकोवास की स्थापना 1975 में हुई थी। इसके जरिये यूरोप और अमरीका के साम्राज्यवादी इन देशों के संसाधनों पर अपना नियंत्रण करते रहे हैं। इसके सदस्य देश बेनिन, बुरकीना फासो, काबो बेर्डे, आइवरी कोस्ट, गाम्बिया, घाना, गुयाना, गिना बिसाऊ, लाइबेरिया, माली, नाइजर, नाइजीरिया, सेनेगल, सियेरा लियोन और टोगो हैं। इकोवास के शासकों पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों विशेष तौर पर फ्रांस और यूरोपीय संघ का प्रभाव रहा है। पश्चिमी अफ्रीका के साहेल क्षेत्र के देश फ्रांसीसी उपनिवेश रहे हैं। इन देशों की मजदूर-मेहनतकश आबादी फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों के उत्पीड़न और शोषण का शिकार रही है। इस समय भी इन देशों की मुद्रायें फ्रांसीसी मुद्रा से बंधी हुई हैं। इन देशों को अपने मुद्रा भण्डार का 50 प्रतिशत फ्रांस के केन्द्रीय बैंक में जमा करना होता है। 
    
नाइजर के सैनिक शासक अब्दौराहमाने तियानी की सत्ता के विरुद्ध इकोवास, फ्रांस और अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ यूरोपीय संघ ने प्रतिबंध लगा दिये हैं। अमरीकी राष्ट्रपति बाइडेन ने सैनिक तख्तापलट के बाद नाइजर को आर्थिक सहायता रोकने की धमकी दी। इस धमकी का जवाब देते हुए नाइजर की सैनिक सत्ता ने कहा कि अमरीकी अपनी सहायता धनराशि अपने पास रखें और अपने देश के लाखों-लाख बेघर लोगों को दे दें। 
    
सैनिक शासकों ने फ्रांस के विरुद्ध नफरत का इस्तेमाल करते हुए अवाम को गोलबंद करके प्रदर्शन आयोजित किये। इन प्रदर्शनों में लोगों ने फ्रांस मुर्दाबाद! इकोवास मुर्दाबाद और यूरोपीय संघ मुर्दाबाद! के नारे लगाये। इसके बाद अपने देश के ऊपर से फ्रांसीसी हवाई जहाजों की उड़ानें रोक दीं। 
    
नाइजर में फ्रांस की 1000 से ऊपर सेना के जवान तैनात हैं। सैनिक शासक तियानी ने उन्हें फ्रांस से बाहर जाने का आदेश देने की घोषणा की है। इसी तरह अमरीकी साम्राज्यवादी नाइजर में एक हवाई अड्डे का संचालन करते हैं। इसका मालिकाना नाइजर की सेना के पास है लेकिन इसे अमरीका के लिए बनाया गया है। अफ्रीकाम के 1100 अमरीकी सैनिक वहां पर तैनात हैं। वे नाइजर के सैनिकों के प्रशिक्षण के अलावा वहां अपने सैनिक मिशन को पूरा करने के लिए हैं। 
    
नाइजर में पश्चिमी साम्राज्यवादियों विशेष तौर पर फ्रांस का स्वार्थ वहां के संसाधनों पर नियंत्रण करना है। विश्व आणविक एसोसियेशन के अनुसार, नाइजर दुनिया का सातवें नम्बर का सबसे बड़ा यूरेनियम उत्पादक देश है। नाइजर ने 2022 में 2020 मीट्रिक टन यूरेनियम का उत्पादन किया है। यह दुनिया के यूरेनियम खनन उत्पाद का 5 प्रतिशत है। इसके यूरेनियम उत्पादन को फ्रांस की राज्य मालिकाने की कम्पनी ओरानो संचालित कर रही है। नाइजर का इसमें हिस्सा महज 15 प्रतिशत है, जबकि फ्रांसीसी कम्पनी का 85 प्रतिशत हिस्से पर मालिकाना है। इसके अतिरिक्त पश्चिमी साम्राज्यवादियों की लालची निगाहें नाइजर के कच्चे तेल, प्राकृतिक गैस, कोयला, टिन, पैट्रोलियम आदि पर लगी हुई हैं। 
    
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि फ्रांस नाइजर सहित अपने अन्य अफ्रीकी, पूर्व उपनिवेशों की अर्थव्यवस्था का नियंत्रण सी एफ ए फ्रांक मुद्रा के जरिए करता है। सी एफ ए फ्रांक का गठन अफ्रीका के फ्रांसीसी उपनिवेशों की मुद्रा के बतौर 1945 में किया गया था। इसके जरिये फ्रांस इन पूर्व उपनिवेशों की अर्थव्यवस्था और व्यापार पर नियंत्रण रखता है। अलग-अलग समय पर कई अफ्रीकी शासकों ने फ्रांस की मुद्रा के साथ अफ्रीकी फ्रांक के सम्बन्धों को तोड़ने की धमकी दी है। उनका तर्क था कि इससे अफ्रीकी देशों के विकास में बाधा पड़ती है और उनका दोहन फ्रांसीसी करते हैं। 
    
अमरीकी साम्राज्यवादी अपदस्थ राष्ट्रपति मुहम्मद बाजौन की फिर से सत्ता में इसलिए वापसी चाहते हैं क्योंकि अपदस्थ करने वाले सैनिक शासक रूसी साम्राज्यवादियों के साथ ज्यादा घनिष्ठता दिखा रहे हैं। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी चिंतित हैं। उनकी चिंता इससे व्यक्त होती है कि उन्होंने कार्यवाहक उपविदेश मंत्री विक्टोरिया नुलंद को नाइजर बातचीत करने के लिए भेजा। यह वही विक्टोरिया नुलंद हैं जिन्होंने 2014 में मैदान विद्रोह के बाद यूक्रेन में अमरीकी समर्थक सत्ता बैठाने में महत्वपूर्ण कुख्यात भूमिका निभाई थी। विक्टोरिया नुलंद नाइजर के नागरिक समाज के व्यापक हिस्से से मिलीं। वे पत्रकारों से मिलीं। वे ‘‘जनतांत्रिक’’ कार्यकर्ताओं से मिलीं। वे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से मिलीं। वे इन सबको अमरीका के लम्बे समय से दोस्त बता रही थीं। यदि उनकी यूक्रेन में रंगीन क्रांति कराने में भूमिका को देखा जाए तो इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वे नाइजर की सैनिक सत्ता के विरुद्ध रंगीन क्रांति की तैयारी के लिए वहां गई हों। 
    
सैनिक शासक तियानी ने उनसे मुलाकात नहीं की और न ही अपदस्थ राष्ट्रपति बाजौन से उन्हें मिलने दिया गया। हालांकि बाजौन से उनकी फोन पर बात हुई। 
    
चूंकि कई सैन्य अधिकारी अमरीकी विशेष सैन्य बलों के साथ घनिष्ठता से काम कर चुके हैं, इसलिए विक्टोरिया नुलंद इस संभावना को भी तलाश रही थीं कि बड़े सैन्य अधिकारी विशेष तौर पर जनरल बारमऊ उनसे सहयोग करेंगे। लेकिन इसमें भी उन्हें सफलता मिलती हुई नहीं दिखाई दी। 
    
विक्टोरिया नुलंद ने रूस और उसकी भाड़े की सेना वैगनर की उपस्थिति पर चिंता व्यक्त की। रूस के बढ़ते प्रभाव से अमरीकी साम्राज्यवादियों की परेशानी बढ़ गयी है। अमरीकी साम्राज्यवादी सीधे सैनिक हस्तक्षेप नहीं कर सकते। वे लीबिया में इसके परिणाम देख चुके हैं। लीबिया अभी भी गृहयुद्ध के दौर से गुजर रहा है। अमरीकी साम्राज्यवादी और फ्रांस व यूरोपीय संघ इकोवास पर अपनी उम्मीदें केन्द्रित किये हुए हैं। लेकिन इकोवास के सदस्य देशों के बीच खुद मतभेद हैं। इसलिए तमाम धमकियों के बावजूद अभी तक इकोवास नाइजर पर सैनिक आक्रमण नहीं कर पा रहा है। फ्रांसीसी शासक सैनिक हमला करने की यदि पहल करेंगे तो साहेल के कई देशों में फ्रांस के विरुद्ध माहौल और गम्भीर हो जायेगा। ऐसी स्थिति में अमरीकी साम्राज्यवादी खुद अफ्रीकी देशों को आपस में लड़ाकर अपने दबदबे को बचाने में लगे हुए हैं। अफ्रीकी देशों के कई शासक अमरीकी और यूरोपीय साम्राज्यवादियों के साथ अपने भविष्य को बांधे हुए हैं। इसलिए वे नाइजर में सैनिक हमले की हिमायत कर रहे हैं। लेकिन वे भी नाइजर की समस्या के लिए समूचे पश्चिमी अफ्रीका में या एक हद तक अफ्रीका में क्षेत्रीय युद्ध भड़क उठने की संभावना से डरे हुए हैं। यही कारण है कि इकोवास अभी तक नाइजर में सैनिक हस्तक्षेप नहीं कर सका है। 
    
रूसी साम्राज्यवादी भी अफ्रीका में अपने प्रभाव को बढ़ाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। रूसी साम्राज्यवादियों का उत्तरी अफ्रीकी देश अल्जीरिया के साथ घनिष्ठ फौजी सम्बन्ध रहा है। यदि इकोवास नाइजर पर सैनिक हमला करता है तो अल्जीरिया भी इस युद्ध में शामिल हो सकता है। इसलिए इकोवास की सैनिक हमले की धमकी के बाद अल्जीरिया के मुख्य सेनाध्यक्ष रूस के रक्षा मंत्री से मिलने रूस गये। अल्जीरिया की सेना अफ्रीका की सबसे बड़ी, अच्छे हथियारों से लैस आधुनिक सेना है। कहा जाता है कि इकोवास द्वारा अपदस्थ किये गये राष्ट्रपति को पुनः सत्तानसीन कराने के मकसद से नाइजर पर हमले की स्थिति में यदि व्यापक क्षेत्रीय युद्ध होता है तो अल्जीरिया और रूस इस हमले के विरुद्ध अपनी योजनाओं का तालमेल करेंगे। इसी मकसद से अल्जीरिया के सेनाध्यक्ष रूस के रक्षामंत्री से मिले। 
    
इस बात की संभावना है कि पश्चिम अफ्रीका में युद्ध छिड़ जाने की स्थिति में अल्जीरिया अपनी भौगोलिक स्थिति और सैन्य शक्ति के कारण महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। अल्जीरिया कम से कम इतना तो कर ही सकता है कि वह अपनी जमीन के हवाई क्षेत्र को फ्रांस द्वारा इस्तेमाल करने से रोक दे। यदि फ्रांस के युद्धक विमान नाइजर नहीं पहुंच पायेंगे तो उसकी स्थिति लीबिया की तरह नहीं होगी। 
    
सिर्फ यही नहीं, बल्कि अल्जीरिया अपने हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल करने की इजाजत रूस को दे सकता है। बशर्ते कि भूमध्यसागर के रास्ते में नाटो की रुकावट से रूस पार पा ले। इससे बुरकीना फासो-माली संघ के लिए हथियार, अनाज और उनकी जरूरत के हर सामान की वस्तुतः रूस आपूर्ति कर सकेगा। यदि फ्रांस और नाइजीरिया फिर भी नाइजर पर हमला करते हैं तो अल्जीरिया रूस की मदद से नाइजर में पश्चिमी साम्राज्यवादियों के प्रभाव को चुनौती दे सकता है। 
    
चूंकि लीबिया में नाटो द्वारा की गयी तबाही से अल्जीरिया न सिर्फ अच्छी तरह से परिचित है बल्कि इसके बाद पनपे और फैले आतंकवाद का वह भी शिकार रहा है। इसलिए अल्जीरिया के शासक फ्रांस, नाटो और अमरीकी साम्राज्यवादियों की नाइजर में निभायी जाने वाली भूमिका के प्रति चौकस हैं और इसके जवाब में अपनी तैयारी कर रहे हैं। 
    
हालांकि नाइजीरिया और चाड की तरह नाइजर में अल्जीरिया की भूमिका उतनी महत्वपूर्ण नहीं है फिर भी नाइजीरिया और चाड द्वारा इकोवास के जरिए नाइजर पर हमले की तैयारी के विरोध में अल्जीरिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। 
    
नाइजर में चीनी साम्राज्यवादियों का निवेश तेल पाइपलाइन और यूरेनियम के उत्पादन में मौजूद है। चीनी शासक नाइजर और व्यापक पश्चिमी अफ्रीकी क्षेत्र में स्थिरता चाहते हैं। लेकिन स्थायित्व दिखाई नहीं पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में वे भी अपने वैश्विक और पश्चिमी अफ्रीकी हितों को देखते हुए रूसी साम्राज्यवादियों के साथ आम तौर पर खड़े हैं। 
    
नाइजर में सैनिक तख्तापलट का खुलेआम समर्थन कोई भी साम्राज्यवादी देश नहीं कर रहा है। लेकिन पश्चिमी साम्राज्यवादी- फ्रांसीसी, अमरीकी और यूरोपीय संघ चुनी हुई सरकार को फिर से सत्तारूढ़ कराने के लिए सैनिक हमले तक जाने की हिमायत कर रहे हैं। हालांकि यह भी उनका पाखण्ड है। क्योंकि अमरीकी साम्राज्यवादी कई देशों में चुनी हुई सरकारों को सैनिक तख्तापलट या अन्य साजिशों के जरिये अपदस्थ कराने में खुद भूमिका निभाते रहे हैं। नाइजर में भी वे इसकी संभावना तलाश रहे हैं। दूसरी तरफ रूसी और चीनी साम्राज्यवादी हैं। इनको भी सैनिक सत्ताओं से कोई परहेज नहीं है। ये अपनी वैश्विक और क्षेत्रीय राजनीति और स्वार्थ को केन्द्र में रखकर अवस्थिति अपनाते हैं। रूसी साम्राज्यवादी बाहरी हस्तक्षेप के विरोध में खड़े हैं और कूटनीतिक प्रयासों के जरिये नाइजर की समस्या का समाधान चाहते हैं। यही हाल चीनी साम्राज्यवादियों का है। रूसी साम्राज्यवादी स्पष्ट तौर पर माली और बुरकीना फासो के सैनिक शासकों के पक्ष में खड़े हैं और इन दोनों देशों के शासक नाइजर के सैनिक शासन के पक्ष में हैं। इस तरह, प्रकारान्तर से रूसी साम्राज्यवादी नाइजर के सैनिक शासन के साथ हैं। 
    
जहां तक पश्चिमी अफ्रीका के अलग-अलग देशों के शासकों का सम्बन्ध है सभी किसी न किसी साम्राज्यवादी देश के साथ जुड़ कर अपना हित साधन करते हैं। ये साम्राज्यवादी देशों के आम तौर पर कठपुतले नहीं हैं। इन सभी देशों में पूंजीवादी शासक हैं और वे अपने यहां के पूंजीपति वर्ग के हितों को साधते हैं। चूंकि अलग-अलग देशों में पूंजीपति वर्ग की मजबूरी-कमजोरी अलग-अलग तस्वीर पेश करती है, इसलिए साम्राज्यवाद के साथ झुकने और टकराने की स्थिति इनकी अलग-अलग है। 
    
इनमें न तो कोई साम्राज्यवाद विरोध है और न ही कोई अपने देश के मजदूर-मेहनतकशों के हितों का प्रतिनिधि। इसलिए कभी-कभी इनके आचरण में किसी खास साम्राज्यवादी शक्ति का विरोध दिखाई पड़ता है। लेकिन यह एक हद तक ही रहता है। इनका यह विरोध कब उसी साम्राज्यवादी शक्ति के साथ सहयोग में तब्दील हो जाए, यह निश्चित नहीं होता। 
    
ऐसी स्थिति में, यदि कोई नाइजर की सैनिक सत्ता द्वारा फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों के विरोध के स्वर को देखकर उन्हें साम्राज्यवाद विरोधी और वहां की जनता के प्रतिनिधि के बतौर चित्रित करता है तो यह सरासर गलत बात है।
    
इसी प्रकार पुराने चुने गये शासक को यदि कोई जनतंत्र या जनता का प्रतिनिधि मानने की बात करता है तो वह भी पूर्णतया गलत है। वह चुना हुआ शासक अमरीकी और फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों का पक्षधर रहा है और अभी भी है। 
    
ये सभी मजदूर-मेहनतकश आबादी के शत्रु हैं। इनके बीच की टकराहट इनके स्वार्थों, प्रभाव क्षेत्रों और लूट के लिए है। इन टकराहटों, द्वन्द्वों और संघर्षों पर नजर रखकर ही मजदूर-मेहनतकश आबादी अपने संघर्षों को आगे बढ़ाने में इनका इस्तेमाल कर सकती है।  

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है