बर्बरता की ओर

जब चेतन सिंह चौधरी ने चलती रेल के अलग-अलग डिब्बों में अपने अधिकारी टीकाराम मीना और तीन मुसलमान यात्रियों की चुन-चुन कर हत्या की तो हिन्दू फासीवादी सरकार और उसके समर्थकों ने इसे मानसिक बीमारी का परिणाम बताया। कहा गया कि वह मानसिक बीमारी का चुपके से इलाज करा रहा था। पर इसके बावजूद ये लोग यह नहीं बता पाये कि वह कौन सी मानसिक बीमारी थी जो चेतन सिंह को अलग-अलग डिब्बों में जाकर और वेश-भूषा से पहचान कर मुसलमानों की हत्या करने को प्रेरित कर रही थी? वह कौन सी मानसिक बीमारी थी जो उसे एक लाश के पास खड़े होकर लोगों को मोदी-योगी और ठाकरे को वोट देने की बात कहने को प्रेरित कर रही थी?
    
इस बात की संभावना है कि चेतन सिंह मानसिक तौर पर बीमार चल रहा हो। इस बात की भी संभावना है कि उसकी बीमारी उस तरह की और उस अवस्था की हो जिसमें वह थोड़े से उद्वेलन की अवस्था में हत्या करने की ओर जा सकता था! तब भी यह सवाल बना रहता है कि उसने बेतरतीब तरीके से गोलियां चलाकर यात्रियों की हत्या क्यों नहीं की? क्यों वह डिब्बा-दर-डिब्बा जाकर वेश-भूषा से मुसलमान यात्रियों की पहचान कर रहा था और उनकी हत्या कर रहा था। कहा जाता है कि उसने चालीस मिनट तक यह काम किया और पहले व अंतिम डिब्बों के बीच ग्यारह डिब्बों का फासला था। यानी हत्या करते समय वह जितना उद्वेलित रहा हो पर वह इतना नियंत्रित भी था कि अपना लक्ष्य चुन रहा था और हत्या कर रहा था। 
    
ऐसे में यह सवाल बना रहता है कि क्या चीजें हैं जो एक व्यक्ति को इस तरह एक खास धर्म के लोगों की चुन-चुन कर हत्या तक ले जाती हैं? इस सवाल का उत्तर बहुत कठिन नहीं है। उसने स्वयं ही अपने भाषण में इसका उत्तर दे दिया था। भारत के मुसलमान पाकिस्तान के एजेण्ट हैं और उन्हें ठीक करने के लिए मोदी-योगी और ठाकरे को वोट देना है। यह उसे कैसे पता? यह सब टी वी वाले उसे बताते हैं। इस चेतना के बाद चेतन सिंह ने अपने हिस्से का काम कर दिया। 
    
कुछ लोगों को यह घटना अपवाद लग सकती है जिससे पूरे समाज के लिए कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। पर तब बिलकिस बानो के दोषियों की रिहाई को कैसे देखा जाये? बिलकिस बानो और उसके परिवार के साथ जो कुछ हुआ वह जघन्यतम अपराधों में था। दंगों में घर छोड़कर भाग रहे बिलकिस बानो के परिवार को सड़क पर उसके ही गांव के और वह भी पड़ोसियों ने घेर लिया। परिवार के कई लोगों की हत्या कर दी गई, कुछ की बलात्कार के बाद जिसमें बिलकिस की मां और बहन भी थी। बिलकिस की तीन साल की बच्ची की चट्टान पर सिर मारकर हत्या कर दी गई। पांच माह की गर्भवती बिलकिस के साथ बलात्कार किया गया। एक बार फिर यह याद रखना होगा कि अपराधी उसके ही गांव के पड़ोसी थे। ऐसे अपराधियों को पिछले साल पन्द्रह अगस्त को रिहा कर दिया गया ठीक उसी दिन जिस दिन संघी प्रधानमंत्री महिलाओं के बारे में अच्छी-अच्छी बातें कर रहे थे। दोषियों का रिहाई के बाद फूल-मालाओं से स्वागत किया गया और भाजपाई नेताओं ने उन्हें संस्कारी ब्राह्मण बताया। 
    
किसी भी सभ्य व्यक्ति को यह सारा कुछ अत्यन्त जघन्य लगेगा। मौत की सजा में यकीन रखने वाले यही कहेंगे कि ऐसे लोगों को फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए। जो लोग मौत की सजा के विरोधी हैं उन्हें भी यह लगेगा कि ऐसे लोगों को सारी जिन्दगी जेल में रहना चाहिए। पर हिन्दू फासीवादी ऐसा नहीं सोचते। इसीलिए वे ऐसे लोगों को बचाने की हरचन्द कोशिश करते हैं और इसमें असफल हो जाने पर बाद में उन्हें रिहा कर देते हैं। 
    
कौन सी मानसिकता, कौन सी सोच उन्हें ऐसा करने की ओर ले जाती है? यह वही बर्बर मानसिकता और बर्बर सोच है जो इंसानों को जाति, धर्म, ‘नस्ल’ इत्यादि के आधार पर न केवल तेरे-मेरे में बांट देती है बल्कि यह बताती है कि दूसरे का संपूर्ण विनाश ही सबसे अच्छी स्थिति है। वह दूसरों को, परायों को इंसान मानने से इंकार कर देती है। ऐसा कर वह उनके साथ किसी भी वहशियाना व्यवहार को जायज बना देती है। वह पलट कर ऐसा करने वाले को वहशी दरिन्दे में रूपान्तरित कर देती है। दूसरों को इंसान न मानने वाले स्वयं भी इंसान नहीं रह जाते। 
    
यह याद रखना होगा कि हिन्दू फासीवादियों के आदि गुरू विनायक दामोदर सावरकर ने मुसलमान महिलाओं के साथ बलात्कार को जायज ठहराया था। ये वही सावरकर थे जो हिन्दू सभ्यता और संस्कृति को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ घोषित करते थे। इस सर्वश्रेष्ठ संस्कृति के वाहकों को इस सर्वश्रेष्ठ संस्कृति वाले ‘हिन्दू राष्ट्र’ को हासिल करने के लिए मुसलमान औरतों से बलात्कार और उनकी हत्या में अपने लक्ष्य की सिद्धि नजर आती है। बिलकिस बानों के गुनहगारों ने वही किया जो हिन्दू फासीवादी जायज मानते हैं। इसी से यह भी समझा जा सकता है कि क्यों ये दोषी पन्द्रह अगस्त के दिन छोड़ दिये जाते हैं, उनका फूल-माला से स्वागत किया जाता है और उन्हें संस्कारी ब्राह्मण घोषित किया जाता है। बिलकिस बानो के परिवार के साथ जघन्य अपराध इनकी नजर में महान भारतीय संस्कृति की रक्षा में एक कदम था। वे ऐसा करके अतीत का बदला ले रहे थे और वर्तमान को पवित्र कर रहे थे। हिन्दू फासीवादियों की नजर से देखें तो यह दरिंदगी असल में एक शौर्यपूर्ण कार्य था जिसका सम्मान होना ही चाहिए। 
    
यह सब बात न तो अतिरेक है और न ही अलंकारपूर्ण। यही कठोर सच्चाई है। आज भी इतिहासकारों और आम लोगों दोनों के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि एक सभ्य-सुसंस्कृत देश जर्मनी कैसे हिटलर के नाजियों के नेतृत्व में बर्बरता के युग में चला गया? क्यों नाजियों ने यूरोप भर के साठ लाख यहूदियों का नरसंहार किया? उन्हें अपने देश के पांच लाख यहूदियों से नफरत थी तो उन्होंने बाकी यूरोप के यहूदियों को क्यों निशाना बनाया? क्यों उन्होंने उनके ऊपर जघन्य प्रयोग किये? क्यों नाजियों ने गैर-यहूदी विकलांगों, समलैंगिकों, मानसिक रोगियों को मार डाला? क्यों उन्होंने बच्चों तक को नहीं छोड़ा? 
    
इसकी वजह यही थी कि नाजियों ने शुरू से ही यहूदियों के प्रति जिस नफरत का प्रचार किया था वह समय के साथ बढ़ती गयी। उसका फैलाव होता गया। क्रमशः ज्यादा लोग उसके प्रभाव में आते गये। स्वयं नाजी भी इस नफरत पर व्यवहार में और भी ज्यादा बड़े पैमाने पर अमल करते गये। सत्ता में बने रहने के लिए और सत्ता के प्रति लोगों के असंतोष को बढ़ने से रोकने के लिए वे एक के बाद एक कदम उठाते गये। सत्ता में आने से पहले उन्होंने यहूदियों के खिलाफ नफरत का प्रचार किया और उनके साथ व्यक्तिगत स्तर पर गुंडागर्दी की। पुलिस-प्रशासन और अदालतों से उन्हें शह मिली। सत्ता में आने के बाद पहले उन्होंने यहूदियों को सरकारी नौकरियों, स्कूलों-कालेजों व विश्वविद्यालयों से निकलवाया। फिर उनका आर्थिक-सामाजिक बहिष्कार शुरू किया गया। 1938 से उनकी सम्पत्ति और कारोबार छीनने की कार्रवाई शुरू हुई। फिर उन्हें देश छोड़कर जाने को कहा गया। अंत में उन्हें यातना शिविरों में कैद करने तथा उनके सामूहिक नरसंहार की कार्रवाई शुरू हुई। तब तक हिटलर का लगभग समूचे मध्य और पश्चिमी यूरोप पर कब्जा हो चुका था तथा नाजियों ने यहूदियों के नरसंहार का दायरा समूचे यूरोप तक फैला दिया था। 
    
इस पूरी प्रक्रिया में जर्मनी के जन समुदाय का एक बड़ा हिस्सा यहूदियों के प्रति नाजियों के इस व्यवहार को या तो जायज मान चुका था या फिर इसके प्रति अन्यमनस्क हो गया था। उसने आंख मूंद ली थी। नाजियों की अमानवीयता और दरिंदगी की छाया उस पर भी पड़ चुकी थी। 
    
यह सही है कि नाजियों ने यातना शिविरों, यहूदियों के नरसंहार तथा उन पर अमानवीय वैज्ञानिक प्रयोग की बातों को जर्मन जनता से छिपाया। केवल द्वितीय विश्व युद्ध में नाजियों की पराजय के बाद ही ये बातें जर्मन जनता को पता चलीं। इसके पश्चाताप स्वरूप आज भी जर्मनी में नाजियों की किसी भी तरह की तारीफ या वकालत प्रतिबंधित है। नाजियों द्वारा इस तरह अपने सबसे घृणित कारनामों को जर्मन जनता से छिपाना यह दिखाता है कि वे आश्वस्त नहीं थे कि उनके प्रभाव की जर्मन जनता भी इसे स्वीकार कर पायेगी। लेकिन तो भी दो बातों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक तो यह कि जर्मन जनता ने यहूदियों के सम्पत्तिहरण तथा देश निकाला तक नाजियों के व्यवहार को स्वीकार कर लिया था। दूसरा यह कि जिन नाजियों ने यहूदियों के कत्लेआम को अंजाम दिया उनकी संख्या लाखों में थी यानी सारे नाजी इसमें इस या उस रूप में शामिल थे। स्वयं जर्मन सेना भी इसमें शामिल थी क्योंकि सारे यूरोप से यहूदी उसके कब्जे वाले इलाके से और उसके सहयोग से ही यातना शिविरों में भेजे जा रहे थे। 
    
सभ्य-सुसंस्कृत जर्मन जनता यहां तक क्यों पहुंची? वह यहूदियों के प्रति नफरत में इतना कैसे डूब गई कि सामान्य मानवीयता भी भूल गई? क्यों उसने नाजियों की दरिंदगी को स्वीकार कर लिया? स्वयं नाजी इस कदर दरिन्दे क्यों बन गये? वे इंसान से हैवान कैसे बन गये?
    
इसका उत्तर है कि उन्हें ऐसा बनाया गया। जनता के जीवन के संकट का कारण नाजियों ने जनता के ही एक छोटे से हिस्से को बता दिया। इस तरह असली कारण यानी संकटग्रस्त पूंजीवाद और लुटेरे पूंजीपति वर्ग को बचा लिया। इसीलिए पूंजीपति वर्ग ने नाजियों को पाला-पोषा। 
    
यह सब करने के लिए नाजियों ने जर्मन समाज में यहूदियों के प्रति परंपरागत पूर्वाग्रहों का इस्तेमाल किया। इसको उन्होंने अर्धसत्य और झूठ से खूब बढ़ाया। ऐसा कोई पाप नहीं था जो उन्होंने यहूदियों के मत्थे न मढ़ा हो। यहूदी ही लुटेरे पूंजीपति थे, यहूदी ही सूदखोर थे, यहूदी ही लुटेरे दुकानदार थे, यहूदी ही कम्युनिस्ट थे, यहूदी ही समाजवादी थे, यहूदी ही उदारवादी थे, इत्यादि, इत्यादि। यहूदियों ने पवित्र जर्मन राष्ट्र को भ्रष्ट किया था। उन्होंने आर्य नस्ल को दूषित किया था। वे जर्मन स्त्रियों की ताक में थे जिससे उन्हें भ्रष्ट कर सकें। यदि यहूदी जर्मन राष्ट्र से बाहर कर दिये जायें तो आर्य नस्ल और जर्मन राष्ट्र का पुनरूत्थान हो जायेगा। वह सारी दुनिया पर राज करेगा। 
    
आज भारत में ये बातें कितनी जानी-पहचानी लगती हैं। बस यहां यहूदी के बदले मुसलमान शब्द रखने की जरूरत है। अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए नाजियों ने एक योजना के तहत बेहद सचेत तरीके से जनता की सबसे खराब प्रवृत्तियों को उभारा। उन्होंने सचेत तौर पर तर्क के बदले भावनाओं को भड़काया। भावनाओं में नफरत और हिंसा प्रमुख थे। अंत में वे इतने सफल हो गये कि जनता का एक हिस्सा ‘टूटे शीशों वाली रात’ के तांडव को देख कर खुश हो रहा था। यातना शिविरों में नाजी बेहद ठंडे तरीके से कत्लेआम को अंजाम दे देते थे। 
    
सभ्यता से बर्बरता की ओर मानवता को ले जाना नाजीवाद-फासीवाद का आम चरित्र है। लेकिन इसे हासिल तभी किया जा सकता है जब जनता के एक हिस्से को अमानवीय बना दिया जाये तथा और भी छोटे हिस्से को दरिंदा। आज भारत में यही हो रहा है। 
    
महान भारतीय संस्कृति की बात करने वाले हिन्दू फासीवादी अपनी बातचीत और व्यवहार में जरा भी सभ्यता-संस्कृति का परिचय नहीं देते। बेहद घटिया स्तर की गाली-गलौच तथा लंपटपन उनके लिए आम चीज है। वे बात-बात पर बलात्कार की धमकी देते हैं और संघी लंपट दंगों के दौरान इसे कर भी डालते हैं। हत्या और बलात्कार को वे दस तरीके से जायज ठहराते हैं। मुसलमानों की यातना से उन्हें पर पीड़ा सुख मिलता है। 
    
जर्मन नाजियों की तरह भारत के हिन्दू फासीवादी भी कदम-दर-कदम आगे बढ़ रहे हैं। दस साल पहले जो बातें वे घुमा-फिरा कर कहते थे, उसे अब बेधड़क कहते हैं। पहले जो संघ परिवार में हाशिये के लोग थे वे ही अब मुख्यधारा बन गये हैं। दंगों के सीधे आरोपी अब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं। हिन्दू धर्म का सरकारी स्तर पर प्रचार-प्रसार हो रहा है। और मुसलमानों को सरकारी बुलडोजर से रौंदा जा रहा है। पूंजीवादी प्रचारतंत्र खुलेआम बुलडोजर चलाने की मांग करता है और उस पर तालियां बजाता है। 
    
बेगुनाहों को जेल भिजवाकर तथा उनके घरों को बुलडोजर से जमींदोज कर जश्न मनाने वाले नफरत के इतने शिकार हो गये होते हैं, उन्हें हत्या और बलात्कार से कोई समस्या नहीं होती, यदि शिकार उनका दुश्मन हो। इन्हीं में से कुछ के और आगे बढ़कर इसे स्वयं अंजाम देने में दिक्कत नहीं होती। आज हम मणिपुर से लेकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में इसे देख रहे हैं। समाज हमारी आंखों के सामने बर्बरता की ओर जा रहा है। 
    
इसके पहले कि जर्मनी की तरह देर हो जाये, समाज को इधर और जाने से रोकना होगा। जितना जहर समाज में फैल चुका है, उसे निकालना होगा। और यह काम वही कर सकते हैं जो इस पतित पूंजीवादी समाज के सबसे ज्यादा शिकार हैं यानी मजदूर। उन्हें यह समझना होगा कि इस बर्बरता का सारा खामियाजा उन्हें ही भुगतना होगा। उन्हीं के कंधों पर समूची मानवता को बर्बरता के खड्ड में गिरने से रोकने की जिम्मेदारी है। और वे यह कर सकते हैं क्योंकि वे ही नये तथा बेहतर समाज के निर्माता हैं। वे यदि बाकी मेहनतकशों को पतित पूंजीवाद के खिलाफ गोलबंद करने में कामयाब हो जाते हैं तो समाज से इस फासीवादी नफरत के जहर को निकाला जा सकता है। यह आज एक लम्बा काम बन गया है पर मजदूर वर्ग के क्रांतिकारियों को मजदूर वर्ग तथा फिर अन्य मेहनतकशों को इसी के लिए जागृत और गोलबंद करना होगा। 

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