केशवानन्द भारती मामले के पचास साल बाद

    पचास साल पहले 24 अप्रैल 1973 को सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानन्द भारती मामले में अपना फैसला सुनाया था। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय के सभी 13 न्यायाधीशों में से 7 ने यह कहा कि संविधान का एक बुनियादी ढांचा और उसूल हैं जिन्हें किसी भी संवैधानिक संशोधन से नहीं बदला जा सकता। 6 न्यायाधीश इसके विरोध में थे। इस फैसले को तब से ‘बुनियादी ढांचे’ वाला फैसला माना जाता रहा है। 
    इस फैसले ने प्रकारान्तर से संसद के ऊपर सर्वोच्च न्यायालय की वरीयता स्थापित कर दी। संविधान का एक बुनियादी ढांचा है जिसे संविधान संशोधन की प्रक्रिया (धारा-368) के जरिये नहीं बदला जा सकता। और इसका फैसला करने का अधिकार संसद को नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय को है। यानी सर्वोच्च न्यायालय ही तय करेगा कि क्या बुनियादी ढांचा है और क्या नहीं तथा कौन सा संवैधानिक संशोधन इसका उल्लंघन करता है। बाद में 1993 से उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कालेजियम व्यवस्था से सर्वोच्च न्यायालय की कार्यपालिका और विधायिका पर वरीयता और पक्की हो गई। 
    आज जब केन्द्र की हिन्दू फासीवादी सरकार समूची न्यायपालिका को अपने अधीन करने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रही है तो ‘बुनियादी ढांचे’ के फैसले के पहले और बाद की गति एक नया महत्व ग्रहण कर लेती है। ‘हिन्दू राष्ट्र’ कायम करना हिन्दू फासीवादियों का घोषित लक्ष्य है। औपचारिक तौर पर वे ‘हिन्दू राष्ट्र’ वर्तमान संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ को बदल कर ही घोषित कर सकते हैं क्योंकि धर्मनिरपेक्षता ‘बुनियादी ढांचे’ का हिस्सा है। अनौपचारिक तौर पर वे यह काम न्यायपालिका को पालतू बना कर कर सकते हैं क्योंकि तब ‘बुनियादी ढांचा’ नाम भर का रह जायेगा। 
    आज भारत की न्यायपालिका जिस सामाजिक-राजनीतिक संकट का सामना कर रही है उसे समझने के लिए केशवानन्द भारती मामले के आगे-पीछे पर एक नजर डालना फायदेमंद होगा। 
    केशवानन्द भारती केरल के कासरगोद जिले के इदनीर में इदनीर मठ के महंत थे। केरल की तब की सरकार ने भूमि सुधार के दो नये कानून के तहत मठों की जमीनों के प्रबंधन में हस्तक्षेप करना चाहा। इसकी छाया इदनीर मठ पर भी पड़ी। केरल सरकार के इस प्रयास के खिलाफ केशवानन्द भारती सर्वोच्च न्यायालय चले गये और इस तरह केशवानन्द भारती बनाम केरल सरकार का प्रसिद्ध मुकदमा सामने आया। इस मुकदमे में केशवानन्द के वकीलों ने बुनियादी संवैधानिक सवाल उठाये और उनके निपटारे के लिए अंततः तत्कालीन सर्वोच्च न्यायालय के सभी तेरह न्यायाधीशों की एक संवैधानिक पीठ गठित की गई। लम्बी सुनवाई के बाद अंत में इस संवैधानिक पीठ ने 7-6 से अपना फैसला 24 अप्रैल, 1973 को सुनाया और इस तरह संविधान की बुनियादी ढांचे वाली व्याख्या अस्तित्व में आई। 
    केशवानन्द भारती के वकीलों ने यह नुक्ता उठाया था कि संविधान में प्रदत्त बुनियादी अधिकार ऐसे हैं कि उन्हें किसी भी संवैधानिक संशोधन से निरस्त नहीं किया जा सकता। इससे यह सवाल खड़ा हो गया कि संसद के पास संविधान में संशोधन का जो अधिकार है (स्वयं संविधान की धारा-13 व 368 के तहत) उसकी सीमा क्या है? क्या वह असीमित है या सीमित? और इसकी व्याख्या कौन करेगा? संविधान पीठ ने बहुमत से जो फैसला सुनाया उसका आशय यही था कि संविधान में संशोधन का संसद को दिया गया अधिकार सीमित है और इसकी सीमा की व्याख्या करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को है। संसद संविधान की प्रस्तावना तथा नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में घोषित उद्देश्यों को हासिल करने के लिए बुनियादी अधिकारों में संशोधन कर सकती है पर इतना नहीं कि वह संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ को बदल दे।
    इस फैसले का व्यावहारिक मतलब क्या था वह इस फैसले के पहले के तीन-चार सालों की राजनीति से समझा जा सकता है। यह ध्यान में रखना होगा कि केशवानन्द भारती का मुकदमा मठ की सम्पत्ति से संबंधित था। इसी सम्पत्ति के संबंध में संविधान में प्रदत्त बुनियादी अधिकारों का मामला उठा था। यह मामला उस समय केरल सरकार के भूमि सुधार कानूनों से जुड़ता था। 
    ठीक इसी समय केन्द्र की इंदिरा गांधी सरकार कुछ ऐसे कदम उठा चुकी थी जो सम्पत्ति के अधिकार का कुछ अतिक्रमण करते थे। इंदिरा सरकार ने प्रीवीपर्स की व्यवस्था समाप्त कर दी थी। उसने बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी कर दिया था। इसी के साथ नये भूमि सुधार कानून लाये जा रहे थे। इन सभी कानूनों को न्यायालय में चुनौती दी जा रही थी कि वे बुनियादी अधिकार का उल्लंघन करते थे। इसीलिए केशवानन्द भारती मामले में केवल केरल सरकार ही पक्ष नहीं थी बल्कि केन्द्र सरकार भी पक्ष थी। इसमें सरकार के खिलाफ फैसला सरकार के हाथ बांध देता था। इस फैसले के तुरंत बाद इंदिरा सरकार का न्यायपालिका से जो टकराव शुरू हुआ वह आपातकाल तक चलता रहा। 
    इंदिरा गांधी ने 1969-71 के बीच ‘वामपंथी’ रुख विशुद्ध अवसरवादी राजनीतिक कारणों से ग्रहण किया था। 1969 में कांग्रेस में फूट के बाद उन्हें स्वयं को मजदूर-मेहनतकश जनता के पक्ष में दिखाना था। वैसे उनकी ये नीतियां तब पूंजीपति वर्ग के दूरगामी हितों के पक्ष में थीं। लेकिन जिनकी सम्पत्ति पर चोट की जा रही थी वे इसे उस रूप में लेने को तैयार नहीं थे। वे सम्पत्ति के अपने ‘बुनियादी अधिकार’ की रक्षा में उठ खड़े हुए थे और सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल उनके इस अधिकार को मान्यता दी बल्कि इसे संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ का हिस्सा घोषित कर दिया जिसका किसी संवैधानिक संशोधन से उल्लंघन नहीं किया जा सकता था। सर्वोच्च न्यायालय दृढ़तापूर्वक निजी सम्पत्ति की रक्षा में उठ खड़ा हुआ था- इसे संविधान का बुनियादी उसूल घोषित कर। 
    सर्वोच्च न्यायालय का ऐसा व्यवहार नया नहीं था। 1950 से ही, जब संविधान अस्तित्व में आया, भारत की न्यायपालिका, ऊपर से नीचे तक, न केवल निजी सम्पत्ति की रक्षा में हमेशा खड़ी रही बल्कि ऐसा करते हुए उसने हमेशा ही सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के रास्ते में बाधा खड़ी की। कार्यपालिका और विधायिका के मुकाबले न्यायपालिका ज्यादा रुढ़िवादी और दक्षिणपंथी थी। एक तो उस पर चुनावों का जन दबाव नहीं था, दूसरे उसके सदस्य पुराने सम्पत्तिवान वर्गों से आते थे। दोनों मिलकर उसे कानूनों और संविधान की ऐसी व्याख्या की ओर ले जाते थे जो न केवल मजदूर-मेहनतकश जनता की विरोधी थी बल्कि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की भी। 
    इसको सबसे अच्छे तरीके से भूमि सुधार कानूनों के मामले में देखा जा सकता था (स्वयं केशवानन्द भारती मामला भी ऐसे ही कानूनों से संबंधित था)। जो भूमि सुधार कानून पास हुए उन्हें न्यायालयों में चुनौती मिली और वहां वे अटक गये। अंततः केन्द्र सरकार को एक संविधान संशोधन के जरिये इन कानूनों को इस फंदे से निकालना पड़ा। पर इसके बावजूद कानून अदालतों में घसीटे जाते रहे। इससे भी आगे इन कानूनों का अनुपालन भी अदालतों में घसीटा जाता रहा। परिणामस्वरूप जमीनों का बंटवारा न के बराबर हो पाया और ज्यादातर जमीनें पुराने मालिकों के पास बनी रहीं। 
    वैसे इस सबकी पृष्ठभूमि संविधान सभा में तैयार हो गई थी और स्वयं संविधान में ही इसका प्रावधान कर दिया गया था। संविधान सभा के सारे ही सदस्य सम्पत्तिवान वर्गों (ज्यादातर भूस्वामी-जमींदार पृष्ठभूमि से) आते थे और उन्हें अपनी सम्पत्ति की चिन्ता थी। वैसे भी पूंजीवादी संविधान निजी सम्पत्ति की रक्षा पर ही आधारित होगा। पर भारत की तब की खासियत यह थी कि यहां गैर-पूंजीवादी निजी सम्पत्ति अभी प्रमुख थी और उसके नुमांइदे सरकार व संविधान सभा में थे। इसीलिए निजी सम्पत्ति की रक्षा संबंधी प्रावधान बुनियादी अधिकारों में रखे गये पर जनकल्याण संबंधी प्रावधान नीति निर्देशक सिद्धान्तों में। इन नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करना बाध्यता नहीं थी। भूमि सुधार भी इन्हीं में आता था। 
    इन सबका यह परिणाम निकला कि सम्पत्ति के पुनर्वितरण तथा जन कल्याण संबंधी प्रावधान बस संविधान की किताब की शोभा बढ़ाते रहे। जब भी जन दबाव में सरकारों ने इस दिशा में बढ़ने की कोई कोशिश की न्यायालय इस रास्ते में बाधा बन कर खड़े हो गये। केशवानन्द भारती मामले में फैसला इन प्रयासों का सर्वोच्च रूप था। सम्पत्तिवान वर्गों ने भारत के पूंजीवादी संविधान की अव्यक्त मूल आत्मा को सस्वर व्यक्त करवा दिया था। अब स्पष्ट घोषित कर दिया गया निजी सम्पत्ति बुनियादी अधिकार है जिसका संवैधानिक दायरे में उल्लंघन नहीं किया जा सकता। 
    केशवानन्द भारती फैसला स्पष्टतः ही सर्वोच्च न्यायालय की रूढ़िवादी-दक्षिणपंथी प्रवृत्ति का फैसला था जो तत्कालीन सरकार की ‘वामपंथी’ प्रवृत्तियों के खिलाफ लक्षित था। यह जनतंत्र के खिलाफ भी फैसला था क्योंकि यह विधायिका के ऊपर न्यायपालिका की वरीयता घोषित करता था जबकि जनतंत्र में जनता और उसके द्वारा चुनी हुई विधायिका ही सर्वोपरि होती है। 
    यह याद रखना होगा कि संविधान सभा में संविधान में समाजवाद शब्द डालने का इस तर्क से विरोध किया गया था कि संविधान की कोई सीमा नहीं बांध देनी चाहिए। भविष्य में यदि जनता चाहे तो वह समाजवाद की ओर जा सकती है और संविधान इसकी इजाजत देता है। अब यदि समाजवाद का मतलब निजी सम्पत्ति का खात्मा होता है तो केशवानन्द भारती फैसले ने इस संभावना को, जनता की इस संभावित इच्छा को निरस्त कर दिया था। 
    इस फैसले के पक्ष में यह कहना होगा कि यह निजी सम्पत्ति की रक्षा के साथ पूंजीवादी उदारवादी मूल्यों (जैसे धर्मनिरपेक्षता, व्यक्ति की जान की रक्षा, इत्यादि) की भी रक्षा करता था हालांकि निजी सम्पत्ति की रक्षा का पहलू ही प्रधान था। यह पहलू तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को जस का तस बनाये रखने का माध्यम बनता था और इस तरह मजदूर-मेहनतकश जनता के विरोध में था।
    केशवानन्द भारती का मुकदमा तब के भारतीय समाज के द्वन्द्व को एक तरीके से व्यक्त करता था। इसने न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका (और विधायिका क्योंकि विधायिका मोटा-मोटी कार्यपालिका या सरकार के हिसाब से ही चलती थी) के रूप में स्वयं को प्रकट किया था। इसे तत्कालीन पूंजीवाद के भीतर यथास्थिति बनाम परिवर्तन के द्वन्द्व के रूप में भी देखा जा सकता है। या फिर जन दबाव बनाम स्थाई सम्पत्तिवान हितों के रूप में। तब इंदिरा गांधी सरकार ने इस द्वन्द्व को जिस तरह से हल करने की कोशिश की वह पूरी व्यवस्था को ही अस्थिर करने की ओर ले गई जो आपातकाल के दमन के जरिये ही वापस स्थिरता पा सकी। यह याद रखना होगा कि आपातकाल के ठीक पहले का काल आजादी के बाद का सबसे ज्यादा संकटपूर्ण और अस्थिरता का काल था जिससे केवल आपातकाल के जरिये ही निपटा जा सका। यह यूं ही नहीं है कि आपातकाल को पूंजीपति वर्ग का पूर्ण समर्थन हासिल था। 
    चीजें समय के साथ अपने विपरीत में बदल जाती हैं। आज भारतीय समाज फिर संकट से गुजर रहा है। आज सत्ताधारी हिन्दू फासीवादी स्वयं पूरे समाज को अस्थिरता की ओर ढकेल रहे हैं। वे अपने हिन्दू फासीवादी मंसूबों के तहत समाज के सभी तनावों-विग्रहों को तीखा कर रहे हैं। वे अपने राजनीति विरोधियों के अस्तित्व को समाप्त करना चाहते हैं। इस सबको एक मुकाम तक पहुंचाने के लिए उनके लिए जरूरी हो जाता है कि वे न्यायपालिका को भी पालतू बना लें। वे उस पर हावी हो जाये। 
    केन्द्र में सत्ता में आने के साथ ही उन्होंने इस दिशा में लगातार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष काम किये हैं। प्रत्यक्ष तरीका है संघी मानसिकता के जजों की भरती। अप्रत्यक्ष तरीका है न्यायाधीशों को धमकाना और खरीदना। संघी सरकार ने उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में भरती की कोलेजियम व्यवस्था को खत्म करने के लिए 2014 में एक कानून ही पास करा लिया था जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया। अब सरकार अपनी पसंद के नामों को आगे बढ़ाकर और बाकियों के नामों को रोककर क्रमशः इसे हासिल कर रही है। नीचे के न्यायालयों में तो सीधी सरकारी भरती के जरिये आसानी से यह हो रहा है। जहां तक न्यायाधीशों को खरीदने और धमकाने का सवाल है, सर्वोच्च न्यायालय के पिछले कुछ मुख्य न्यायाधीशों का मामला ही इसे स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। 
    पर संघी सरकार द्वारा न्यायपालिका को पालतू बनाने की यह प्रक्रिया धीमी है। यह उन्हें बेसब्र कर रही है। आखिर उन्हें 2025 तक ‘हिन्दू राष्ट्र’  कायम करना है। इसलिए पिछले साल भर से सरकार ने सीधे सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। स्वयं कानून मंत्री और उप राष्ट्रपति इस हमले का नेतृत्व कर रहे हैं। 
    इस समय भारत की न्यायपालिका अपने स्वतंत्र अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। 1973 व 1993 के फैसलों से उसने जो आजादी व वरीयता हासिल की थी वह खतरे में है। यह और भी ज्यादा खतरे में है क्योंकि हिन्दू फासीवादी स्वयं उसके भीतर अपने लोग बैठाने में कामयाब हो गये हैं। आज ढेरों न्यायाधीश सरकार की गोद में बैठने को तैयार हैं- सर्वोच्च न्यायालय के भी। 
    कभी सर्वोच्च न्यायालय की रूढ़िवादिता ने समाज में एक खास दिशा में परिवर्तन के रास्ते में बाधा पैदा की थी। आज उसकी वही रूढ़िवादिता हिन्दू फासीवादियों के रास्ते में बाधा बन रही है। पहले ने समाज को आगे जाने में बाधा पैदा की थी आज वह समाज के पीछे जाने में बाधा पैदा कर रही है। 
    पर हिन्दू फासीवादियों ने इतिहास से सबक लिया है। सर्वोच्च न्यायालय पर लगातार हमला करते हुए भी वे उस तरह का व्यवहार नहीं कर रहे हैं जैसे इंदिरा गांधी ने किया था। उन्होंने उदारवादी न्यायाधीश चन्द्रचूण को मुख्य न्यायाधीश बनने दिया जबकि इंदिरा गांधी ने केशवानन्द भारती फैसले के बाद तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों को किनारे लगाते हुए ए एन रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया था। विरोध में तीनों ने इस्तीफा दे दिया था। 
    हिन्दू फासीवादी ज्यादा महीन रास्ता अपना रहे हैं और वे कामयाब भी हैं। उनके मकसद के न्यायाधीशों की भरती हो रही है। उनकी पसंद के स्थानान्तरण हो रहे हैं। सरकार के लिए असुविधाजनक संवैधानिक मामले (धारा-370, सीएए कानून, चुनावी बाण्ड इत्यादि) लटके हुए हैं। दिन-रात निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक ऐसे फैसले आ रहे हैं जो संविधान के बुनियादी उसूलों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। हिन्दू फासीवादियों की मौज है। वे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से अपना भव्य राम मंदिर बना रहे हैं और इसका श्रेय मोदी सरकार को दे रहे हैं। 
    केशवानन्द भारती फैसले के मूल में थी सर्वोच्च न्यायालय की रूढ़िवादिता जो पूंजीवादी उदार विचारों की रक्षक के तौर पर सामने आई थी। आज वही रूढ़िवादिता एक ज्यादा खतरनाक मुहिम का सामना कर रही है और सारे संकेत यह दिखाते हैं कि यह अंततः टिक नहीं पायेगी। अंततः यह उसी तरह आत्मसमर्पण कर देगी जैसे हिटलर और मुसोलिनी के जमाने में समर्पण कर दिया था। यदि ऐसा नहीं होता है तो केवल इसीलिए कि देश की मजदूर-मेहनतकश जनता हिन्दू फासीवादियों के खिलाफ उठ खड़ी होगी और इस तरह पूंजीवादी जनतंत्र और उसके नियामक संविधान को तात्कालिक जीवनदान मिल जायेगा। 

आलेख

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