मणिपुर हिंसा : वर्तमान और अतीत

मणिपुर 3 मई से हिंसा, भीषण आगजनी, विस्थापन और दमन के साये में है। अब तक 60 से ज्यादा लोग नृजातीय (जनजातीय) हिंसा और इससे निपटने के नाम पर हो रहे दमन में मारे जा चुके हैं। 200 से ज्यादा लोग घायल हैं। 40 से अधिक चर्च व 1700 घर ध्वस्त किये जा चुके हैं। एक हजार से ऊपर हथियार पुलिस स्टेशन-ट्रेनिंग कैम्प से लूटे जा चुके हैं। 40 हज़ार से ज्यादा लोग शरणार्थियों की तरह कैम्पों में रहने को मजबूर हैं। सैकड़ों घर, दुकानें व अन्य संपत्तियां जला दी गयी हैं। नृजातीय हिंसा से निपटने के नाम पर मणिपुर संगीनों के साये में कैद है। इस कर्फ्यू में देखते ही गोली मारने का आदेश दिया गया है। इंटरनेट बंद हैं। ड्रोन, हेलीकाप्टर से निगरानी हो रही है। मुकदमेबाजी और गिरफ्तारियां लगातार हो रही हैं।
    

राज्य सरकार बर्खास्त नहीं है क्योंकि सरकार स्पष्ट बहुमत वाली भाजपा की है। बी जे पी की भाषा में यहां डबल इंजन की सरकार है। मणिपुर अब, अनुच्छेद 355 के तहत सीधे केंद्र सरकार और गृह मंत्रालय के नियंत्रण में है। काला आतंकी कानून ‘सशत्र बल विशेषाधिकार कानून’ के साये में मणिपुर कई दशकों से रहा है। 
    

सेना, असम राइफल्स, रैपिड एक्शन फोर्स, स्थानीय पुलिसकर्मियों के जरिये इस भीषण हिंसा पर नियंत्रण कायम किया जा रहा है।       
    

मणिपुर के वर्तमान हालात के लिए जो वजह बताई जा रही है वह मैती (मेइती) समुदाय के लोगों द्वारा खुद को एस टी (अनुसूचित जनजाति) में शामिल करवाने की मांग है। मेइती ट्राइब यूनियन ने इस मांग की याचिका हाईकोर्ट में लगाई। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से इस पर विचार करने को कहा। दरअसल मणिपुर में धारा 371 के तहत राज्य के बहुलांश पहाड़ी हिस्सों में सिर्फ आदिवासी ही बस सकते हैं। भाजपा सरकार ने हाईकोर्ट की मदद से मैतेई समुदाय को आदिवासी करार देकर पहाड़ों की भूमि तक मैतेई समुदाय की पहुंच बनाने का षड्यंत्र रचा था जिसको नागा, कूकी आदिवासियों ने अपने अधिकारों पर हमले के रूप में लिया और इसके खिलाफ संघर्ष में उतर पड़े।  
    

कहा जा रहा है कि इसके विरोध में तीन मई को नागा, कूकी आदि जनजाति के संगठन  ‘आल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन’ ने चुराचांदपुर में ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’ नाम से एक रैली निकाली। इस रैली के पहले अन्य वजहों से भी गुस्सा था। यह मार्च काफी हद तक शांतिपूर्ण था।  
    

यहां दो बातें कही जा रही हैं पहली कि जुलूस की वापसी के दौरान भाजपा के पूर्व युवा अध्यक्ष बरिश शर्मा भीड़ के साथ रैली में शामिल हुए। उन्होंने यहां छात्रों के साथ बहस की। शर्मा के नेतृत्व में ही चुराचांदपुर में एंग्लो-कुकी युद्ध शताब्दी द्वार को क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। इससे वहां मौजूद कुकी जनजाति उत्तेजित हो गई और हिंसा बढ़ गई। दूसरी मेइती (हिंदू समुदाय) के संगठन ‘अरम्बाई तम्बोल’ और ‘मेइती लीपम’ ने कूकी इलाकों में घरों पर, इस जुलूस के दौरान बम फैंके और आगजनी की। फिर इसकी प्रतिक्रिया में प्रतिरोध में हिंसा हुई। फिर मामला मेइती बनाम कूकी-नागा जनजाति संगठनों की भयानक हिंसा के रूप में सामने आया। सरकार पर आरोप हैं कि हिंसा को सरकार ने होने दिया जिसमें बड़े स्तर पर कूकी जनजाति को निशाना बनाया गया। बाद में इसे नियंत्रित करने की ओर सरकार बढ़ी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के किसी जाति को जनजाति में शामिल करने के निर्देश को गलत ठहरा दिया। 
    

भाजपा सरकार और मुख्यमंत्री ने इस हिंसा, आगजनी के लिए विभिन्न जनजातियों के बीच ‘पहले से मौजूद गलतफहमी’ को जिम्मेदार ठहराया। यह कथित ‘गलतफहमी’ किसने पैदा की, कौन इसे हवा दे रहा है यह किसके हित में है? ऐसी बातों पर पर्दा डालना शासकों के हित और फितरत में होती है। यही मुख्यमंत्री बिरेन सिंह ने भी किया।
    

इसके अलावा आदिवासी लोगों में इस वजह से भी आक्रोश था कि राज्य सरकार ने 7 नवम्बर 2022 को एक आदेश पारित कर चुरूचांदपुर खोपम वन क्षेत्र को संरक्षित घोषित कर 38 गांवों के आदिवासियों को अवैध कब्जे वाला घोषित कर दिया। 20 फरवरी 23 को एक गांव आदिवासियों से जबरन खाली भी करा लिया गया। मार्च से ही आदिवासी इस सरकारी कार्यवाही के खिलाफ लगातार संघर्षरत हैं। 
    

दरअसल एक ओर आदिवासियों को पहाड़ व जंगलों से हटाने व मैतेई लोगों को आदिवासी दर्जा दे उनकी पहाड़ी संसाधनों पर पहुंच बनाने के पीछे भाजपा सरकार की मंशा यहां के पहाड़ों-जंगलों की खनिज सम्पदा तक पूंजीपतियों की पहुंच सुनिश्चित करना भी है।  
    

दरअसल, पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर भी असम की ही तरह भाजपा की हिन्दू फासीवादी राजनीति की नई प्रयोगशाला बन गया है।
    

पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में विविध जनजाति समूह बड़े स्तर पर मौजूद हैं। यहां एक तरफ आर.एस.एस. लंबे समय से इनके कबीलाई, आदिवासी धार्मिक स्थिति का लगातार हिन्दुत्वकरण करने की मुहिम में जुटा हुआ है। दूसरी तरफ राज्य और केंद्र में भाजपा सरकार यहां के इतिहास के पुनर्लेखन सहित ‘हिन्दू राष्ट्र’ के एजेंडे के तहत अपने सभी दांव-पेंच पूर्वोत्तर के इन राज्यों समेत मणिपुर में भी जमकर इस्तेमाल कर रही है। इनके जनजाति समूहों के बीच के अंतर्विरोधों का इस्तेमाल कर इसे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का औजार बना रही है।
    

मणिपुर की स्थिति को देखा जाय तो यहां मेइती, नागा और कूकी जनजाति मुख्य तौर पर हैं। मेइती जनजाति के चार हिस्से हैं जिसमें एक हिस्सा जो कि सबसे ज्यादा है वे हिन्दू हैं। दूसरा हिस्सा पुराने कबीलाई धर्म से जुड़ा हुआ है, तीसरा हिस्सा इस्लाम धर्म से तो चौथा ईसाई धर्म से जुड़ा हुआ है। मेइती जनजाति के दोनों हिस्सों ने मुख्यतः हिंदू या इस्लाम धर्म सत्रहवीं-अठारहवीं सदी में स्वीकार किया। दूसरी ओर कूकी और नागा जनजाति को उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में अंग्रेजों की ईसाई मिशनरियों द्वारा ईसाई धर्म में ढाल दिया गया। मेइती जनजाति अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में नहीं है जबकि कूकी और नागा एस टी दायरे में हैं।
    

धार्मिक आधार पर देखें तो यहां लगभग 41 प्रतिशत हिंदू, 41 प्रतिशत ईसाई और 9 प्रतिशत मुस्लिम तथा 8 प्रतिशत सनामाही धर्म (मेइती जनजाति) व शेष अन्य धर्म के हैं।
    

मेइती समुदाय के लोग मणिपुर के इम्फाल घाटी वाले इलाके में रहते हैं। आबादी में इनका हिस्सा 53 प्रतिशत है। इम्फाल घाटी में 63 प्रतिशत आबादी रहती है। राज्य के कुल क्षेत्र का यह 10 प्रतिशत है राज्य की कुल खेती वाले क्षेत्र का यहां लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा भी है । 
    

कूकी/झोमी 16 प्रतिशत और नागा 24 प्रतिशत जनजाति समूह इम्फाल घाटी के चारों ओर की पहाड़ियों में रहते हैं। ये आबादी का 40 प्रतिशत हैं इनकी 31 उप जनजाति हैं। इस इलाके में बड़े पैमाने पर वन (जंगल) हैं। वन मणिपुर के कुल इलाके के 75 प्रतिशत से थोड़ा अधिक भाग में मौजूद हैं। 
    

यदि राज्य की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थिति को देखा जाय तो इसमें मेइती समुदाय का दबदबा है। राज्य की कुल 60 सीटों में से 40 सीटें घाटी वाले इलाके इम्फाल से हैं इसमें मेइती की हिस्सेदारी है। मेइती भाषा को राज्य भाषा का दर्जा हासिल है। 
    

एक ओर इम्फाल घाटी में, जनसंख्या के दबाव बढ़ने के साथ ही, रोजगार की स्थिति संकटग्रस्त होती गयी। इस स्थिति में मेइती समूह के लोगों में अनुसूचित जनजाति के दायरे में शामिल करने की मांग बढ़ने लगी। जबकि दूसरी ओर पहाड़ियों और घाटी के बीच असमान विकास और बुनियादी ढांचे में असमानता के खिलाफ, मणिपुर में नागा समूह और जनजातियों के कुकी-मिज़ो-चिन समूह का आक्रोश रहा है। 
    

जाहिर है आरक्षण की मांग को मेइती द्वारा पहाड़ी क्षेत्रों पर हावी होने के प्रयास के रूप में देखा गया। इसके अलावा आदिवासी समुदायों (नागा-कूकी आदि) को लगता है कि भारतीय जनता पार्टी जो राज्य में सत्ता में है, मैतेई लोगों को ‘‘हिंदुओं’’ के रूप में समर्थन देकर एक खतरनाक साम्प्रदायिक राजनीति खेल रही है, क्योंकि आदिवासी लोग मुख्य रूप से ईसाई हैं। इसी तरह घाटी में गिरजाघरों को जलाने और धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ने दिया गया है।
    

इसी का नतीजा यह भी है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 60 में से 32 सीट हासिल करके बहुमत हासिल कर लिया। जबकि 1996 में इसे 3-4 प्रतिशत वोट के साथ एक सीट हासिल हुई थी। 2017 में इसने नागा पीपल्स फ्रंट आदि के साथ मिलकर सरकार बनाई।
    

इस बढ़ते हिन्दू फासीवादी प्रभाव में ‘अरम्बाई तम्बोल’ और ‘मेइती लीपम’ नाम के आर एस एस और बजरंग दल जैसे संगठन बने या बनाये गए तो दूसरी ओर मेइती हिन्दू समुदाय के लिए   एस टी आरक्षण की मांग को हवा दी गयी। इसके अलावा कथित ‘अफीम की खेती’ और ‘नशे के कारोबार’ के नाम पर ‘पहाड़’ बनाम ‘घाटी’ के बीच नफरत की दीवार खड़ी की। इसके बाद पहाड़ में विशेषकर कूकी समुदाय से जुड़े लोगों को बेदखल करने की कोशिश हुई। 
    

इसके अलावा बर्मा में बर्बर दमन के बाद वहां से चिन (कूकी उप जनजाति) आबादी मिजोरम मणिपुर में आयी है। मिजोरम सरकार ने केंद्र सरकार से बातचीत करके चिन शरणार्थियों को सहायता प्रदान की है। लेकिन मणिपुर में, यह काफी हद तक कुकी-चिन-मिज़ो समुदाय हैं, जिन्होंने शरणार्थियों की देखभाल का भार उठाया है। 
    

हिन्दू फासीवादियों ने इसे भी ‘घुसपैठिये’ के रूप में चुपके से मुद्दा बनाया है। इसी की आड़ में मणिपुर में भी असम के तर्ज पर एन.आर.सी. करवाने के पक्ष में संघी संगठन माहौल बनवा रहे हैं। इसकी मांग अब कुछ मेइती संगठनों ने उठायी है।
    

लेकिन ये सभी मौजूदा साम्प्रदायिक हिंसा की तात्कालिक वजहें हैं। वास्तव में मणिपुर हिंसा, बर्बर राजकीय दमन की नीति के साये में कई दशकों से रह रहा है। 2004 की वह घटना, अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां बनी थी जब आर्मी के बर्बर दमन और मनोरमा बलात्कार व हत्याकांड के बाद पूरा मणिपुर आक्रोश में सुलग रहा था और भारतीय आर्मी के कार्यालय के सामने महिलाओं ने ‘भारतीय आर्मी आओ, हमारा बलात्कार करो’ नारे और बैनर के साथ नग्न प्रदर्शन किया था।
    

जिस मणिपुर की जनता, एक वक्त पहाड़ और घाटी, मेइती और कूकी-नागा का भेद किये बिना एकजुट और एकजान होकर लड़ रही थी, उसे शासकों ने अपने षड्यंत्र, दमन और खरीद-फरोख्त से एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया है। इसमें एक वक्त मुख्य भूमिका कांग्रेस ने निभाई तो बाद में भाजपा और संघ इसे नई ऊंचाई पर ले गए हैं। 
    

दरअसल मणिपुर का भी अपना इतिहास है। इसकी स्थिति कुछ हद तक जम्मू कश्मीर की ही तरह है। जिस तरह जम्मू कश्मीर के मामले में भारतीय पूंजीवादी शासकों ने ‘आत्मनिर्णय के अधिकार’ को रौंद दिया। वही कहानी मणिपुर की भी है।
    

मणिपुर उत्तर में नागालैंड, पश्चिम में असम और दक्षिण पश्चिम में मिजोरम और दक्षिण-पूर्व में म्यांमार (बर्मा) से घिरा हुआ है।
    

असम, सदियों से मणिपुर राज्य और भारतीय राज्य (मध्यकालीन भारत) के बीच एक बफर राज्य रहा था। मणिपुरी शासक और जनता भारतीयों को मायांग यानी विदेशी कहते थे। भारत के पास उपलब्ध सभी मानचित्र 1949 में विलय तक मणिपुर को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में दर्शाते हैं।
    

एक भी भारतीय (हिंदुस्तानी) राजा ने कभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मणिपुर पर शासन नहीं किया था।
    

मणिपुर को कभी मेइती (मैती) राज्य के नाम से जाना जाता था। यहां मंगोलियाई नस्ल के तीन प्रमुख जातीय समूह अर्थात्, (i) मैती (मेइती)  (ii) नागा और (iii) कुकी-चिन नस्लों (जाति) का राज्य रहा है। ये तिब्बती-बर्मन या चीनी-तिब्बती भाषा बोलने वाले 31 जनजाति समूह हैं जो मंगोलियाई पूर्वजों से अपनी सामान्य वंशावली मानती हैं, जो भारतीय लोगों से पूरी तरह अलग हैं।
    

जब भारत में अंग्रेज आये तो ये मणिपुर व बर्मा तक भी पहुंच गए। 1757 के प्लासी युद्ध में अंग्रेजों की जीत के 5 साल बाद मणिपुरी शासकों व अंग्रेजों के बीच एंग्लो-मणिपुरी संधि 1762 में हुई थी।  इस संधि को मणिपुर की जनता अपने स्वतंत्र, सार्वभौम राजनीतिक स्थिति का प्रमाण मानती रही है। 
    

1819 से 1826 के बीच बर्मा ने मणिपुर पर कब्जा कर लिया। इसके खिलाफ अंग्रेजों के साथ मणिपुरी शासक मोर्चा बनाकर लड़े। अंततः 1826 में समझौता हुआ। इसे यांडाबो या यंदाबू की संधि कहा जाता है। इसके तहत मणिपुर क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा काबा (या कूबो) घाटी को भी अंग्रेज शासकों ने बर्मा (अब म्यांमार) को सौंप दिया। इस घाटी में मेइती, कूकी, आदि जनजातियां रहती थीं। इसके एवज में मणिपुर शासकों को अंग्रेजों द्वारा 5000/- रुपये का वार्षिक राजस्व दिया जाता था।
    

यह राजस्व 1949 तक मणिपुर को मिलता रहा। भारत में जबरन विलय के बाद यह बंद हो गया।
    

यह मुद्दा 2020 में भी फिर उठा था। 19 मार्च 2020 को, लोकसभा में मणिपुर के सांसद  रंजन सिंह ने इस ‘भेंट’ (राजस्व) का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि मणिपुर ने 1826 यांडाबो संधि के तहत कबाव (कूबो) घाटी बर्मा को देने के एवज में मणिपुर को हर्जाना मिलता था और इसे फिर से या तो भारत सरकार को खुद या बर्मा से हासिल कर मणिपुर को देना चाहिए। 
    

खैर! उधर मार्च-अप्रैल 1891 में मणिपुर-अंग्रेज युद्ध हुआ। इसमें मणिपुरी शासक हार गए। इसके बाद, मणिपुर की जनता को पूरी तरह से निशस्त्र करके अंग्रेजों ने 1907 तक मणिपुर राज्य में सैन्य कब्जा कर लिया था। 
    

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 की धारा 7(1)(बी) के अनुसार मणिपुर की जनता ने भी मणिपुर को स्वतंत्र राष्ट्र (देश) के बतौर ही माना। इस दौर में मणिपुर में जनता का राजशाही के खिलाफ भी संघर्ष शुरू हो चुका था। 
    

मणिपुर के राजा महाराजा बोधिचंद्र सिंह ने 11 अगस्त 1947 को ‘यथास्थिति समझौता’ भारत की तत्कालीन ‘अंतरिम सरकार’ के साथ किया। इसमें रक्षा, विदेश मामलों और संचार मामले ही भारत की अंतरिम सरकार को देखने थे। मगर यह सरकार ‘भारत सरकार’ नहीं थी इसे 15 अगस्त 1947 तक कायम रहना था।  
    

इस बीच, जबकि 8 मई 1947 को मणिपुर का अपना संविधान बन गया और 27 जुलाई 1947 को यानी ‘भारत सरकार’ के गठन से पहले, यह संविधान लागू भी हो गया। 20 मई के कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में मणिपुर को स्वतंत्र माना गया। अब मणिपुर ने एक संवैधानिक राजतंत्र के साथ राज्य की एक लोकतांत्रिक सरकार स्थापित करने को 1947 का संविधान अपनाया। महाराजा को संवैधानिक प्रमुख माना गया। 53 सदस्यीय विधानसभा (संसद) चुनी गई। इसकी सलाह पर और बहुमत पर राजा काम कर सकता था। 
    

इस बीच महाराजा और अंतरिम भारत सरकार के बीच, 11 अगस्त 1947 को हुये समझौते को मणिपुर की सरकार यानी मणिपुर राज्य परिषद (संसद) ने कभी भी अनुमोदन नहीं किया था। यह ‘यथास्थिति समझौता’ मणिपुर की दृष्टि में अवैध था। खुद राजा बोधिचन्द्र ने भी मंत्री परिषद की बैठक में 14 अगस्त को व बाद में 28 अगस्त को मणिपुर के संप्रभु (खुद का नियंता) व स्वतंत्र देश होने की बात कही।  
    

अगस्त 1947 के बाद मणिपुर के शासकों पर आज़ाद भारत के शासक वर्ग की ओर से डोमिनियन एजेंट की जगह दीवान नियुक्त करने का दबाव बना। इस बीच कृषक सभा जो कि मणिपुर में (भारत की कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी हुई) काम कर रही थी, को मणिपुर में प्रतिबंधित कर दिया गया।
    

14 अप्रैल 1949 में मेजर जनरल रावल अमर सिंह को दीवान नियुक्त करने व शर्तों को मानने के लिए दो दिन का समय राजा बोधिचन्द्र को दिया गया। साथ ही सारी शक्ति दीवान को स्थानान्तरित करने का दबाव बनाया गया। 16 अप्रैल को राजा ने रावल अमर सिंह को मणिपुर का दीवान घोषित कर दिया। 28 अगस्त को सत्ताधारी चुने हुए प्रतिनिधियों ने भारत में जबरन विलय के विरोध में भारत सरकार को ज्ञापन दिया ।
    

18 सितंबर 1949 को विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए डाले जा रहे दबाव पर राजा ने कहा कि वह हस्ताक्षर करने की ताकत नहीं रखते क्योंकि सारी राजनीतिक शक्ति कानूनी रूप में जनता को हस्तांतरित हो चुकी है। मगर राजा जो इस वक़्त शिलांग में थे, उन्हें कैद कर लिया जाता है, संचार साधनों से काट दिया जाता है। 21 सितंबर 1949 को, इस उत्पीड़न व दमन की स्थिति में राजा विलय के दस्तावेज में हस्ताक्षर कर देता है। 15 अक्टूबर 1949 को मेजर अमर सिंह की अगुवाई में मणिपुर को, यहां की जनता के विरोध के बावजूद नियंत्रण में ले लिया जाता है। फिर मंत्रिमंडल और विधान सभा (संसद) को भंग कर दिया गया।
    

इस तरह मणिपुर की जनता के ‘आत्मनिर्णय के अधिकार’ को उन शासकों ने छीन लिया जो खुद ब्रिटिश हुकूमत से अपने ‘आत्मनिर्णय के अधिकार’ के लिए आज़ादी की मांग कर रहे थे। जो एक वक्त तक एक हद तक उत्पीड़ित, दमित थे; वे अपनी बारी में उत्पीड़क और दमनकारी बन गए। शासक पूंजीपतियों की यही नियति है। 
    

इस स्थिति के खिलाफ मणिपुर की जनता ने मणिपुर नेशनल पार्टी बनाकर 1949 से ही सशस्त्र संघर्ष की शुरुवात कर दी। इसे मणिपुर की राष्ट्रीयता की मुक्ति का संघर्ष कहा गया। मेइती, कूकी और नागा जनजाति जो मणिपुर की जनता थी उसने खुद को छला हुआ, अपमानित, उत्पीड़ित और दमित महसूस किया। इसने अपनी आवाज, यहां की घाटी से लेकर पहाड़ियों तक सशस्त्र मुक्ति संघर्ष में व्यक्त की। बाद में भारतीय शासक वर्ग ने छल, बल, बंटवारे और आत्मसात करके इस संघर्ष को कमजोर करने, फूट डालने, और इसकी दिशा बदलने में काफी हद तक कामयाब रहे। अब तो इसे साम्प्रदायिक रंग में ढालने में भी कामयाबी हासिल हुई है। 
    

मणिपुर की जनता का यह संघर्ष, भारतीय पूंजीवादी शासकों की नज़र में ‘उग्रवाद’ था, ‘अलगाववाद’ था। इसे नियंत्रित करने के लिए आर्मी लगाई गई। बाद में आतंकी दमनकारी कानून ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून’ यहां लागू कर दिया गया। इससे पहले 1972 में मणिपुर को राज्य (प्रांत) का दर्जा दिया गया। ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून’ 1980 में लागू होने के बाद डिस्टर्ब एरिया एक्ट के तहत फिर बड़े पैमाने पर दमन हुए। इसकी एक परिणति 2004 में महिलाओं के नग्न प्रदर्शन के रूप में दिखाई दी।
   

मौजूदा वक्त में जो भीषण हिंसा, आगजनी, विस्थापन हुआ है उसकी वास्तविक वजह मणिपुर के इतिहास यानी जबरन विलय और मुक्ति संघर्ष के दमन में हैं। मणिपुर की जनता के ‘आत्मनिर्णय के अधिकार का सम्मान न करना’ बल्कि उसे संगीनों के तले कुचलना है। 

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है