औरंगजेब और आधुनिक कट्टरपंथी

हिन्दू फासीवादियों के लिए औरंगजेब एक खास शख्स है। यह उनकी कल्पनाओं का ऐसा दुश्मन है जिस पर लगातार हमला करके वे आम हिन्दुओं को अपने पीछे गोलबंद करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने औरंगजेब की यह छवि गढ़ी है कि वह एक कट्टरपंथी मुसलमान शासक था जिसने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किये। उसने हजारों मंदिर तोड़े और उनकी जगह मस्जिदें बनवाईं। हिन्दू फासीवादियों के लिए औरंगजेब हिन्दुओं के ऊपर अत्याचार करने वाले मुसलमान शासकों का प्रतीक पुरुष है। 
    
ज्यादातर इतिहासकार हिन्दू फासीवादियों द्वारा औरंगजेब की इस गढ़ी हुई छवि से सहमत नहीं हैं। उदाहरण के लिए उनका कहना है कि यदि औरंगजेब ने मंदिर तोड़े तो उसने बनवाये भी। इन दोनों का कारण धार्मिक नहीं बल्कि राजनीतिक था।         जो भी हो, पर औरंगजेब के बारे में एक बात सच है। उसके दरबारियों में ऊंचे पदों पर हिन्दू भी थे। कहा जाता है कि मुगल शासकों के दरबारियों में हिन्दू राजाओं का अनुपात औरंगजेब के जमाने में सबसे ज्यादा था- करीब एक तिहाई। यानी औरंगजेब के शासन में उच्च पदों पर बैठे लोगों में हिन्दू करीब एक तिहाई थे। प्रसिद्ध है कि कैसे औरंगजेब ने शिवाजी को भी अपने दरबारियों में शामिल करने की कोशिश की थी। 
    
अब आज जरा औरंगजेब के शासन की तुलना उसे दिन-रात गाली देने वाले हिन्दू फासीवादियों के शासन से करें। आज के ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब से लेकर आज तक गुजरात में न तो भाजपा का एक भी मंत्री मुसलमान रहा और न ही विधायक। यह इस स्तर पर शत-प्रतिशत हिन्दुओं का शासन रहा है। इसी तरह जब से मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तब से लोकसभा में एक भी भाजपाई सांसद मुसलमान नहीं रहा है। आज केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में एक भी मुसलमान नहीं है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में भाजपा का एक भी विधायक मुसलमान नहीं है। यही नहीं, जब से मोदी सत्ता में आये हैं, तब से दूसरी पार्टियों के भी सांसदों-विधायकों में मुसलमानों की संख्या घटती गयी है। इस समय उनकी संख्या न्यूनतम है। 
    
अब जरा इस विरोधाभास पर गौर फरमाएं। ‘अत्याचारी’ औरंगजेब के शासन में हिन्दू उच्च अधिकारियों की संख्या मुगल शासकों में सबसे ज्यादा थी- करीब एक तिहाई। इसके बरक्स ‘सबका साथ, सबका विकास’ वाले शासन में मुसलमान मंत्रियों, सांसदों-विधायकों की संख्या न के बराबर है। लेकिन इस तथ्य के बावजूद हिन्दू फासीवादी औरंगजेब को एक कट्टर अत्याचारी मुसलमान शासक बताते हैं जबकि खुद को उदार और सहिष्णु घोषित करते हैं। 
    
सच्चाई यही है कि इतिहास वह नहीं था जो हिन्दू फासीवादी पेश करने का प्रयास करते हैं। मुसलमान शासकों के दौरान और उसके पहले भी सारा कुछ राजनीति से तय होता था, धर्म से नहीं। धर्म तो बस राजनीति में इस्तेमाल की चीज था। मुसलमान शासक एक-दूसरे से ज्यादा लड़ते थे। इसी तरह पहले के हिन्दू शासक भी राज-पाट के लिए एक-दूसरे से लगातार लड़़ते रहते थे। दोनों ही आम जनता को लूटते थे, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। 
    
पर हिन्दू फासीवादी इतिहास की इस सामान्य सी सच्चाई को नकार कर कट्टर मुसलमान शासकों का ऐतिहासिक हौव्वा खड़ा करते हैं जिससे वे स्वयं की कट्टर हिन्दूवादी परियोजना को परवान चढ़ा सकें। वे अपनी स्वयं की कट्टरता को दूसरों में आरोपित करते हैं। वे दूसरों को वह दिखाने का प्रयास करते हैं जो वे स्वयं हैं। 
    
यह पाखंड या दोगलापन तो है ही, इससे भी ज्यादा यह एक सोची-समझी राजनीतिक चालबाजी है।  

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है