एम एस स्वामीनाथन और हरित क्रांति

मनकोम्बु सम्बासिवान स्वामीनाथन अथवा एम एस स्वामीनाथन का बीते 28 सितम्बर को निधन हो गया। वे 98 साल के थे। वे भारत में तथाकथित हरित क्रांति के जनक माने जाते थे। पिछले कुछ सालों में उनकी ज्यादा चर्चा न्यूनतम समर्थन मूल्य के संबंध में थी क्योंकि 2004 में उनकी अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय किसान आयोग ने ही यह प्रस्तावित किया था कि फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य कुल लागत में पचास प्रतिशत और जोड़ कर तय किया जाना चाहिए। पिछले किसान आंदोलन की यह एक प्रमुख मांग थी। 
    
एम एस स्वामीनाथन पेशे से एक कृषि वैज्ञानिक थे। वे तमिलानाडु के एक धनी जमींदार खानदान के थे जिनके पास पुश्तैनी दो हजार एकड़ जमीन थी। कहा जाता है कि उन्होंने अपनी एक तिहाई जमीन भूदान आंदोलन में दान कर दी थी। उन्होंने विदेशों में पढ़ाई की और फिर भारत लौटकर यहां के कृषि अनुसंधान संस्थान में लग गये। 
    
1960 का दशक भारत में तीखे खाद्यान्न संकट का समय था। देश की एक बड़ी आबादी के लिए भुखमरी के हालात थे। अनाज के लिए तब बड़े-बड़े आंदोलन हो रहे थे तथा कई बार खाद्यान्न दंगों की भी नौबत आ जाती थी। सरकार ने अनाज के लिए राशन की व्यवस्था लागू कर दी थी। दुकानों पर अनाज की खरीद-बेच तथा अनाज के यहां से वहां ले जाने पर भी काफी सरकारी नियंत्रण था। देश में अनाज की इस किल्लत के चलते सरकार को सं.रा. अमेरिका से काफी खराब शर्तों पर गेहूं का आयात करना पड़ता था। 
    
देश में इन हालात में इस बात पर काफी चर्चा और बहस थी कि इस स्थिति से कैसे पार पाया जा सकता था। एक ओर कम्युनिस्ट थे जो बड़े पैमाने के भूमि सुधार (खासकर भूमि वितरण) तथा सरकारी और सामूहिक खेती की वकालत कर रहे थे तो दूसरी ओर वे थे जो पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों से आ रही तकनीक आधारित निजी खेती की वकालत कर रहे थे। 
    
यहां यह याद रखना होगा कि कांग्रेस पार्टी ने आजादी से पहले किसानों से यह वायदा किया था कि वह आजादी के बाद बड़े पैमाने का भूमि सुधार लागू करेगी। ज्यादातर किसानों के लिए इसका मतलब था जमीन पर किसान का मालिकाना। किसान तब न केवल आबादी की बहुसंख्या थे बल्कि आजादी की लड़ाई की रीढ़ भी थे। 
    
लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी अपने वादे से मुकर गई। उसने जो भूमि सुधार लागू किया उससे देश में जमींदारी व्यवस्था तो खत्म हो गयी पर जमीन पुराने मालिकों के पास बनी रही। जमीन का वितरण न के बराबर हुआ। कांग्रेस पार्टी गाहे-बगाहे सहकारी खेती की बात करती रही पर व्यवहार में इसका कोई मतलब नहीं था। अपने वादे से मुकरने को जवाहर लाल नेहरू ने यह कहकर जायज ठहराया कि जमीनों के बड़े पैमाने पर पुनर्वितरण से जो अराजकता पैदा होती उसे संभाला नहीं जा सकता था। आसान भाषा में इसका मतलब यह था कि इससे ऐसी क्रांति शुरू हो जाती जो स्वयं कांग्रेस पार्टी की पूंजीपतियों-भूस्वामियों की सरकार का तख्ता पलट देती। तब सारी दुनिया में इसे लाल क्रांति यानी ‘रेड रिवोल्यूशन’ के नाम से जाना जाता था जो कम्युनिस्टों के नेतृत्व में होती थी। भारत में भी इसका खतरा था क्योंकि देश में तब एक मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी थी जिसे करीब दस प्रतिशत वोट मिलते थे। खाद्यान्न आंदोलन में भी यह पार्टी बढ़-चढ़ कर नेतृत्व दे रही थी। हालांकि तब तक इसके नेता सुधार के रास्ते पर चल पड़े थे पर कार्यकर्ता अभी भी क्रांति चाहते थे और पूंजीपति वर्ग सारी दुनिया में एक मजबूत कम्युनिस्ट आंदोलन की मौजूदगी से काफी भयभीत था। 
    
भारत जैसी ही स्थितियां कमोबेश दुनिया भर में नये आजाद हो रहे देशों में भी थीं। सब जगह लाल क्रांति का खतरा मौजूद था। ऐसे में साम्राज्यवादी देश ऐसे रास्ते की तलाश में थे जिससे नये आजाद हो रहे देशों को लाल क्रांति के रास्ते पर जाने से बचाया जा सके। सं.रा.अमेरिका तब साम्राज्यवादी दुनिया का बेताज बादशाह था। उसकी सरकार से लेकर दानदाता संस्थाएं तक दुनिया को लाल क्रांति के रास्ते पर जाने से रोकने के लिए हर संभव कोशिश कर रही थीं। 
    
इन्हीं कोशिशों के तहत ही राकफेलर फाउंडेशन के तत्वाधान में नार्मन वरलाग नामक एक कृषि वैज्ञानिक ने मैक्सिको में गेहूं की बौनी किस्मों का अपना प्रयोग शुरू किया जिनकी उपज ज्यादा होनी थी। कुछ सालों के प्रयोग के बाद वरलाग ऐसी किस्में पैदा करने में कामयाब हो गया। बस इनके लिए रासायनिक खाद और कीटनाशक की जरूरत होती थी। नार्मन वरलाग की इस सफलता को हरित क्रांति का नाम दिया गया। स्पष्ट ही यह नाम लाल क्रांति के बरक्स दिया गया था। 
    
हरित क्रांति कृषि समस्या का, खासकर तब दुनिया भर को परेशान कर रही खाद्यान्न संकट की समस्या का एक तकनीकी समाधान था। यह बड़े पैमाने की खेती तथा सिंचाई की सुविधा को मानकर चलता था। यानी बड़ी जमीनों के मालिक तथा सिंचाई की व्यवस्था इसके लिए जरूरी थे। यानी यह जमीनों के बंटवारे के ठीक विरोध में था जिससे खेतों का आकार छोटा हो जाना था। यह फसलों की नयी संकर किस्मों पर आधारित था जिन्हें काफी बड़े पैमाने पर रासायनिक खाद की जरूरत पड़ती थी तथा जिन्हें कीड़े-मकोड़ों से बचाने के लिए कीटनाशक जरूरी थे। नयी किस्में होने के चलते इन्हें कीड़े-मकोड़ों का ज्यादा खतरा था। अब चूंकि खेती बड़े पैमाने की होनी थी तो इसके लिए खेती की मशीनरी की भी जरूरत पड़नी थी- ट्रैक्टर, कम्बाइन, इत्यादि। 
    
यह हरित क्रांति, जो तकनीक पर आधारित थी, अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए बहुत काम की थी। सबसे बड़ी बात तो यही थी कि यह दुनिया को लाल क्रांति से बचाती थी। यह छोटे-छोटे किसानों पर नहीं बल्कि बड़े धनी किसानों और भू-स्वामियों पर आधारित थी यानी देहात के धनी-मानी तत्वों पर। दूसरे, इससे अमेरिकी कंपनियों को भारी फायदा होना था क्योंकि संकर बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशक तथा खेती की मशीनों में अमेरिकी कंपनियां ही अग्रणी थीं। इसीलिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जोर-शोर से सारी दुनिया में हरित क्रांति का प्रचार शुरू कर दिया। 
    
मैक्सिको के बाद भारत-पाकिस्तान हरित क्रांति के प्रयोग के नये क्षेत्र बने। उस समय के कृषि मंत्री चिदम्बरम सुब्रमणियम तथा एम.एस.स्वामीनाथन इसके दो प्रमुख नेता थे- एक राजनीतिक तौर पर और दूसरा वैज्ञानिक तौर पर। 
    
कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकार के लिए हरित क्रांति एक तरह से मुंह मांगी मुराद थी। वे भूमि सुधार से, खासकर भूमि वितरण से किसी भी तरह बचना चाहते थे। वैसे भी प्रदेश स्तर पर कांग्रेस के ज्यादातर नेता या तो स्वयं ही बड़े भू-स्वामी थे या फिर उनसे जुड़े हुए थे। हरित क्रांति ने इन सभी के लिए रास्ता खोल दिया। 
    
भारत में हरित क्रांति के लिए पहले पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का क्षेत्र चुना गया। इन इलाकों में सिंचाई की सुविधा थी। खेतों का आकार भी यहां अपेक्षाकृत बड़ा था। आयातित बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशकों तथा मशीनरी से जो हरित क्रांति 1960 के दशक के उत्तरार्ध में शुरू की गई उसने 1970 के दशक की शुरूआत से फल देना शुरू कर दिया। गेहूं-धान की उपज बढ़़ने लगी। देश धीमे-धीमे खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने लगा। चूंकि 1950 के दशक से देश भारी खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था, इसलिए इसे भारी सफलता माना गया। हरित क्रांति का चारों ओर गुणगान होने लगा। 
    
समय के साथ हरित क्रांति का देश के अन्य हिस्सों में भी प्रसार हुआ, उन हिस्सों में भी जिनमें खेतों का आकार अपेक्षाकृत छोटा था। यह प्रक्रिया किसी हद तक आज भी जारी है। 
    
लेकिन जहां देश के अन्य क्षेत्रों में हरित क्रांति का प्रसार हो रहा था वहीं हरित क्रांति के पुराने क्षेत्रों में इसकी सीमा उजागर हो रही थी। यही नहीं, इसके हानिकारक पहलू भी सामने आ रहे थे और वे समय के साथ गहराते गये। 
    
हरित क्रांति के सबसे पहले और सबसे सफल क्षेत्र पंजाब में यह सीमा 1980 के दशक में उजागर हो गई। पाया यह गया कि उतनी ही उपज के लिए अब ज्यादा खाद और कीटनाशक की जरूरत पड़ रही थी। ज्यादा खाद इत्यादि उसी अनुपात में उपज को नहीं बढ़ा रहे थे। यही नहीं, ज्यादा सिंचाई तथा रासायनिक खाद, इत्यादि के इस्तेमाल से खेती की उर्वरता नष्ट हो रही थी, उसका क्षारीकरण हो रहा था। केवल गेहूं-धान के चक्र के कारण भी खेती की प्राकृतिक उर्वरता पर बुरा असर पड़ रहा था तथा इसकी भरपाई के लिए ज्यादा रासायनिक खाद का इस्तेमाल अपनी बारी में समस्या को और बढ़ाता था। जहां नहरें थीं वहां जमीन का क्षारीकरण हो रहा था और जहां सिंचाई पम्पसेट से हो रही थी वहां भूगर्भीय पानी का तल और नीचे जा रहा था जो लागत को बढ़ाता था। हरित क्रांति की ये सीमाएं और समस्याएं अन्य क्षेत्रों में भी सामने आईं। 
    
हरित क्रांति की इन सीमाओं और समस्याओं के चलते स्वयं पूंजीवादी दायरों में भी इसके विकल्प का सवाल उठने लगा। सवाल में एक आयाम यह भी जुड़ गया था कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी जमीनों के बंटवारे से खेतों का आकार छोटा होता जा रहा था जबकि तकनीक आधारित हरित क्रांति खेतों के बड़े आकार की मांग करती थी। 
    
हरित क्रांति के विकल्पों पर बात करने वालों में स्वयं एम एस स्वामीनाथन भी थे। उन्हें अपने विचारों को नीति के तौर पर प्रस्तावित करने का एक अच्छा मौका तब मिला जब वे राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष बने। 
    
हरित क्रांति न केवल तकनीक पर आधारित थी बल्कि वह खेती को बाजार के हवाले करती थी। खेती की आगत को बाजार से आना था और उपज को बाजार में जाना था। यानी यह खेती का पूंजीवादीकरण था। राष्ट्रीय किसान आयोग ने हरित क्रांति के संकट का जो समाधान सुझाया वह भी इसी बाजार पर आधारित था। बस वह कुछ ऐसी तकनीकों की बात करता था जो खेती के छोटे आकार के लिए कारगर हो सकते थे। सिंचाई की नयी तकनीक (स्प्रिंकलर, इत्यादि), फल-फूल की खेती, जैविक खेती, इत्यादि की सारी बातों का यही मतलब थ। एम.एस.स्वामीनाथन के नेतृत्व में राष्ट्रीय किसान आयोग ने जो कुछ भी प्रस्तावित किया उसने न केवल हरित क्रांति की अंतिम असफलता को रेखांकित किया बल्कि इसे भी रेखांकित किया कि अब शासक वर्ग को खेती के संकट का कोई समाधान नहीं सूझ रहा है। एस एस स्वामीनाथन का ‘सदाबहार हरित क्रांति’ (एवरग्रीन रिवोल्यूशन) का नारा महज जुमला भर था। 
    
हरित क्रांति की अंततः विफलता तथा ‘सदाबहार हरित क्रांति’ के जुमले ने साबित किया पूंजीवाद के भीतर बुनियादी समस्याओं का कोई तकनीकी समाधान महज मरहम भर होता है। वह वास्तविक समाधान नहीं होता। आज देश में खेती की सारी समस्याएं चीख-चीख कर कह रही हैं कि खेती का सामूहिकीकरण ही एकमात्र विकल्प है। एक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था के तहत सामूहिक खेती ही खेती के छोटे रकबे से लेकर जमीन की उर्वरता के नष्ट होते जाने की समस्या से निपट सकती है। लेकिन पूंजीवादी दायरे में कैद होने के कारण स्वामीनाथन इस नतीजे तक नहीं पहुंच सकते थे। वे पूंजीवाद की बाजार व्यवस्था के तहत ही इसका समाधान ढूंढ सकते थे, बस इस बाजार को छोटे उत्पादकों (छोटे-मझोले किसानों) का ध्यान रखना था।        
    
तब भी यह कहना होगा कि स्वामीनाथन बड़ी पूंजी के उस तरह के गुलाम नहीं थे जैसा आजकल सरकारी दायरे के सारे लोग हैं। उन्हें छोटे-मझोले किसानों की भी कुछ चिन्ता थी। उन्हें पर्यावरण की भी कुछ चिंता थी। उन्हें खेती-किसानी से लगाव था। यह सब उनकी ‘सदाबहार हरित क्रांति’ की धारणा में देखा जा सकता है। इसीलिए उन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए एक ऐसा सूत्र प्रस्तावित किया जो सरकारी दायरे में किसी को स्वीकार नहीं है, न तो कांग्रेसियों को और न भाजपाईयों को। लेकिन ठीक इसी कारण वे आज किसानों में लोकप्रिय हैं और हर सचेत किसान स्वामीनाथन रिपोर्ट की बात करता मिल जाता है। 
    
आज भारत का बड़ा पूंजीपति वर्ग भारतीय खेती की समस्या का समाधान खेती के कारपोरेटीकरण में देखता है। वह उसे खेती-किसानी के ठेकाकरण तथा उसे पूरी तरह बाजार के हवाले करने के जरिये हासिल करना चाहता है। स्वामीनाथन इस समाधान के प्रति बहुत उत्साहित नहीं थे। इसी कारण उनके निधन पर शासक वर्गीय दायरों में उनकी कोई खास चर्चा नहीं हुई। यह कोई छोटी बात नहीं है, यदि इस बात को ध्यान में रखा जाये कि स्वामीनाथन भारत में हरित क्रांति के जनक माने जाते थे और यह हरित क्रांति ही थी जिसने पूंजीवाद के दायरे में भारत को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाया और भारतीय शासकों को विदेशों में अनाज के लिए हाथ फैलाने से बचाया। 

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है