नफरत, दंगे, नरसंहार में मीडिया की भूमिका

मीडिया को आम तौर पर आम जनता अपनी समस्या के समाधान के तौर पर देखती रही हैं। लोगों का मानना होता था कि अगर हम अपनी समस्या मीडिया के सामने लेकर जाएंगे तो मीडिया उसको उजागर करेगा। और फिर जिसकी वजह से वह समस्या पैदा हुई है वह व्यक्ति या संस्था अपनी बदनामी या कानूनी कार्रवाई के डर से उस समस्या का समाधान कर देगा/देगी।
    
इन्हीं तमाम वजहों से मीडिया का एक कद हुआ करता था। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी कहा जाता था। लेकिन वर्तमान मीडिया अपनी पुरानी पहचान व साख और जिम्मेदारी छोड़ पूरी तरह पूंजीपति और शासक वर्ग के सामने नतमस्तक हो चुका है। मुख्यधारा का मीडिया अपनी बेशर्मी की सारी हदें पार कर शासक वर्ग के एजेण्डे के तहत साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने के काम में लगा हुआ है।
    
वर्तमान में मीडिया को दो रूपों में देखा और समझा जा सकता है। एक मीडिया जो विपक्ष की भूमिका निभा रहा है, दूसरा जो सत्ता पक्ष की भूमिका निभा रहा है। विपक्ष के मीडिया की पहुंच और क्षमता उतनी नहीं जितनी सत्ता पक्ष वाले मीडिया की है। सत्ता पक्ष वाले मीडिया को सत्ता का संरक्षण मिला हुआ है। सत्ता पक्ष वाला मीडिया पूरी बेशर्मी के साथ अमानवीय और असंवेदनशील होकर सत्ता की जुबान बनकर प्रचार कर रहा है। सत्ता पक्ष से सवाल न कर विपक्ष से सवाल करता है, उसी  को कटघरे में खड़ा कर रहा है। यह मीडिया  मेहनतकश जनता पर भी हमला कर रहा है। सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही पर सवाल न करके उल्टा जनता को ही अपराधी के रूप में प्रचारित कर रहा है। मेहनतकश जनता जिसमें मजदूर, किसान, छात्र आदि के विरोध को भी अपराध की श्रेणी में ला दे रहा है। यह मीडिया इन मेहनतकशों की आवाज को सुनने के बजाय सरकार के पक्ष को जोरदार तरीके से जनता के सामने रखता है। इस प्रकार मीडिया सरकार को सही और आम मेहनतकश जनता को गलत ठहरा दे रहा है।
    
सत्ता का संरक्षण प्राप्त मीडिया ने अतीत में भी ऐसे अनेकों नरसंहारों में अपनी अहम भूमिका निभाई है। जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ हिटलर और उसके नाजीवादी समर्थकों द्वारा फैलाई नफरत में इस मीडिया ने आग में घी डालने का काम किया। और उसका परिणाम हम सब जानते हैं कि कितनी बड़ी तादाद में यहूदियों का हिटलर और उसके  समर्थकों और उसकी पूरी राज्य मशीनरी द्वारा कत्लेआम किया गया। ऐसे ही अलग-अलग दौर में हर देश में मीडिया के द्वारा नफ़रत का माहौल बनाया गया।
    
अतीत में मीडिया की ही मेहरबानी थी कि रवांडा में 1994 में सौ दिनों में लगभग दस लाख लोगों का नरसंहार किया गया था। रवांडा में मुख्य रूप से हुतू और तुत्सी समुदायों के बीच नफरत लम्बे समय से चली आ रही थी। वहां के राष्ट्रीय रेडियो स्टेशन ‘आर टी एल एम’ और कंगूरा नाम की पत्रिका ने नरसंहार में भूमिका निभाई। रेडियो पर पूरे नरसंहार की योजना बनाई गई और उसका प्रसारण किया गया। इस रेडियो ने तुत्सी समुदाय को रवांडा के लिए खतरा बताया और कहा कि ये हमारे देश में कोकरोचों की तरह बढ़ रहे हैं, इनका सफाया जरूरी है, इस तरह का कुप्रचार किया गया। फिर 1994 में रवांडा के राष्ट्रपति की विमान हमले में मौत के बाद रवांडा की नदी-नाले, शहर और गांव की गलियां तुत्सी समुदाय की लाशों व ख़ून से पटी पड़ी थीं।
    
भारत में भी ऐसे ही प्रचार तंत्र ने अनेकों बार नरसंहारों को कराने में अहम भूमिका निभाई है। मीडिया यह भूमिका वर्तमान समय में भी निभा रहा है। भारत के मीडिया चैनलों का प्रबंधक बहुसंख्यकवाद से ग्रसित हो कर सरकार से संरक्षण पाकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ दिन-रात हिंसात्मक तरीकों से नफरती बहसों को अपने टीवी चैनलों पर आयोजित करते हैं। ये तब भी हो रहा है जब सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी धार्मिक नफरती बहसों या बयानों पर सरकारों से रोक लगाने के लिए कहा है। लेकिन मुख्य धारा के मीडिया संस्थान हिन्दू-मुस्लिम का जहर अपने टीवी चैनलों से फैलाने से बाज नहीं आ रहे हैं।
    
मीडिया अपने मूल कार्य को त्याग सत्ता का पक्षधर होकर साम्प्रदायिकता के रंग में अपने आपको रंग रही हैं। समाज में शांति सौहार्द बनाने या बिगाड़ने में मीडिया की अहम भूमिका बन जाती है। ये मीडिया ही है जो एक-दूसरे के खिलाफ नफरत फैलाता है और एक-दूसरे के खिलाफ हाथों में हथियार उठाने के लिए उकसाता है। लेकिन दूसरी तरफ आम मेहनतकश जनता भी इस तरह के नफरती प्रचार को समझने लगी है। अब स्वतन्त्र जनपक्षधर मीडिया मुख्य धारा के मीडिया के विकल्प के तौर पर उभर कर सामने आ रहा है और नफरती प्रचार को चुनौती दे रहा है। आम मेहनतकश जनता को भी चाहिए कि वह इस नफरती मीडिया के जहरीले प्रचार का जवाब ऐतिहासिक, तार्किक आधार पर देने का काम करें।       -एक पाठक
 

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