इजरायल-गाजापट्टी संघर्ष किधर जा रहा है!

7 अक्टूबर को गाजापट्टी से हमास संगठन के लड़ाकुओं ने इजरायल पर एक बड़़ा हमला बोल दिया। इस हमले में उन्होंने इजरायल द्वारा खड़ी की गयी बाड़ेबंदी को तोड़ दिया। जमीन से, हवा से और समुद्र के रास्ते से किया गया यह हमला अचानक था। इसके बाद इजरायल की दक्षिणपंथी यहूदी नस्लवादी हुकूमत बौखला गयी। बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार ने गाजापट्टी की फिलिस्तीनी आबादी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। तब से गाजापट्टी पर लगातार इजरायल द्वारा बमबारी की जा रही है। वहां मिसाइलों से हमला किया जा रहा है। रिहाइशी इलाके ध्वस्त किये जा रहे हैं। हमास को खत्म करने के नाम पर बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को निशाना बनाया जा रहा है। बेंजामिन नेतन्याहू ने गाजापट्टी को खाक में मिला देने की धमकी दी है। 
    
गाजापट्टी एक छोटा सा फिलिस्तीनी इलाका है। इजरायल ने इसकी तीन तरफ से नाकाबंदी कर रखी है। यह नाकाबंदी 2007 से जारी है। 2007 से हमास नामक इस्लामी संगठन वहां शासन कर रहा है। इजरायल ने फिलिस्तीन के क्षेत्र को तीन हिस्सों में बांट रखा है। ये क्षेत्र विशेष तौर पर गाजा पट्टी और पश्चिमी किनारा एक दूसरे से कटे हुए क्षेत्र हैं। तीसरा क्षेत्र पूर्वी येरूशलम का है। पूर्वी येरूशलम में अल अक्सा मस्जिद है। इसके अतिरिक्त फिलिस्तीनी आबादी इजरायल के भीतर भी रहती है। हमास संगठन इजरायल द्वारा कब्जा किये गये फिलिस्तीनी इलाकों से मुक्ति की लड़ाई लड़ रहा है। यह इजरायल की कब्जाकारी सत्ता के विरुद्ध हथियारबंद कार्रवाइयां करता रहा है। इससे अलग पश्चिमी किनारे में अल फतह नामक संगठन की सत्ता है जिसके अगुवा मोहम्मद अब्बास हैं। मोहम्मद अब्बास की सत्ता इजरायल के साथ तालमेल बनाकर काम करती है। लेकिन पश्चिमी किनारे में इजरायल लगातार अपनी यहूदियों की बस्तियां बसाता जा रहा है। यहां इजरायल ने फिलिस्तीनियों के गांवों से फिलिस्तीनी आबादी को उजाड़कर उनके खेतों पर जबरन कब्जा करके और जैतून के बागों को नष्ट करके यहूदी बस्तियां बसाना जारी रखा हुआ है। इसका विरोध करने पर फिलिस्तीनी लोगों पर इजरायली सशस्त्र बलों के समर्थन से वहां बसने वाले यहूदियों के हथियारबंद दस्ते हमला करते रहते हैं और उनको जेलों में डाला जाता रहता है। यह प्रक्रिया इजरायल के गठन के समय से ही जारी है। फिलिस्तीनियों को उजाड़कर उनकी जमीन पर इजरायली राज्य की 1948 में स्थापना की गयी थी। उस समय करीब 7 लाख फिलिस्तीनियों को अलग-अलग क्षेत्रों में शरणार्थी बनने को मजबूर किया गया था। इसे फिलिस्तीनी लोग नक्बा (महाविनाश) की संज्ञा देते हैं। तब से फिलिस्तीनी लोग अपने लिए एक स्वतंत्र देश की हैसियत बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। पहले फिलिस्तीनी लोगों के मुक्ति संघर्ष को अरब देशों के शासकों का समर्थन प्राप्त था। इसको लेकर कई अरब-इजरायल युद्ध हुए। इन युद्धों में अमरीकी साम्राज्यवाद की पूरी ताकत इजरायल के साथ थी। इन युद्धों के बाद इजरायल ने न सिर्फ फिलिस्तीन के और इलाकों में कब्जा कर लिया बल्कि मिस्र, सीरिया और लेबनान के कुछ इलाकों पर भी कब्जा कर लिया। इसके बाद अरब देशों के शासक फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष का समर्थन करने से पीछे हटते गये। लेकिन फिलिस्तीन की आबादी अपना मुक्ति संग्राम चलाती रही। इन्हीं संघर्षों की बदौलत ही ओस्लो समझौता हुआ जिसके तहत कुछ अधिकार प्राप्त फिलिस्तीन प्राधिकार की स्थापना हुई जिसे आगे चलकर पूर्ण स्वतंत्र राज्य का दर्जा देने की बात की गयी थी। फिलिस्तीन प्राधिकार को पूर्णतया इजरायली राज्य के रहमोकरम पर निर्भर करना था। इस ओस्लो समझौते को हमास ने कभी स्वीकार नहीं किया। फिलिस्तीन की आबादी के काफी बड़े हिस्से को इसके लागू होने पर शक था। उनका शक सच साबित हुआ। इजरायल की यहूदी नस्लवादी सत्ता की औपनिवेशिक, कब्जाकारी और उत्पीड़नकारी नीतियों और कदमों के विरुद्ध संघर्ष चलते रहे। इंतिफादा-1 और इंतिफादा-2 लम्बे समय तक चलने वाले ये संघर्ष थे। 
    
फिलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष को इस्लामिक कट्टरपंथ की ओर मोड़ने का काम हमास ने किया। 1987 में पहले इंतिफादा के वक्त जन्मे इस संगठन का तब जनाधार नाम मात्र का था। पर कालांतर में फिलिस्तीन मुक्ति संगठन के संघर्ष से मुंह मोड़ने, फिलिस्तीनी अथारिटी के भ्रष्टाचार आदि ने हमास के जनाधार को बढ़ाया क्योंकि फिलिस्तीनी जनता की मुक्ति की आकांक्षा कभी खत्म नहीं हुई। फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष को भटकाने के एक औजार के बतौर हमास को आगे बढ़ाने में इजरायली-अमेरिकी शासक भी पर्दे के पीछे से सक्रिय रहे। 2007 से यह संगठन गाजापट्टी में शासनरत है। इजरायली शासकों के फिलिस्तीनी इलाके हड़पने के आतंकी प्रयासों के जवाब में हमास जब तब इजरायल पर राकेट-मिसाइलें बरसा प्रत्युत्तर देता रहा है। जिसका इस्तेमाल कर इजरायली शासक गाजापट्टी पर और बड़े हमले करते रहे हैं व अपने इन हमलों को आत्मरक्षा में बताने का पाखण्ड करते रहे हैं। 
    
कोई भी गुलाम कौम, उत्पीड़ित कौम अपने उत्पीड़कों के विरुद्ध संघर्ष करने का स्वाभाविक हक रखती है। यह सिर्फ उसका हक ही नहीं, उसका दायित्व भी है। फिलिस्तीन के गाजापट्टी इलाके को 2007 से इजरायल ने एक खुली जेल में तब्दील कर रखा है। गाजापट्टी करीब 41 किमी. लम्बा और 10 किमी. चौड़ा क्षेत्र है। यहां की आबादी 23 लाख है। 2007 से एक खुली जेल में 23 लाख आबादी रहती है। यह दुनिया का सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र है। लोग भयानक गरीबी में रहते हैं। करीबन 60 प्रतिशत नौजवानों के पास कोई रोजगार नहीं है। ईंधन, पानी, बिजली, दवायें और खाने की जरूरतों के लिए इन्हें इजरायल के रहमोकरम पर निर्भर रहना पड़ता है। 
    
इस हमले के बाद, इजरायल ने बिजली, पानी, ईंधन, दवाओं और खाद्य सामग्री की आपूर्ति पूरी तरह से काट दी है। पहले से ही यहां के लोगों की हालत बहुत खराब थी, अब तो अस्पतालों में दवायें नहीं हैं। इजरायली बमबारी में घायलों के लिए इलाज में भारी रुकावटें पैदा हो गयी हैं। यह दो गैर बराबर ताकतों के बीच का युद्ध है। एक तरफ कुछ हजार लोगों की मिलिशिया है और दूसरी तरफ लाखों प्रशिक्षित सैनिकों की एक आधुनिक फौज है। यह समूचे पश्चिमी एशिया के इलाके की आधुनिक और ताकतवर फौज मानी जाती है। इसके साथ ही इजरायल एक आणविक हथियारों से लैस देश है। इसके बावजूद यदि इजरायल के भीतर घुसकर, उसके मोसाद जैसे खुफिया तंत्र को भेद कर और ‘आयरन डोम’ जैसे मिसाइल विरोधी प्रणाली के रहते हुए हमास के लड़ाकू इजरायल के भीतर तक प्रहार कर रहे हैं तो इसे अपनी आजादी के लिए सब कुछ कुर्बान करने की फिलिस्तीनी जनता की भावना और जोश से ही समझा जा सकता है। 
    
दूसरी तरफ, दक्षिणपंथी यहूदी नस्लवादी सत्ता है जो फिलिस्तीनी लोगों को दो टांगों वाला जानवर समझती है, जो लगातार उनके नौजवानों का कत्ल करती है, जो जेलों के अंदर लोगों को यातनायें देकर अपाहिज और अपंग बनाती है; ये आतताई हैं, उत्पीड़क हैं और इन उत्पीड़कों के विरुद्ध फिलिस्तीनियों का संघर्ष न्यायपूर्ण संघर्ष है।
    
हमास द्वारा इजरायल पर बोला गया हमला यद्यपि अतिवादी तौर-तरीकों से लैस था जिसकी शिकार निर्दोष इजरायली जनता भी हुई पर तब भी यह सालों से कुचली जा रही फिलिस्तीनी जनता की ओर से अपनी मुक्ति हेतु नयी जंग का ऐलान था। फिलिस्तीनी जनता की यह जंग न्यायपूर्ण जंग है।  
    
लेकिन जैसे ही 7 अक्टूबर को हमास द्वारा यह हमला किया गया वैसे ही अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इसे ‘‘आतंकवाद’’ की संज्ञा दी और घोषणा की कि इजरायल को अपनी सुरक्षा करने का अधिकार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इजरायल की हमलावर फौज की मदद के लिए हथियार, गोला-बारूद और अपने सबसे आधुनिक एफ-35 बमबर्षक विमान भेज दिये। अमरीकी साम्राज्यवादियों के सुर में सुर मिलाते हुए यूरोपीय संघ ने भी हमास के हमलों की इन्हीं शब्दों में भर्त्सना की। एक तरफ, अमरीकी साम्राज्यवादी रूस द्वारा यूक्रेन के इलाकों को अपने में शामिल करने की निंदा करते हैं तो ठीक उलटे इजरायल द्वारा फिलिस्तीनी लोगों को उजाड़कर वहां पर यहूदी बस्तियां बसाने के विरोध में एक शब्द भी नहीं बोलते। यह अमरीकी साम्राज्यवादियों और यूरोपीय साम्राज्यवादियों का पाखण्डभरा व्यवहार कोई नया नहीं है। इसने यह एक बार फिर साबित कर दिया है कि अमरीकी साम्राज्यवादियों के दोहरे मानदण्ड उनकी दुनिया में प्रभुत्व करने की आकांक्षा से जुड़े हुए हैं। बल्कि यही उनका प्रस्थान बिन्दु और लक्ष्य होता है। 
    
एक तरफ, इजरायल गाजापट्टी पर लगातार हमले कर रहा है। अमरीकी साम्राज्यवादी हर तरह से इजरायल की मदद कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ लेबनान में हिजबुल्ला लड़ाकों ने शेबा फार्म पर गोले दागकर हमास के साथ एकजुटता दिखाई है। शेबा फार्म एक छोटा सा इलाका है जो लेबनान का है और इस पर इजरायल ने कब्जा कर रखा है। अगर यह लड़ाई और आगे जारी रहती है तो इजरायल के उत्तर से हिजबुल्ला भी एक नया मोर्चा खोल सकता है। 
    
जैसे कि पहले कहा जा चुका है कि अरब देशों के शासकों ने फिलिस्तीन के संघर्ष से मुंह मोड़ लिया था और ज्यादातर शासक इजरायल के साथ सम्बन्ध कायम कर चुके थे। लेकिन अरब देशों की जनता फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के पक्ष में रही है और आज भी है। फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के पक्ष में अरब देशों की जनता के खड़े होने के चलते ये शासक भी फिलिस्तीनी स्वतंत्र राज्य के पक्ष में जुबानी जमा खर्च करते रहे हैं। अब जब इजरायल गाजा पट्टी को तहस-नहस करने पर आमादा है, तब इसने अरब देशों के शासकों को भी इजरायल के विरुद्ध बोलने के लिए मजबूर कर दिया है। चूंकि इन शासकों को अपने-अपने देश में फिलिस्तीनियों की आजादी के समर्थन में जनता के उठ खड़े होने की परिस्थितियां बनती दिख रही हैं, इसलिए मौजूदा समस्या का कारण वे इजरायल की कब्जाकारी नीति को मानते हैं और यह मांग करने लगे कि 1967 और 1973 के युद्ध के दौरान कब्जाई गई जमीनों को इजरायल खाली करे। इस क्षेत्र के प्रमुख देशों में दो देशों- संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत- ने हमास के आक्रमण की निंदा की है। बाकी देशों ने फिलिस्तीन की आजादी छीनने के चलते इजरायल को युद्ध का जिम्मेदार ठहराया है। अरब देशों का यह जुबानी विरोध इजरायल के शासकों के लिए गाजापट्टी पर जमीनी हमला न करने का एक कारण हो सकता है। लेकिन इससे बड़ा कारण, हमास द्वारा बंधक बनाये गये सौ से अधिक सैनिक और नागरिक हैं जो इजरायल द्वारा गाजापट्टी के भीतर जमीनी हमला न करने में बाधा हैं। चूंकि इन इजरायली बंधकों को गाजापट्टी की अलग-अलग जगहों पर रखा गया है, इसलिए इन्हें किसी सैनिक कार्यवाही के जरिए मुक्त कराना मुश्किल सा लगता है। यदि इजरायली जमीनी कार्रवाई करने के लिए अपनी फौज गाजापट्टी के भीतर भेजते हैं तो यह घर-घर में घुसकर लड़ाई करने की ओर ले जायेगा। इजरायली सेना को हमास के लड़ाकों के साथ 23 लाख की जनता से टकराना होगा। यह भी एक बाधा है। यदि 23 लाख की आबादी के इस क्षेत्र को आबादी विहीन करने का दुस्साहस इजरायली शासक करते हैं तो इसका दुनिया के पैमाने पर बड़ा विरोध सड़कों पर होगा। हालांकि इजरायल द्वारा जमीनी हमले की संभावना से पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता। 
    
अपने कारणों के चलते ईरानी शासक खुलकर हमास द्वारा किये गये हमले का समर्थन करते हैं और दृढ़ता के साथ उनके पक्ष में खड़े हैं। यमन के हौथी विद्रोही इजरायल के विरुद्ध संघर्ष में हमास का समर्थन कर रहे हैं। अफगानिस्तान के तालिबान ने भी हमास के हमले का समर्थन किया है। 
    
अगर यह युद्ध और लम्बा खिंचता है तो इसका क्षेत्रीय दायरा बढ़ सकता है और यह अरब देशों को भी इसमें खींच सकता है। ऐसा विस्तार अरब देशों के शासक नहीं चाहेंगे। इसलिए कई देशों ने दोनों पक्षों के बीच बातचीत कराने की मध्यस्थता करने की इच्छा व्यक्त की है। पर अत्याचारी इजरायली शासक अपने बंधक बनाये नागरिकों की भी परवाह न करते हुए गाजापट्टी व हमास को नेस्तनाबूद करने व वार्ता न करने का दम भर रहे हैं।
    
जो भी हो, इस युद्ध ने इजरायल की अजेयता के मिथ को तोड़ दिया है। वैसे भी इजरायल की मौजूदा सत्ता इजरायल के भीतर बढ़ रहे असंतोष का सामना कर रही थी। हाल में ही न्यायपालिका के अधिकारों को कम करने और उसे कार्यपालिका के मातहत करने के प्रस्तावित कदमों का बड़े पैमाने पर वहां के लोगों ने विरोध किया था। खुद बेंजामिन नेतन्याहू के ऊपर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप थे। नेतन्याहू की सरकार में घोर दक्षिणपंथी यहूदी नस्लवादी लोग सत्ता में हैं। इनकी घोर दक्षिणपंथी नीतियों का वहां की अन्य पार्टियां विरोध कर रही हैं। इस हमले ने तात्कालिक तौर पर बेंजामिन नेतन्याहू को समूची यहूदी आबादी को अंधराष्ट्रवाद के झंडे तले एकजुट करने में मदद की है। लेकिन यह तात्कालिक ही है। दूरगामी तौर पर बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार का विरोध और तीव्र होगा। 
    
कुछ लोग ऐसे हैं और ऐसे लोग दुनिया भर में हैं, जो हमास द्वारा किये गये हमले को आतंकवादी हमला कह कर निंदा करते हैं और साथ ही इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों पर किये गये अत्याचारों और उनको उनकी जमीन से बेदखल करने और जबरन यहूदी बस्तियां बसाने की भी आलोचना करते हैं। ऐसे लोग उत्पीड़कों और उत्पीड़ितों दोनों को समान रूप से देखते हैं। जो भी उत्पीड़ितों और उत्पीड़कों को एक ही तराजू में रख कर देखता है, वह दरअसल उत्पीड़कों के पक्ष में खड़ा हो जाता है। इस मामले में वे निष्पक्षता के नाम पर इजरायल की उत्पीड़नकारी सत्ता के वस्तुतः समर्थक बन जाते हैं। 
    
हमारे यहां प्रधानमंत्री मोदी ने ‘‘आतंकवादी’’ हमले की निंदा की है और इजरायल के साथ हमदर्दी दिखाई है। यह भारत की अभी तक चली आ रही फिलिस्तीन सम्बन्धी नीति के उलट बात है। फिलिस्तीन के स्वतंत्र राज्य होने के समर्थन में भारत की नीति रही है। लेकिन इधर इजरायल के साथ सुरक्षा और अन्य व्यापारिक रिश्तों के कारण इस नीति में बदलाव आया है। 
    
इसका कारण अमरीकी साम्राज्यवादियों की चीन को घेरने में भारत की मदद लेने तथा इजरायल, भारत, संयुक्त अरब अमीरात और अमरीका (I2U2) का गठबंधन बनना हो सकता है। वैसे भी अब भारत से पश्चिम एशिया और यूरोप को जोड़ने वाली अमरीकी योजना का फिलहाल कोई भविष्य नहीं दिखाई दे रहा है। इस युद्ध ने साऊदी अरब और इजरायल के परस्पर सम्बन्ध बहाल करने की अमरीकी साम्राज्यवादियों की पहल को भी खटाई में डाल दिया है। 
    
इजरायली यहूदी नस्लवादी सत्ता द्वारा गाजापट्टी पर हमले का विरोध करने तथा हमास द्वारा अगुवाई किये जा रहे संघर्ष का भविष्य क्या हो सकता है? अभी हमास को गाजापट्टी की व्यापक आबादी का समर्थन मिला हुआ है। कब्जाकारी सेना का विरोध जायज है। हमास के इस संघर्ष को पश्चिमी किनारे में भी समर्थन मिल रहा है। लेकिन यह संघर्ष कितनी दूर तक जा सकता है? इसकी सीमायें क्या हैं?
    
यह संघर्ष तभी व्यापक बन सकता है जब इजरायल के भीतर की मजदूर-मेहनतकश आबादी (यहूदी और गैर यहूदी) के सक्रिय समर्थन के साथ-साथ फिलिस्तीन की मजदूर-मेहनतकश आबादी की सक्रिय भागीदारी इसमें हो। ऐसा कट्टरपंथ अतिवादी नजरिये से संघर्ष को मुक्त किये बगैर संभव नहीं होगा। 
    
फिलिस्तीन की आबादी भी समरूप नहीं है। इस आबादी में भी सम्पन्न व्यवसायी और अन्य धनिक लोग हैं जिनके स्वार्थ इजरायली शासकों के विरोध में एक हद तक ही जाते हैं। इसलिए इनके नेतृत्व में कोई लड़ाई विजय तक नहीं जायेगी। इस संघर्ष में मजदूर-मेहनतकश वर्गों का नेतृत्व ही इसे अधिक कारगर बना सकता है। 
    
आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवादियों का दो खेमों में बंटने की ओर बढ़ना जहां इस संघर्ष के लिए कुछ अनुकूल परिस्थिति पैदा करता है पर दुनिया के स्तर पर राष्ट्र मुक्ति संघर्षों को सीधे समर्थन देने वाले समाजवादी मुल्क का विद्यमान न होना कहीं अधिक प्रतिकूल परिस्थिति पैदा करता है। ऐसे में फिलिस्तीनी अवाम का न्यायपूर्ण संघर्ष, उनकी कुर्बानियां दुनिया भर की संघर्षशील ताकतों के लिए प्रेरणा का काम करती रहेंगी।   

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है