मणिपुर : धर्म की ऐतिहासिक प्रयोगशाला

पिछले दस महीनों से मणिपुर में भयावह हिंसा जारी है। मैतेइ और कुकी समुदाय आमने-सामने हैं। यह 3 मई, 2023 को शुरू हुई थी। फरवरी, 2024 तक 219 लोग मारे जा चुके हैं। मारे जाने वालों में 166 कुकी हैं। इसके अलावा बहुत सारे लोग ‘गायब’ हैं। जगह-जगह गोलियां चल ही रही हैं, घर अभी भी जलाए जा रहे हैं। लगातार हत्याएं हो रही हैं। सेना के अधिकारी से लेकर पुलिस अधीक्षक तक अपहृत हो रहे हैं। मणिपुर में किया गया इंटरनेट शटडाउन 2023 में दुनिया का सबसे लंबा साइबर ब्लैकआउट रहा। इंटरनेट सेवा अभी तक पूरी तरह बहाल नहीं हो सकी है। 
    
इन दिनों जिस कस्बे में मैं रहता हूं, वहां से मणिपुर की सीमा सिर्फ कुछ घंटे की दूरी पर है। यह कार्बी और दिमाशा नामक जनजातियों का इलाका है। यहां थोड़ी कुकी आबादी भी है। हाल ही में मणिपुर से भाग कर कुछ कुकी परिवार उनके पास आए हैं।
    
केंद्र और मणिपुर राज्य की भाजपा सरकार किस प्रकार एक पक्ष- मैतेइ समुदाय- के समर्थन में है, इसके बारे में सबको पता है।
    
यह हिंसा क्यों हो रही है, इसके बारे में आपको बताया जाता है कि, यह दो ट्राइब्स मैतेइ और कुकी का झगड़ा है। इसके पीछे मैतेइ समुदाय की यह मांग है कि उन्हें भी कुकी समुदाय की भांति अनुसूचित जनजाति की लिस्ट में शामिल किया जाए। जिससे उन्हें मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदने का अधिकार और सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिल सके। इसी तरह कहा जाता है कि इसके पीछे कुकी समुदाय द्वारा की जाने वाली अफीम की अवैध खेती और कुकी लोगों के इलाके में मिला प्लैटिनम सहित विभिन्न खनिजों का बड़ा भंडार है, जिन पर मैतेइ माफिया कब्जा चाहते हैं। वहां शुरू की गई पाम तेल की खेती है, जिसके लिए पतंजलि समेत अन्य कारपोरेशनों को जमीन चाहिए।  पहाड़ी इलाकों में जमीन न खरीद पाने का मैतेइयों को दर्द है। ये सभी कारण सही हैं, इनके बारे में मैंने अन्यत्र विस्तार से लिखा है। लेकिन इनमें से कुछ तात्कालिक कारण हैं और कुछ को हिंसा शुरू होने के बाद सुनियोजित तरीके से उभारा गया है। इस प्रकार की किसी भी हिंसा के पीछे अनेक प्रकार के हित सक्रिय होते ही हैं। कोई दूसरे समुदाय की संपत्ति पर कब्जा चाहता है, तो किसी की नजर दूसरे समुदाय की स्त्रियों पर होती है, तो किसी का स्वार्थ इसमें होता है कि दूसरा समुदाय भाग जाए तो उनके व्यापार पर कब्जा जमाया जा सके। कोई इस बहाने अपना सामाजिक-राजनीतिक वर्चस्व बनाना चाहता है। इसी प्रकार मणिपुर में जारी हिंसा का कोई एक कारण नहीं है। 
    
लेकिन मणिपुर हिंदुत्व के लिए एक ऐतिहासिक प्रयोगशाला भी है, इसे कम लोग जानते हैं।
    
सरकार इसे एथिनिक हिंसा के रूप में प्रचारित करती है, जिसे हिंदी में अखबार ‘जातीय हिंसा’ लिखते हैं। लेकिन अगर इसे कोई सही नाम देना है तो वह ‘सरकार प्रायोजित गृह युद्ध’ हो सकता है। एक ऐसा गृह युद्ध जिसे मौजूदा भाजपा सरकार इसलिए प्रश्रय दे रही है, क्योंकि यह उसके पैतृक संगठन के सबसे बड़े सपने से जुड़ा है। वह सपना है, एक राष्ट्र, एक धर्म का।
    
इसे समझने के लिए मणिपुर की धार्मिक जनसांख्यिकी पर नजर डाल लेना आवश्यक होगा।
    
कुकी समुदाय ने 1910 में ईसाई धर्म अपनाया था। उससे पहले कुकी भी पूर्वोत्तर के अन्य आदिवासी समुदायों की ही तरह एनिमिस्ट (जीववादी) थे। आज 98 प्रतिशत से अधिक कुकी ईसाई हैं। कुछ अभी तक एनिमिस्ट हैं। सभी कुकी अनुसूचित जनजाति (एसटी) सूची में शामिल हैं।
    
दूसरी ओर आज अधिकांश मैतेइ हिंदू (83 प्रतिशत) हैं। मैतेइयों में 8.4 प्रतिशत मुसलमान, एक प्रतिशत से कुछ ज्यादा ईसाई और बाकी सनमही पद्धति का पालन करने वाले लोग हैं। मैतेइ कोई एक जाति या जनजाति न होकर एक जातीय समूह है, जिनमें सामाजिक-शैक्षणिक स्तर पर भिन्नताएं हैं। उनमें से कुछ समुदाय सामान्य वर्ग में हैं, कुछ आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के रूप में चिन्हित हैं। अनेक मैतेइ समुदाय अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति (एससी) सूची में भी हैं।
    
लेकिन 18वीं शताब्दी की शुरुआत तक मैतेइ हिंदू नहीं थे। यह सनमही और पखंगबा की आराधना करने वाला आदिवासी समुदाय था। अन्य आदिवासियों की तुलना में उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा अधिक विकसित और समृद्ध थी। 
    
15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 16वीं शताब्दी के शुरू में राजा क्याम्बा के शासनकाल के दौरान ब्राह्मणों ने मणिपुर में आना शुरू किया। करीब तीन सौ साल तक वे छोटी-छोटी टोलियों में आते रहे। उन्होंने मैतेइ राजाओं को अपने प्रभाव में लेना शुरू किया। संख्या में वे नगण्य थे, लेकिन 18वीं शताब्दी में वे इतने प्रभावशाली हो गए कि राजा उनकी बात मानने लगे। उनके कहने पर राजा ने मैतेइयों को हिदू धर्म अपनाने का आदेश दिया।
    
मैतेइ समुदाय ने लंबे समय तक इसका प्रतिरोध किया और वे अपनी आराधना पद्धति मानते रहे। लेकिन अंततः ब्राह्मणों की जीत हुई। वे अपना कर्मकांड और जातिप्रथा दोनों मणिपुर पहुंचाने में सफल रहे। यह सब इतिहास में लिपिबद्ध है और निर्विवाद है। .......
    
मणिपुर की हिंसा में मैतेइयों के दो संगठन सीधे तौर पर शामिल हैं, जिनके नाम ‘अरामबाई तेंगगोल’ और ‘मैतेइ लीपुन’ है। ‘अरामबाई तेंगगोल’ एक पुनरुत्थानवादी समूह है, जिसका मानना है कि ईसाई मिशनरियां मैतेइयों का तेजी से धर्मांतरण कर रही हैं। यह संगठन ईसाई मैतेइयों को सनमही परंपराओं की ओर लौटाने की बात करता है। 2023 की हिंसा से पूर्व इसका इतिहास चर्च के पादरियों को डराने-धमकाने का रहा है। इसे मणिपुर से भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा राज्यसभा सांसद लीशेम्बा सनाजाओबा का प्रश्रय प्राप्त है। दूसरी ओर ‘मैतेइ लीपुन’ एक हिंदुत्वादी संगठन है, जिसके मुखिया अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्व कार्यकर्ता मायेंगबाम प्रमोतचंद सिंह हैं। दोनों ही संगठनों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का रणनीतिगत समर्थन हासिल है।
    
बहरहाल, मुद्दे पर लौटें। मणिपुर में ब्राह्मणों ने 16वीं से 18वीं शताब्दी तक धर्मांतरण अभियान चलाया और वे सफल रहे। अब आरएसएस को लगता है कि जो चीज 500 साल पहले मणिपुर के एक हिस्से में हो सकती थी, क्या वह पूरे पूर्वोत्तर में नहीं हो सकती? पूर्वोत्तर की अधिकांश आबादी का ईसाई बने रहना, उनकी आंखों की किरकिरी है। हालांकि यह संभावना तो नहीं है कि ईसाई मतालंबी धर्मांतरण कर हिंदू हो जाएंगे। लेकिन आरएसएस को लगता है कि अगर अन्य धर्मालंबियों को आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया जाए, तो उन्हें हिंदू संस्कृति की ओर मोड़ना आसान हो जाएगा।
    
आरएसएस का मानना है कि संविधान के अनुच्छेद 342 को बदल दिया जाना चाहिए ताकि हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मांलंबी अनुसूचित जाति को मिलने वाली सुविधाएं न ले सकें। वह यह अभियान लंबे समय से चला रहा है। लेकिन, जैसा कि अनेक समाचार पत्रों ने रिपोर्ट किया है, इससे संबंधित आयोजनों की सुनियोजित शुरुआत 2022 के अंत में की गई है। अखबारों के अनुसार, इसका राजनीतिक लक्ष्य 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ‘हिंदू’ आदिवासियों की अपने पक्ष में गोलबंदी करना है। आरएसएस के अनुषांगिक संगठन ‘जनजाति धर्म संस्कृति सुरक्षा मंच’  तथा ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के नेतृत्व में ये आयोजन छत्तीसगढ़, झारखंड, तेलांगना, बंगाल और मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों में बड़े पैमाने पर हो रहे हैं। पूर्वोत्तर भारत के मणिपुर, त्रिपुरा, असम और अरुणाचल में इस आंदोलन को व्यापक स्तर पर चलाया जा रहा है। पूर्वोत्तर भारत के इन राज्यों में हिंदू आदिवासियों की अच्छी खासी संख्या है। आरएसएस इन जगहों पर इस मुद्दे पर रैलियां व अन्य प्रकार के आयोजन निरंतर कर रहा है, जिसमें भारी भीड़ भी जुट रही है। 
    
ध्यान दें कि गैर-हिंदुओं को एससी लिस्ट से बाहर निकालने का यह अभियान मणिपुर हिंसा शुरू होने (3 मई, 2023) के कुछ महीने पहले व्यापाक पैमाने पर शुरू हुआ था। 
    
मणिपुर हिंसा की शुरुआत न्यायालय के एक आदेश के बाद हुई थी, जिसमें न्यायालय ने सरकार से मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) की सूची में शामिल करने पर विचार करने को कहा था।     
    
लेकिन जैसा कि एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने अपनी चर्चित ग्राऊंड रिपोर्ट में नोट किया है कि कोर्ट का फैसला महज एक तात्कालिक कारण था। रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘3 मई को हिंसा भड़कने से पहले भी बहुसंख्यक मैतेई समुदाय और अल्पसंख्यक कुकी समुदाय के बीच तनाव अपने चरम बिंदु पर पहुंच रहा था। ऐसा लगता है कि राज्य सरकार ने अपने पक्षपातपूर्ण बयानों और नीतिगत उपायों के माध्यम से कुकी समुदाय के खिलाफ मैतेइयों के गुस्से को भड़काया था। उदाहरण के लिए, राज्य का नेतृत्व बिना किसी विश्वसनीय डेटा या सबूत के कुकी आदिवासियों के पूरे समुदाय को अवैध अप्रवासी और विदेशी कह रहा था।’’
    
वास्तव में हिंसा अचानक नहीं भड़की थी, बल्कि इसमें आरएसएस द्वारा चलाए जा रहे उपरोक्त अभियान की भूमिका थी, जो मैतेइ हिंदुओं को मणिपुर के संपूर्ण संसाधनों का मालिक और अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल होने का अधिकारी बता रहा था। ऐसा कर वह अपने उस मूल एजेंडे को आगे बढ़ा रहा था, जिसके अनुसार गैर-हिंदू दलित-आदिवासी और ओबीसी सरकार द्वारा प्रदत्त आरक्षण समेत अन्य प्रकार की सुविधाओं का पात्र नहीं होना चाहिए।
    
इस तथ्य की पुष्टि इससे भी होती है कि हिंसा के 7 महीने बाद ही हिंदू मैतेइयों को एसटी सूची में शामिल करने की मांग, ईसाई कुकियों को एसटी सूची से बाहर करने की मांग में बदल गई। 22 दिसंबर, 2023 को मैतेइ लीपुन ने इंफाल में एक रैली आयोजित कर ‘‘अवैध अप्रवासी कुकियों को एसटी लिस्ट से बाहर करने’’ के लिए अभियान की शुरुआत की। 24 जनवरी, 2024 को अरामबाई तेंगगोल ने भी एक बैठक आहूत कर कुकियों को एससी लिस्ट से बाहर करने की मांग की और मैतेइ राजनेताओं से लिखित वादा लिया कि वे उसकी मांगों को पूरा करने के लिए हरसंभव कदम उठाएंगे। मणिपुर के सभी मैतेई विधायकों, सांसदों तथा मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह ने भी अरामबाई तेंगगोल की इन मांगों पर अपनी लिखित सहमति दी। पिछले दिनों मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि कुकियों को प्राप्त एसटी दर्जा पर विचार के लिए समिति का गठन किया जा रहा है। मणिपुर की मैतेई बहुल विधानसभा राज्य में नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (छत्ब्) लागू करने का प्रस्ताव पारित कर चुकी है। यह दरअसल कुकी लोगों के एक हिस्से को विदेशी बता कर उनके अधिकारों को छीनने की कवायद का हिस्सा है। 
    
ये घटनाक्रम बताते हैं कि किस प्रकार कथित ‘दो कबीलों की आपसी हिंसा’ की आड़ में आरएसएस अपना एजेंडा आगे बढ़ाने में सफल हो रहा है।
    
लेकिन सवाल यह भी है कि आरएसएस को इसका हासिल क्या होगा? हिंदू धर्म को धर्मांतरण में प्रायः रुचि नहीं रही है। वस्तुतः जाति-व्यवस्था के कारण हिंदू दूसरे धर्म वालों को अपने धर्म में ला भी नहीं सकते। लाएंगे तो रखेंगे कहां? हिंदू नियमों में दूसरे धर्म से आने वालों के लिए कोई जगह नहीं बताई गई है। ज्यादा से ज्यादा उन्हें वर्ण संकर मान कर शूद्र श्रेणी में रखा जा सकता है। शूद्र बनने कौन उनके पास आएगा? इसलिए ब्राह्मण, जो हिंदुओं के अगुआ रहे हैं, धर्मांतरण, धर्मप्रचार जैसी चीजों से प्रायः दूर रहे हैं। 
    
लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ चाहता है कि अब ब्राह्मण व अन्य ऊंची जातियों के नेतृत्व में हिंदुओं का सैन्यीकरण किया जाए। धर्म के मामले में हिंदू, मुसलमान और ईसाइयों से ज्यादा कट्टर बनें। सैन्य मानसिकता को बरकरार रखने के लिए उन्हें एक सतत् चलने वाला अभियान चाहिए। आरएसएस अन्य धर्मालंबियों का कथित भारतीयकरण करना चाहता है, जो धर्मांतरण का ही प्रच्छन्न रूप है और एक लंबे अभियान की कार्ययोजना है। मणिपुर समेत पूरे पूर्वोत्तर भारत में इसका लिटमस टेस्ट जारी है। मणिपुर का गृहयुद्ध इससे सीधे तौर पर संबद्ध है। इस हिंसा के दौरान कुकी लोगों के लगभग 300 चर्च तोड़ डाले गए हैं। लेकिन यह हिंदुओं और ईसाइयों की वैसी सीधी लड़ाई नहीं है जैसा हिंदू-मुसलमानों का दंगा होता है। इसमें छल है, प्रलोभन है और जनजातियों के आपसी झगड़ों का लाभ उठाने की नीति है। वे भारत के कोने-कोने में ब्राह्मणीकृत हिंदू संस्कृति की स्वीकार्यता के लिए दूरगामी परियोजना पर प्रयोग कर रहे हैं। 
    
पूर्वोत्तर भारत में आरएसएस का काम चुनावी राजनीति से काफी बड़ा और अलग है। उसने एक-एक छोटे-बड़े स्थानीय नेताओं और छोटे-बड़े उग्रवादी संगठनों के प्रमुखों पर काम किया है, उन्हें कई मामलों में सब्ज बाग दिखाए हैं जबकि कई मामलों में भौतिक लाभ भी पहुंचाए हैं। यहां के आंदोलनों की जो सांस्कृतिक मांगें रही हैं, आरएसएस उन्हें खत्म करने में जुटा है। वह उनकी पुरानी मांगों को, जिनमें संस्कृति, स्वायत्तता और स्वाभिमान जैसी चीजें शामिल थीं, प्रत्यक्ष भौतिक लाभ देकर रौंद देने की रणनीति पर काम कर रहा है।
    
पहले सभी को लगता था कि पूर्वोत्तर भारत; जहां मणिपुर के अतिरिक्त मेघालय, अरुणाचल, नागालैंड और मिजोरम जैसे ईसाई रंग में गहराई से रंगे राज्य हैं, में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की दाल कभी नहीं गलेगी। लेकिन आज पूर्वोत्तर के सुदूर इलाकों में भी आरएसएस का परचम लहरा रहा है। विभिन्न आदिवासी समुदायों के उद्गम को हनुमान, बाली, जामवंत जैसे मिथकीय पात्रों से जोड़ा जा रहा है। अकादमिक स्तर पर उनकी लोकगाथाओं का ब्राह्मणीकरण किया जा रहा है तथा ऐन केन प्रकारेण उनकी किसी लोकगाथा को रामायण तो किसी को महाभारत से संबद्ध बताया जा रहा है।
    
आरएसएस ने पूर्वोत्तर में इतने शातिर ढंग से काम किया है कि प्रायः कोई भी पक्ष उसे खलनायक नहीं मानता। वह ऐसे खेल रहा है, जिसमें सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। जगह-जगह मंदिर बनाए जा रहे हैं, यज्ञ हो रहे हैं और भाजपा से लाभ पाने वाले ईसाई समुदाय से आने वाले नेता अपने-अपने आदिवासी समुदायों को यह समझाने में जुटे हैं कि पूर्वोत्तर को सभी धर्मों का सम्मान करने वाला समाज बनना चाहिए, इसलिए हमें मंदिर, यज्ञ आदि का विरोध नहीं करना चाहिए। 22 जनवरी, 2024 को अयोध्या में शिलान्यास के उपलक्ष्य में दीमापुर और कोहिमा जैसे शहरों को भाजपा ने राम-पताकाओं से पाट दिया। बाइक रैलियां निकाली गईं। तेज आवाज में ‘‘राम लला आएंगे’’ आदि गीत हल्ला गुल्ला के साथ बजाए गए। पूर्वोत्तर में ‘‘बाहरी’’ कहे जाने वाले लोगों का ऐसा शक्ति प्रदर्शन आश्चर्यजनक और अभूतपूर्व था।
    
उग्रवादी कहे जाने वाले इक्का-दुक्का छोटे संगठनों ने इसका विरोध किया, लेकिन विरोधियों की आवाज नक्कारखाने में तूती से अधिक नहीं थी। हालांकि इन आवाजों में एक आंतरिक ताकत है, यह देखना रोचक होगा कि आने वाले समय में इन आवाजों का क्या होता है।
    
लेकिन, यह देखकर दुःख होता है कि उत्तर भारत के लोगों की इस सबमें कोई रुचि नहीं है। हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों और भाजपा-विरोधी राजनेताओं की भी मणिपुर में दिलचस्पी बस इतनी है कि इसके बहाने भाजपा पर कितना हमला किया जा सकता है। ऐसे कई लोग मुझसे फोन करके पूछते हैं कि मणिपुर के दंगे के कारण 2024 के आम चुनावों में पूर्वोत्तर में भाजपा हारेगी या नहीं? उन्हें बस इतने से ही मतलब है।
    
लेकिन, इस तरह से विशुद्ध राजनैतिक होना ठीक नहीं है। इससे आप कोई दूरगामी परिणाम हासिल नहीं कर सकते। आपको तय करना चाहिए कि मणिपुर में कौन आततायी है और कौन शोषित? वहां कौन अभिजन है, कौन बहुजन?  किस पर सत्ता का हाथ है और किसका नरसंहार किया जा रहा है? आप भाजपा के विरोध में हैं यह ठीक है, लेकिन आप मणिपुर के मामले में किसके पक्ष में हैं? आपको यह भी सोचना और कहना होगा। यह कहना कि आप मनुष्यता के पक्ष में हैं, पर्याप्त नहीं है। आपको यह तय करना होगा कि मनुष्यता किस पक्ष में है। 

(लेखक प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और तकनीक के समाजशास्त्र में है। वे लंबे समय से पूर्वोत्तर भारत में रह रहे हैं।)

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आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

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सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है